धर्म की आड़ में छल,पुजारी ही बना दुराचारी !—-सज्जाद हैदर (वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्र चिंतक)

धर्म की आड़ में छल,पुजारी ही बना दुराचारी !—-सज्जाद हैदर (वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्र चिंतक)

एक सभ्य समाज जिसकी रूप रेखा प्रत्येक दिन गढ़ी जाती है। धर्म का सहारा लेकर समाज से कुरूतियों को दूर करने का उदाहरण भी दिया जाता है। जिसके लिए धार्मिक मान्यताओं को अत्यधिक महत्व भी दिया जाता है। यह एक ऐसा दृश्य है जोकि किसी एक धर्म से संबन्धित कदापि नहीं है अपितु यह दृश्य पृथ्वी पर सभी धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। सभी धर्म गुरू अपने-अपने धर्म के अनुसार उपदेश देते हैं। जिसमें अनुयायियों से सीधे संवाद करने का प्रयास किया जाता है। जिसमें आस्था के नाम पर पूरा खाका तैयार किया जाता है।

खास बात यह है कि जिसके बाद सभी धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म के आदेशानुसार जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा धर्म के लिए समर्पित करने की दिशा में कार्य भी करते हैं। जिसे सेवाभाव का नाम दिया जाता है। जिसमें प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने धार्मिक स्थानों में जाकर धार्मिक मान्याताओं के आधार पर पूजा-पाठ एवं सेवा करते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह होता है कि धर्म के प्रति अटूट आस्था का होना।

धार्मिक स्थानों की ओर से भी यह भरसक प्रयास किया जाता है कि प्रत्येक अनुयायी धर्म से जुड़े रहें साथ ही धर्मगुरुओं के प्रति अटूट आस्था बनाए रखें। लेकिन जब अत्यंत शर्मनाक घटनाएं सामने आती हैं कि धार्मिक गुरुओं ने ही आमानवीयता की सारे हदें पार करते हुए बलात्कार के रूप में गम्भीर एवं जघन्य अपराध कारित किया है तो फिर समाज के पास अब कौन सा विकल्प बचता है। क्योंकि अब समाज किस दिशा में आगे जाए…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि किसी भी धार्मिक गुरू के सीने एवं मष्तिस्क में को पैरामीटर नहीं लगा होता जिससे कि यह समझा जा सके की कौन सा गुरु वास्तविक है और कौन सा गुरू ढ़ोंगी है। इस प्रकार की घटनाओं से धार्मिक भावनाओं को भारी धक्का लगता है। जिससे समाज पूरी तरह से चिंतित होकर ठहर सा जाता है।

बदायूँ में घटने वाली घटना हाथरस से भी अधिक घातक है। क्योंकि इस घटना से जुड़ी हुई परतें जिस प्रकार से एक के बाद एक उभरकर सामने आ रही हैं वह पूरी तरह से मन को चकरा देने वाली हैं। क्योंकि हाथरस की घटना में जो दानव रूप दिखाई दिया था उससे यह एक कदम और आगे बढ़कर दिखाई दे रहा है। यह एक बड़ा सवाल है। क्या हो रहा है। इस समाज को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके पीछे कौन ताकतें खड़ी हैं। जिसके आगे पुलिस प्रशासन कमजोर साबित होकर मौन हो जाता है। यह एक बड़ा सवाल है। यह पुलिस के गिरते हुए इक्बाल के पीछे का कारण क्या है…?

जिस प्रकार मृतक पीड़िता के परिजन पुलिसिया व्यवस्था पर आरोप लगा रहे हैं उससे जो स्थिति उभरकर सामने आ रही है वह बहुत ही चिंताजनक हैं। क्योंकि हाथरस के केस में भी पुलिस के द्वारा इसी प्रकार का व्यवहार किया गया था। पीड़ित परिवार की कदापि नहीं सुनी गई और इसके ठीक विपरीत पीड़ित पक्ष को ही धमकाना शुरू हो गया था। जिसमें पीड़िता का उचित एवं सर्वोत्तम उपचार तक नहीं कराया गया था।

जब मामला मीडिया के संज्ञान में आया तो मामला सुर्खियों में आया। जब मीडिया ने मामले की संवेदनहीनता पर सवाल उठाना शुरू किया तो पुलिस प्रशासन के सुर बदलने शुरू हुए। लेकिन बड़ा यह है कि उसके बाद भी अंतिम समय तक पुलिस बलात्कार की घटना से अपना दामन बचाती रही लेकिन जब मामला CBI के पास पहुँचा तब जाकर पूरी सच्चाई मजबूती के साथ सामने आ सकी। जैसा कि पीड़ित परिवार कह रहा था ठीक वैसा ही CBI की जाँच में निकलकर सामने आया। हाथरस केस में सारी हदें उस समय पार हो गईं जब पीड़ित मृतका के शरीर का अंतिम संस्कार भी पुलिस प्रशासन ने जबरन रात्रि के घुप अंधेरे में कर दिया। इस प्रकार की संवेदनहीनता से समाज में क्या संदेश जाता है शायद इसकी चिंता तनिक भी पुलिस प्रशासन को नहीं है। क्योंकि अगर तनिक भी मर्यादा एवं ज़मीर होता तो कम से इस प्रकार के गंभीर दाग से तो पुलिस प्रशासन अपने दामन को बचा लेता। लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। यह बड़ी अजीब स्थिति है। समाज के अंदर से उठते हुए सवालों का जवाब कौन देगा…? इस प्रकार की संवेदनहीनता का निराकरण कैसे होगा…? इस प्रकार के दृश्य ने समाज के अंदर एक नई उलझन पैदा करने का कार्य किया है।
ज़रा सोचिए।

कल्पना करिए क्योंकि बदायूँ की घटना एक ऐसी घटना है जोकि दिल को पूरी तरह से झकझोर देती है। क्योंकि उस बेचारी अधेड़ उम्र की महिला का क्या कसूर था…? मात्र इतना ही कसूर था कि वह धर्म के प्रति गहरी आस्था रखती थी। जिसके कारण वह गाँव से कुछ दूर पर स्थित मंदिर में पूजा-पाठ एवं भगवान के दर्शन के लिए जाया करती थी। जिसके मंदिर के पुजारियों ने अवसर देखकर मौके फायदा उठाया। और उसके साथ वह सब कुछ किया जिसे एक राक्षस भी करने से अपने कदम पीछे खींच लेगा। लेकिन पुजारियों ने वह सारी हदें को पार दीं। जिसने संस्कृति एवं विश्वास तथा मर्यादोओं सहित सभी को पूरी तरह से चूर-चूर कर दिया। इतना जघन्य कुकृत्य साधारण मनुष्य तो कदापि नहीं कर सकता। मंदिर के पुजारियों ने जिस प्रकार से एक अधेड़ उम्र की महिला के शरीर को नोंचते हुए तार-तार किया है वह कदापि शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है। जिसे कोई भी व्यक्ति बयान करने का साहस तक नहीं जुटा सकता। लेकिन कल्पना करिये कि इस खौफनाक दर्द को एक परिवार झेल रहा है। वह पल कितना दुखद है जिसमें एक वृद्ध बूढ़ी माँ अपनी बेटी के दर्द को देखकर लाचारी एवं बेबसी के आँसू बहा रही थी। जरा दिल पर हाथ रखकर सोचिए एक बेटा अपनी माँ की इस प्रकार की दुर्दशा को देखकर बेबसी के आँसू बहा रहा है। लेकिन उसकी फरियाद कोई भी सुनने वाला नहीं है। इससे समाज में क्या संदेश गया है इसको कौन सोचेगा…?

क्योंकि पुलिसिया कार्यवाही पर उठते हुए सवाल बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं। क्योंकि जिस प्रकार से मृतका के परिजन बयान दे रहे हैं वह बहुत ही चिंताजनक है। क्या पुलिस प्रशासन इतना निर्लज्ज एवं संवेदनहीन हो सकता है…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि जिस प्रकार से परिजनों के द्वारा आरोप लगाए जा रहे हैं वह बहुत ही गंभीर श्रेणी के आरोपों में से एक हैं। क्योंकि परिजनों का आरोप है कि दरिंदों के द्वारा नोचा हुआ शरीर जिसमें जगह-जगह से खून बह रहा था जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। जिससे पूरा शरीर खून से पूरी तरह से लतफत था। लेकिन अफसोस पुलिस को यह दिखाई नहीं दे रहा था। अपितु पुलिस लगातार दबाव बना रही थी कि शव का जल्दी से जल्दी दाह-संस्कार कर दिया जाए। जिसमें पुलिस उल्टा पीड़ित परिवार के ऊपर ही बरस रही थी।

इस प्रकार की संवेदनहीनता के लिए अब शब्द ही नहीं बचे कि जिन शब्दों के माध्यम से इस प्रकार कुकृत्यों की तुलना की जाए। इस घटना से एक बार फिर से यही सिद्ध होता है कि जिस प्रकार से हाथरस की घटना में पुलिस ने जबरऩ दाह-संस्कार रात्रि में किया उसी ओर बदायूँ की पुलिस भी अग्रसर थी जोकि लगातार पीड़ित परिवार पर दबाव बना रही थी। जिससे कई प्रश्नों का जन्म एक साथ होना स्वाभाविक है। क्या पुलिस ने हाथरस की घटना से कुछ सीखा अथवा नहीं…? क्या पुलिस ने हाथरस की घटना से अपने रवैए में कुछ परिवर्तन किया अथवा नहीं…? क्या पुलिस की नजर में संविधान के दायरे में समस्त मानव प्राण की कुछ अहमियत भी है अथवा नहीं…? यह बड़े सवाल हैं।

सबसे जटिल सवाल यह है कि पुलिस का दोहरा रूप कभी-कभी क्यों दिखायी देता है। यही पुलिस कभी इतनी सबल हो जाती है कि अपराधियों पर कहर बनकर टूटती है तो कभी इतनी निर्बल हो जाती है कि एक भी शब्द बोलने तक का साहस नहीं जुटा पाती। अभी कुछ दिन पहले घटी बलिया की घटना इसका अडिग प्रमाण है कि जहाँ सरकारी राशन की दुकान के आंवटन के लिए सभी आला अधिकारी मौजूद थे लेकिन अधिकारियों की उपस्थिति का असर कुछ दिखाई नहीं दिया अपितु ठीक उसके विपरीत हुआ एक व्यक्ति की दिन दहाड़े सभी के सामने हत्या कर दी गई और कमाल की बात यह है कि हत्यारा हथियार लहराते हुए वहाँ से फरार होने में कामयाब रहा। यह एक ऐसा सवाल है जिसे समझने के लिए पहले बहुत कुछ समझना पडेगा। क्योंकि पुलिस को दोहरा रूप बड़ा ही जटिल है।

कहीँ ऐसा तो नहीं कि इस पुलिसिया वर्दी के पीछे कोई अदृश्य ताकत तो नहीं खड़ी है जोकि अपने रिमोट कंट्रोल से इस पूरे तंत्र को संचालित कर रही हो…? यह समझने की आवश्यकता है क्योंकि हाथरस की घटना और बदायूँ की घटना ने बंद शब्दों में बहुत कुछ कह दिया। क्योंकि पुलिस जिसे बचा रही थी वह गुनहगार थे। अर्थात गुनहगारों को बचाती हुई पुलिस का दृश्य तो सभी ने देखा लेकिन उस अदृश्य शक्ति को किसी ने नहीं देखा जिसके इशारे पर यह कार्य पुलिस कर रही थी। अतः मात्र पुलिस को कोसने से कुछ नहीं होगा क्योंकि पुलिस के पीछे खड़ी उस अदृश्य शक्ति की ओर भी झाँककर देखने की जरूरत है।

महिला सुरक्षा के लिए कानून रोज नए-नए बनते हैं। योजनाएं रोज नए-नए नामों से संचालित होती हैं लेकिन धरातल की स्थिति में सुधार नहीं हो रहा। जिस पर विचार करने की जरूरत है। क्या इस प्रकार की रूप रेखा से कोई भी व्यक्ति अपनी बेटी को घर से बाहर भेजने का साहस जुटा पाएगा। नहीं कदापि नहीं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस प्रकार की घटना से बहन बेटियों के बीच क्या संदेश पहुँच रहा है इसे गम्भीरता से बैठकर सोचने की आवश्यकता है। क्या देश एवं कानून के जिम्मेदारों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती…? इस ओर भी देश की जनता को ध्यान देना बहुत जरूरी है।

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