भाग 2 – 1981 —पारिजात के फूल —-विजय कुमार सप्पत्ती, तेलंगाना

भाग 2 – 1981  —पारिजात के फूल —-विजय कुमार सप्पत्ती, तेलंगाना

मैं विदिशा शहर से था. छोटा सा अलमस्त शहर था.बेतवा नदी थी. कुछ और भी ऐतिहासिकस्थलथे.मैं और पारिजात एक ही मोहल्ले में रहते थे, मैंने उसे बचपन से ही देखा था. वो एक सीधी-साधी लड़की थी, जोहमेशा ही चोटी डाली रहती थी. जब भी एक दुसरे को देखते तो हम मुस्करा देते थे. वो अकसर छुटकी के साथ घर आया करती थी.तब कुछ इधर उधर कीबाते कर लेते थे. बस इतना ही था. मैं उसे पसंद करता था कि वो कितनी अच्छी लड़की थी, और वो भी मुझे पसंद करती थी कि मैं कितना अच्छा लड़का था, येबात मुझे छुटकी ने बताया था तो मैंजोर जोर से हंस पड़ा था. उन दिनों, इन सब बातों के लिए कहाँ जगह थी, बस एक अदद नौकरी की तलाश थी. मैंने MSC किया हुआ था.छुटकी ने BA में एडमिशन लिया हुआ था. पारिजात ने MA हिंदी साहित्य में एडमिशन लिया हुआ था. कन्हैया ने B.COM के बाद न पढ़ने की कसम खायी हुई थी. उसके पिताजी की किराना की दुकान थी, उसी पर वो अपने पिता जी का हाथ बंटा लेता था.
शहर में ऑटोपार्ट्स की एक ancilary यूनिट खूली हुई थी.मोहल्ले के सारे लड़के वही लग गए थे. मैंने भी वहाँ इंटरव्यू दिया और मेरा चुनाव हुआ ऑपरेटर की पोस्ट पर, वो भी टेम्पररी एक साल के लिए. मेरे घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी, मैं अकेला ही कमाने वाला था. पिताजी नहीं रहे थे बस ये खुद का घर था, जो कि रहने के लिए आसरा था.मैंने वो नौकरी ज्वाइन कर ली. घर में आकर ये खुशखबरी सुनाई तो सभी खुश तो हुए,लेकिन पढाई के मन माफिक नौकरी न मिलने पर दुःखी भी हुए, मैंने समझाया कि आजकल कहाँ ये सब मिलता है, जो मिले उसे ले लेना चाहिए और फिर मोहल्लेके बाकी लड़के भी तो है सभी कर रहे है.पारिजात को येबात पता चली तो वो भी खुश हुई, पता नहीं परउसे मेरी ख़ुशी में शामिल देखकर मुझे औरज्यादा ख़ुशी हुई.रात को मैंने कन्हैया को बियर पिला कर ख़ुशी मनाई. मैं तो इन सब बातों से दूर था.कोई शौक नहीं थे, हां कविता जरुर लिख लेता था.

शीतऋतु के शुरुवात में एक दिन पारिजात घर आई, और मुझसे कहा कि उसके कॉलेज में कवि सम्मेलन हो रहा है और उसने मेरा नाम भी लिखवा दिया है. मैंने आश्चर्य से पुछा तुम्हें कैसे पता कि मैं कविता लिखता हूँ, उसने हँसते हुए कहा छुटकी है न. तुम्हारे बारे में सब बता देती है. मैं मुस्करा दिया, और कहा कि मैं जरुर आऊंगा.

खैर,कवि सम्मेलन वाले दिन मैं, छुटकी और कन्हैया, पारिजात के कॉलेज पहुंचे. वहां पर जो कवि आये हुए थे, वो कविता के नाम पर शोर ज्यादा मचा रहे थे. मैंने कहा,‘यार कन्हैया ये कहाँ फंस गया मैं. यहाँ तो मिसफिट है या तो वो या तो मैं,’ कन्हैया ने कहा ‘यार, येस भी दूध उबालो और दही जमालो वाली कविता युग के लोग है, तेरी कविता फ्रेशनेस लिए हुए है, तू चिंता मत कर. तुमहिट हो यहाँ मेरे यार.’ खैर जब मेरा नाम पारिजात ने पुकारा. वही इस कवि मंच का संचालन कर रही थी. मैं गया, मंच को प्रणाम किया. और बड़े हिचकिचाते हुए पहली कविता पढ़ी.

‘जीवन’

हमें लिखना होंगा जीवन कि असफलताओं के बारे में
ताकि फिर उड़ सके हम इतिहास के नभ में
हमें फूंकना होंगा टूटे हुए सपनो में नयीउर्जा
ताकि मृत जीवन कि अभिव्यक्ति को दे सके
कुछ और नयी साँसे !

मैंने चुप होकर अपनी डायरी से नज़र उठायी, सारा हाल शांत हो गया था. पहली ताली कन्हैया ने बजाई, फिर तो बहुत सी तालियाँ बजी,जिसमें पारिजात की प्रशंसा भी थी.
मैंने दूसरी कविता पढ़ी
‘सोचता हूँ……’
सोचता हूँ
कि
कवितामें शब्दों
कि जगह
तुम्हें भर दूँ ;
अपने मन के भावों के संग
फिर मैं हो जाऊँगा
पूर्ण !

इस बार पहली ताली पारिजात ने बजायी. हाल में फिर तालियाँ और सीटियाँ गूंजी
लोगोने चिल्ला कर कहा ‘और पढो भाई, तुम तो गजब हो’
मैंने तीसरी कविता पढ़ी

‘नज़्म’

मुझ से तुझ तक एक पुलिया है
शब्दों का,
नज्मो का,
किस्सों का,
और
आंसुओ का…….
……और हां; बीच में बहता एक जलता दरिया है इस दुनिया का !!!!

इस बार कन्हैया ने जोरो से ताली बजायी, हाल में शान्ति थी. फिर बहुत सी तालियाँबजी, मैंने धीरे से पारिजात किऔर देखा, वो मुझे गीली आँखों से देख रही थी.
मैंने चौथी कविता पढ़ी
‘अंतिम पहर’

देखो आज आकाश कितना संक्षिप्त है,
मेरी सम्पूर्ण सीमायें छु रही है आज इसे;
जिंदगी को सोचता हूँ,मैं नई परिभाषा दूँ.
इसलिए क्षितिज को ढूँढ रही है मेरी नज़र !!!

मैं चाह रहा हूँ अपने बंधंनो को तोड़ना,
ताकि मैं उड़ पाऊं,सिमट्ते हुए आकाश में;
देखूंगा मैं फिर जीवन को नये मायनों में.
क्योंकि थक चुका है मेरे जीवन का हर पहर !!!

वह क्षितिज कहाँ है,जहाँ मैं विश्राम कर सकूं;
उन मेरे पलो को ; मैं कैद कर सकूं,
जो मेरे जीवन कि अमूल्य निधि कहलायेंगी.
जब आकाश सिमटेगा अपनी सम्पूर्णता से मेरे भीतर. !!!

पारिजात के फूलों के साथ तुम भी आना प्रिये,
प्रेम की अभिव्यक्ति को नई परिभाषा देना तुम;
क्षितिज की परिभाषा को नया अर्थ दूँगा मैं.
रात के सन्नाटे को मैं थाम लूंगा,न होंगा फिर सहर !!!

पता है तुम्हे,वह मेरे जीवन का अन्तिम पहर होंगा,
इसलिए तुम भिगोते रहना,मुझे अपने आप मे;
खुशबु पारिजात कि,हम सम्पूर्ण पृथ्वी को देंगे.
थामे रखना,प्रिये मुझे,जब तक न बीते अन्तिम पहर !!!

प्रेम,जीवन,मृत्यु के मिलन का होंगा वह क्षण,
अन्तिम पहर मे कर लेंगे हम दोनों समर्पण ;
मैं तुम मे समा जाऊंगा,तुम मुझमे.
जीवन संध्या कि पावन बेला मे बीतेंगा हमारा अन्तिम पहर !!!

पढ़कर मैंने पारिजात को देखा. पारिजात स्तब्ध थी, सारा हाल शांत था, फिर कही से सीटी बजी, कन्हैया की ताली बजी और सारे हाल के लोगो ने खड़े होकर तालियाँ बजी.
पारिजात अब भी किसी सपने में थी शायद.

मैंने कहा ‘अब आखिरी कविता, ताकिदूसरेकविभाइयों को भी मौका मिले’

‘क्षितिझ’

मिलना मुझे तुम उस क्षितिझ पर
जहाँ सूरज डूब रहा हो लाल रंग में
जहाँ नीली नदी बह रही हो चुपचाप
और मैं आऊँ पारिजात के फूलों के साथ
और तुम पहने रहना एक सफेद साड़ी
जो रात को सुबह बना दे इस ज़िन्दगी भर के लिए
मैं आऊंगा जरूर ।

तुम बस बता दो वो क्षितिझ है कहाँ प्रिय ।

इतना कहकर मैंने मंच को प्रणामकिया और नीचे उतर गया.
कन्हैया ने मुझे गले से लगा लिया,छुटकी खुशी से फुला नहीं समां रही थी, सारा हाल सीटियाँ बजा रहा था. पारिजात धीरे धीरे मेरे पास आई, मुझे देखा,उसकी आँखें गीली थी. फिर वो मंच पर चली गयी.

हम प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद घर साथ में ही वापस आये, सभी बाते कर रहे थे, मैं और पारिजात चुप थे. मैंने छुटकी को घर छोड़ा, फिर कन्हैया को और फिर पारिजात के साथ उसके घर गया,उसकी माँ घर के दरवाजे पर शिव के साथ बैठी हुई थी, वो सब पारिजात का ही इंतजार कर रहे थे, मैंने उन्हें नमस्ते की और पारिजात को धीरे से बाय कहा.

पारिजात ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर कहाकल काम पर मत जाना, मैंआऊंगी मिलने. मैंने कुछ नहीं कहा. उसका भाई और उसकी माँ, पारिजात के हाथ को मेरे हाथ पर रखा हुआ देख कर असहज हो रहे थे. मैंने धीरे से हाथ छुड़ाया और कहा, ठीक है, मैं घर पर रहूँगा.मैं वापस चल पड़ा. उस रात मैं ठीक से सो न सका. और जब सोया तो कच्ची नींद के पक्के सपनों में पारिजात और पारिजात के फूल दिखे.

दूसरे दिन पारिजात अपनी माँ के साथ आई, मैंने छुट्टी की अर्जी मोहल्ले के ही एक लड़के के हाथों में भिजवा दी थी. माँ ने मेरी पसंदीदा इडली-संभार बनायीं थी, मैं वही खा रहा था जब ये लोग आये. मैंनेइन्हें भी बिठाया. पारिजातकि माँ कल की असहजता को मन में रखी हुई थी वो मेरी माँ से इधर उधर की बाते करने लगी,छुटकी भी कॉलेज नहीं गयी थी. हम सब मेरी कमरे में आ गए, जहाँ मेरा संसार फैला हुआ था.छुटकी पारिजात के लिए भी इडली लेकर आई.छुटकी को माँ ने किसी काम से कन्हैया की दुकान पर भेजा कुछ सामान लाने के लिए.

उसके जाते ही पारिजात ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा ‘बताओ तो क्यावो कवितायें मेरे लिए थी ?’ मैंने कठिन स्वर में कहा,‘नहीं भी और हां भी, पहले उन कविताओं में निशिगंधा के फूल थे, अचानक कल कालेज में तुम्हें देखते हुए मैंने उन्हें पारिजात के फूल पढ़ दिया. पता नहीं ये कैसे हुआ,’ पारिजात ने कहा,‘मुझे पता है कैसे हुआ.’ मैंने कुछ नहीं कहाबस उसे देखते रहा, और वो मुझे. मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा दिया. पसंद अब चाहत में बदल रही थी. अचानक कमरे में उसकी माँ आई और हमें फिर से हाथ पर हाथ रखे देखा. और वो वापस चली गयी, वो समझ रही थी किक्या हो रहा है.फिर उसने पारिजात को आवाज दी और कहा कि चलो घर चलते है. मेरी माँ ने कहा अरी दीदी रहने देना, दोपहर का खाना खिलाकर भेज देती हूँ. तुम भी रुक जाओ, तुम भी खाकर चले जाना.शिव को बुला लेना.पारिजातकि माँ ने कुछ नहीं कहा.शिव अकेला बेटा था, एक फार्मा कंपनी में मेडिकल representative था. उन लोगों की हैसियत हमसे अच्छी थी. पारिजात के पिता भी नहीं रहे थे. लेकिन उन्होंने बड़ी संपत्ति छोड़ रखी थी.मैं ये सब सोच ही रहा था कि पारिजात ने कहा,‘चलो हरी, कुछ पौधे खरीद लाते है, माँ कुछ रुपये देना. हम पिछले मोहल्ले के गार्डन नर्सरी में जा रहे है.’उसने माँ से रूपये लिया. मेरी माँ ने भी उसे रोककर कुछ रुपये दिए और कहा किबेटी, मेरे घर के लिए भी कुछ पौधे ले आना. पारिजात ने मुसकराहट के साथकहा, जी माँ जी.

हम नर्सरी गए, उसने वहां पर पारिजात के दो पौधे खरीदे, मुझे सब कुछ अच्छा लग रहा था आज उसने दो चोटी कि जगह बालो को जूडा बना करर खा था. वो अचानक खुल गया, उसके लम्बे बाल उसके चेहरे पर बिखर गए, वो फिर से उन्हें बाँधने लगी, मैंने कहा ‘रहने दो, अच्छे लगते है खुले बाल तुम्हारे चेहरे पर. तुम तो बड़ी सुन्दर दिख रही हो आज.’ वो शर्मा सी गयी.

उसने कहा चलो जी, अब ये पौधे लगा लेते है, एक तुम्हारे घर और एक मेरे घर.
हम चल पड़े मेरे घर में छुटकी ने मदद की, मेरी और उसकी माँ दोनों देखती रही, फिर हम उसके घर चले, रास्ते में कन्हैया मिला, उसे भी ले लिया, पारिजात के घर में पौधे लगाते हुए हम मुस्करा रहे थे. कन्हैया से रहा नहीं गया, उसने कहा‘क्यों रे छुटकी, कलकी कविता का असर दिख रहा है न, सब कुछ बदला बदलासा है,’छुटकी ने हँसते हुआ कहा,‘मेरे मन कीबात कह दी कन्हैया भैया तुमने तो.’हम सब हंसने लगे, पारिजात लगातार शर्मा रहीथी.हम सब फिर मेरे घर कीऔर चल पड़े, रास्ते में शिव मिला, उसे भी ले लिए. घर में फिर सबने खाना खाया. और फिर अपने-अपने घर चले गए.

रात को माँ ने कहा, पारिजात की माँ तुम दोनों को लेकर बहुत असहज है, मैंने उसे समझाया है कि अपने आँखों के सामने पले और बड़े हुए बच्चे है, दोनों में कोई खोट नहीं है, इसलिए जो हो रहा है वो ईश्वर की मर्जी ही समझो आगे देखते है. मैंने कुछ नहीं कहा. बस शांत सुनते रहा और पारिजात के खुले बालो के बारे में सोचते रहा.

दुसरे दिन, मैं फैक्ट्री जाते हुए पारिजात के घर कीतरफ से गया, वो नहीं दिखी, शाम को भी उसके घर की तरफ से ही आया. वो नहीं दिखाई, मुझे कुछ बैचेनी हुई. मैंने छुटकी से पुछा, आज पारिजात नहीं दिखाई दी. उसने कहा वो कालेज भी नहीं आई थी. मैं कल उसके घर जाकर देखती हूँ. मैंने अनमने मन से खाना खाया और सोने कि कोशिश करने लगा. मुझे कुछ हो गया था. शायदप्रेम… !

दुसरे दिन शाम को जब लौटा तो छुटकी ने बताया कि पारिजात को तेज बुखार आया हुआ है, मैं नहा कर छुटकी और कन्हैया को लेकर उसके घर पहुंचा. वो घर में अपने माँ की गोद में सर रखकर लेटी हुई थी.हमें देखकर उठ कर बैठ गयी. वही सोफे पर शिव बैठकर चाय पी रहा था. हमें देखकर हमारे लिए भी ले आया. मैंने कहा, घर में एक आधा डॉक्टर है, बीमार कैसे हो गयी, क्या हुआ,शिव ने कहा,टेस्ट करवाया है,मलेरिया हो गया है, दवाई दी है ठीक हो जायेंगा. कन्हैया सुनकर गुनगुनाने लगा,‘मलेरिया हुआ या लवेरिया हुआ, पता करना पड़ेंगा.’ सब हंस पड़े. पारिजात ने गुस्से में उसे घूँसा दिखाया.

मैं बाहर आया तो देखा, उसका पारिजात का पौधे लहलहा रहा था, कुछ कलियाँ भी खिली हुई थी.मैंने कहा, ये पौधा भी लग गया, मेरे घर भी लग गया, लेकिन अभी कलियाँ नहीं आई, तुम्हारे घर पर जल्दी ग्रोथ हुआ है, पारिजात हँसते हुए बोली ‘अरे तो घर किसका है, पारिजात का. इधर ही सब कुछ जल्दी होंगा. तुम तो बुद्धू हो,समझते ही नहीं हो.’ सभी मुस्करा उठे.

करीब एक हफ्ते वो बीमार रही,मैं रोज घर आने के बाद उसे देखने जाते रहा.उसकी माँ भी अब खुल सी गयी थी, वो असहजता कम हो गयी थी.

अबसब कुछ अच्छा लगता था.मैं अब बात बात पर मुस्कराता था. कही खो जाता था, बादल और पेड़ पौधे अब अच्छे लगने लगे थे. ज़िन्दगी की नीरसता चली गयी थी. काम में मन नहीं लगता था, पर अपने काम को अच्छे से करता था, मुझे परमानेंट एम्प्लोयी बनना था. जीवन ठीक ही चल रहा था.

करीब दो दिन बाद पारिजात घर पर आई, उसके हाथ में एक शीशे की कटोरी थी जिसमे बहुत से पारिजात के फूल भरे हुए थे.मेरे कमरे में सीधे आई और मेरे हाथो को अपने हाथो में लेकर सारे फूल दे दिए. कहने लगी, ‘ मेरे घर के पारिजात के फूल है, तुम्हारे लिए है, स्वीकार करो ‘ मैंने हिचकिचा कर कहा कि ये फूल तो भगवान को चढ़ते है, उसने मुस्कराकर कहा‘ मेरे भगवान् तो अब तुम ही हो, मैंने माँ से कहदिया हैकि तुम ही अब मेरी ज़िन्दगी हो.‘ मैंने उसके हाथो को थाम लिया.

अब वो हर दिन हीघर आने लगी. मोहल्ले में भी सभी को पता चल ही गया कि हम

दोनों में प्रेम है और वो भी बहुत गहरा और सच्चा !
जीवनकी अपनी गति थी और प्रेम की भी अपनी !

फिर वो शाम को कविता को समझने के लिए आने लगी. कभी महादेवी वर्मा, कभी सुभद्रा कुमारी चौहान, कभी दिनकर, कभी प्रसाद, कभी गुप्त, कभीनागार्जुन.बस कविता, वो, मैं और प्रेम.

फिर एक दिन वो मेरे पास आकर कहने लगी कि कालिदास का कुमारसंभव पढ़ा दूँ.मैं पढ़ाने लगा, एक जगह आ कर मन भटकने लगा, मैंने उसका हाथ थाम लिया और उसे अपनी तरफ खींच लिया और धीरे से उसे आलिंगन में ले लिया . उसने कहा ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना वरना मैं जी नहीं पाउंगी.’ मैंने कहा,‘पागल तू भी मुझे छोड़ना नहीं, वरना मैं तो बस ख़त्म हो जाऊँगा.’हम बहुत देर तक ऐसे ही अलिंगन में रहे, मैंने धीरे से उसके माथे पर हलके से छुआ! वो शर्मा कर चली गयी, लेकिन मुझे बहुत ख़ुशी थी. अब बस मैं उसके बारे में ही सोचता था !

हमें जब भी समय मिलता हम शहर के मंदिरों में घूम आते, कभी किले की ओर चले जाते, कभी उदयगिरी, कभी विजय मंदिर, कभी गिरि श्रेणी, कभी चरणतीर्थ, कभी राम मंदिर, कभी शिव मंदिर, कभी हनुमान मंदिर…. पारिजात से प्रेम हो जाने के बाद ही पता चला कि मेरे शहर में कितनी सारी जगह है,कितने मंदिर है, हमें तो बस भगवान जी पर ही भरोसा था.हम अकसर नदी में पैर डालकर घंटों बैठे रहते, जीवन प्रेम में कितना खूबसूरत हो जाता है न.

एक दिन हम नदी के किनारे संध्या की आरती देख रहे थे. पारिजात ने आरती होने के बाद मुझसे पुछा,तुम्हें पारिजात कि कहानी पता है ?‘ मैंने कहा कि हां न पता है पारिजात नाम के इस वृक्ष के फूलो को देव मुनि नारद ने श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को दिया था। इन अदभूत फूलों को पाकर सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण से जिद कर बैठी कि परिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकि वाटिका में रोपित किया जाए। सत्यभामा की जिद्द पूरी करने के लिए जब श्री कृष्ण ने परिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा तो इन्द्र ने श्री कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पारिजात देने से मना कर दिया। जिस पर भगवान श्री कृष्ण ने गरूड पर सवार होकर स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और परिजात प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण ने यह पारिजात लाकर सत्यभामा कि वाटिका में रोपित कर दिया। ‘

पारिजात ने कहा, ‘ इसके अलावा भी एक और कहानी है ‘पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी,जिसे भगवान सूर्य से प्यार हो गया था, लेकिन अथक प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्यार कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्म हत्या कर ली थी। जिस स्थान पर पारिजात की समाधि बनी वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया.’ इसी कारण पारिजात वृक्ष को रात में देखने से ऐसा लगता है जैसे वह रो रहा हो, लेकिन सूर्य उदय के साथ ही पारिजात की टहनियां और पत्ते सूर्य को आगोश में लेने को आतुर दिखाई पडते है।‘
ये कहानी सुनकर मैं शांत हो गया था. पारिजात ने मेरे हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि मुझे कभी मत छोड़ना, मैं मर जाऊंगी, कह कर वो रोने लगी, उसके आंसू मेरे हाथ में गिरने लगे, मैंने तुरंत उसके आंसू पोंछे और कहा, ऐसा कभी नहीं होगा.भगवान जी ने हमें मिलाया है, वही भली करेंगे.

जीवन की अपनी गति होती है और प्रेम कीभी. प्रेम की विशालता कभी कभी जीवन को छोटा कर देती है.

संपर्क–
फ्लैट न० 402, पांचवी तल,
प्रमिला रेजीडेंसी हाउस न० 36-110/402,
डिफेंस कालोनी सैनिकपुरी पोस्ट
सिकंदराबाद – 500094 [तेलंगाना]
मो० : +91 9849746500
ईमेल: vksappatti@gmail.com

——————अंक जारी है ————

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