शेर दिखना चाहते हैं – डॉ. दीपक आचार्य

शेर दिखना चाहते हैं    – डॉ. दीपक आचार्य

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 लोग अपने आपको तीसमारखाँ दिखने-दिखाने के फेर में हैं। अपनी मौलिक प्रतिभा और गुणधर्म को भुलाकर अपने से ज्यादा ओहदेदारों और प्रतिभाशालियों के बराबर अपने आपको देखने की चाहत ने बहुत से लोगों को तनावग्रस्त कर रखा है।

       जो जितना अधिक प्रतिभाशाली और समृद्ध होता है वह उतना ही अधिक लचीला और विनम्र होता है। बड़े-बड़े पेड़ों पर जब फल लगते हैं तब वे झुकते हैं और सभी को मिठास देते हैं। इसके विपरीत काँटेदार पेड़-पौधे और झाड़ियाँ न किसी को सुहाती हैं, न किसी काम की होती हैं बल्कि जानवरों और इंसानों सभी के लिए मुसीबतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

       इसी तरह की स्थिति खजूर की है। बहुत सारे हुजूर आज खजूरों की तरह ही लम्बा कद पाकर एंटिना की तरह शोभायमान हो रहे हैं लेकिन उन लोगों से बहुत दूर हैं जो जमीन से जुड़े हैं, जमीनी हकीकत की बात करते हैं और हमेशा इस बात को याद रखते हैं कि आज जो कुछ दिख रहा है वह सब कुछ किसी दिन जमींदोज हो जाने वाला है।

       जो जितना प्रतिभाशाली और मेधावी है, हुनरमंद है उसे स्वीकार करें और उसके अनुरूप आदर-सम्मान दें। इससे ज्यादा आदर-सम्मान और श्रद्धा आदमी को अहंकारी बना कर बिगाड़ डालती है और फिर ऎसे आदमी किसी काम के नहीं रहते। ये अपने आपको इतना अधिक बड़ा समझ लिया करते हैं कि इनके लिए कुछ कहना भी मानवता का अपमान होगा।

       इसी प्रकार जो जितना हुनरमंद है उतना ही दर्शाये, इससे अधिक दर्शाने से कुछ होने वाला नहीं। आजकल हर आदमी इतना अधिक मूल्यांकनकर्ता हो गया है कि उसके लिए यह भाँपना कोई बड़ी बात नहीं है कि कौन कितने पानी में है।

       हर इंसान को उसके गुणावगुणों और प्रतिभाओं तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय उपादेयता के अनुरूप यथोचित सम्मान और स्थान मिलना चाहिए। और इसके लिए यह जरूरी है कि हम सभी लोग निरपेक्ष भाव से मूल्यांकन करें और इंसान की सामाजिक उपादेयता के अनुरूप उसे महत्त्व दें।

       इन सारे सिद्धान्तों और आदर्श सूत्रों के अनुसार चलने की बात यथार्थ और सत्य की कसौटी पर खरे उतरने वाले लोगों के लिए तो सही है लेकिन जो लोग धर्म, नीति और सत्य को छोड़ चुके हैं, जिनके लिए अपने स्वार्थ ही धर्म हैं और खोटे कर्म ही नीति हैं, उन लोगों के लिए कुछ भी वज्र्य नहीं है।

       ऎसे लोग उन्मुक्त, स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्द हैं। इसलिए इन लोगों के लिए परंपरागत आदर्श और सिद्धान्त कोई मायने नहीं रखते।

       ये ही लोग हैं जो वाकई में कुछ हैं नहीं, न प्रतिभा-मेधा और मौलिक गुणधर्म, और न ही मानवीय संवेदना, परोपकारी स्वभाव और मंगलकारी व्यवहार। इनके अभाव में फिसड्डी जीवन जी रहे बहुत सारे लोग अपने आपको स्थापित करने और दूसरे श्रेष्ठीजनों के मुकाबले खुद को दर्शाने के लिए अपनी तुलना करने लगते हैं और बार-बार उन लोगों से किसी न किसी रूप में अपना संबंध जोड़ते रहते हैं।

       यह ठीक वैसा ही है जैसे कि कुत्ते, उनके पिल्ले और बिल्ले जहां रहते हैं वहाँ अपने आपको शेर मानने लगते हैं। सियारों की भी तासीर यही है कि वे शेर की खाल ओढ़कर अपने आपको शेर दिखाने के आदी होते जा रहे हैं। बहुत सारे गीदड़ ताजिन्दगी शेरों की भाषा सीखने और आजमाने के जतन करते रहते हैं।

       हमारी जितनी प्रतिभा और औकात है उसी में रहने का आनंद है, अपनी औकात से अधिक दिखने और दिखाने की कोशिश कभी न करें।

       उन लोगों से अपनी तुलना कभी न करें जो अपने से कहीं अधिक ऊँचे और श्रेष्ठ मानवीय धरातल वाले हैं। रंगे सियारों और श्वानों के लिए अपने आपको शेर दिखाने और मनवाने के सारे जतन कभी न कभी कलई खोलकर दुःखी करने वाले हैं।

       इंसान का मूल्यांकन उसकी हराम की कमाई, धूर्तताओं और षड़यंत्रों से नहीं होती बल्कि वही इंसान श्रेष्ठतर होता है जिसमें इंसानियत है। इंसानियत को छोड़कर जो कुछ है वह आसुरी है और इस आसुरी सम्पदा का वही हश्र होना है जो इतिहास की घटनाओं में वर्णित है।

       जिस मुकाम पर हैं वहाँ से अधिक ऊँचाई पाने के लिए मानवीय मूल्यों, सिद्धान्तों और आदर्शों को अपनाएं तथा तुलना करने की बजाय उन लोगों के गुणों, व्यवहार और स्वभाव को अपनाएं, जो हमसे हर मामले में श्रेष्ठ हैं, और श्रेष्ठ ही रहेंगे। वे हमारी तरह छोटे-छोटे और क्षुद्र स्वार्थों में अपने आपको गिराने के आदी नहीं होते।

       जो पिल्ले और बिल्ले, रंगे सियार अपने आपको शेर दिखने-दिखाने के आदी हैं उनका झूठ-फरेब और मक्कारी ही एक दिन उनका खात्मा कर देने को काफी है। इसलिए जैसे हैं वैसे रहें, आगे बढ़ने के लिए गोरखधंधों और षड़यंत्रों को न अपनाएं, अच्छाइयों को आत्मसात करें। ‘स्वयंमेव मृगेन्द्रता’  का शाश्वत सूत्र हर युग में रहा है और रहेगा

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