कायस्थों की अनदेखी पड़ सकती है महंगी—– मुरली मनोहर श्रीवास्तव

कायस्थों की अनदेखी पड़ सकती है महंगी—– मुरली मनोहर श्रीवास्तव

बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जातिय समीकरण को साधते हुए राजनीतिक महत्वाकांक्षा अब तूल पकड़ने लगी है। बिहार से 15 राज्यसभा सदस्य हैं जिसमें आधे से अधिक सवर्ण समुदाय से हैं। सवर्ण जाति को साधने की कोशिश में एनडीए और महागठबंधन सवर्ण जाति में राजपूत, भूमिहार और ब्राह्मण को जगह तो दे रही हैं मगर बिहार में कायस्थ जाति को हाशिए पर छोड़ दिया है।

अपने तरीके से राजनीति करने वाली एनडीए में जहां जदयू ने हरिवंश और रामनाथ ठाकुर को रिपिट किया है वहीं भाजपा ने बिहार से राज्यसभा जाने वाले दो नेताओं में आर के सिन्हा और सीपी ठाकुर को ट्रैक से उतार दिया है। लेकिन एक बात औऱ भी है की सीपी ठाकुर के बेटे विवेक ठाकुर को राज्यसभा भेजकर इसकी खानापूर्ति तो कर दिया।

मगर आर के सिन्हा का पार्टी के प्रति वफादारी का नतीजा रहा कि इन्हें तो नहीं ही भेजा ऊपर से इनके बेटे ऋतुराज को भी सीट दे सकता था, मगर ऐसा नहीं किय़ा। वहीं कायस्थ को साधने के लिए झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश को भेजकर अपनी खानापूर्ति तो कर ली लेकिन इसमें कहीं न कहीं रंजिश की बू आ रही है।

भाजपा और जदयू यह मानकर चलती है कि सवर्ण समाज का वोट राजद खेमे में नहीं जाने वाला है लेकिन इस तरह से बिहार में कायस्थ जाति को सीट न देना भाजपा में किसी ग्रसित मानसिकता को दर्शा रहा है। राजनीतिक पंडितों का यह भी मानना है कि किसी कायस्थ नेता ने ही अपने वर्चस्व की राजनीति को केंद्र में रखकर ऐसी राजनीतिक बिसात बिछायी है। लेकिन इसका फायदा दल को होने की बजाए घाटे का भी हो सकता है क्योंकि आर के सिन्हा भले ही कायस्थ समाज से आते हैं मगर इनकी मजबूत पकड़ सभी जातियों में बराबर की मानी जाती है।

सवर्ण समाज की 80 फ़ीसदी से अधिक वोट एकमुश्त भाजपा और एनडीए के खाते में जाता है। वहीं राजद के लाल तेजस्वी अब सवर्ण समाज की चार जातियों के नए वोटरों को अपने पाले में जोड़ने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। इसीलिये अब वे लालू यादव के शासन काल को अपनी सभा में नाम लेने से भी परहेज करते हैं।

भाजपा की एक सशक्त कड़ी के रुप में जाने जाते हैं राज्यसभा सांसद आर के सिन्हा। अपने पत्रकारिता जीवन से ही संघ की सेवा में जीवन गुजारने वाले को एक तो भाजपा ने बीतते उम्र में राज्यसभा भेजी और इस बार उनका नाम ही काट दिया। आर के सिन्हा पार्टी के लगनशील कार्यकर्ता रहे हैं तो उनकी जगह उनके पुत्र जिन्हें अमित शाह और प्रधानमंत्री का प्रिय भी माना जाता है को क्यों नहीं सदन भेजा गया। इसके पीछे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सुशील मोदी और पटना के सांसद रविशंकर प्रसाद की राजनीति के कोपभाजन बन गए।

अगर ऐसा हुआ है तो भाजपा को इसके लिए बड़ी कुर्बानी देनी पड़ सकती है। क्योंकि आर के सिन्हा किसी जाति के नेता भर नहीं बल्कि जमात के नेता हैं इस बात को भी भाजपा को गंभीरता से लेनी चाहिए। इस लिहाज से किसी अन्य प्रदेश से भी आर के सिन्हा को राज्यसभा में जगह दी जानी चाहिए क्योंकि पार्टी और संघ के प्रति इनका अगाध प्रेम प्रारंभिक दौर से ही रहा है। सवर्ण नेताओं को अपर हाउस भेजने में कोई एक पार्टी ही नहीं है बल्कि तमाम पार्टियां शामिल हैं जो उपरी सदन के लिए सवर्ण नेताओं पर ही भरोसा जता रही हैं। राज्यसभा में बिहार से आने वाले सवर्ण नेताओं में एनडीए के साथ-साथ महागठबंधन भी अब पीछे नहीं रह गया है।

एनडीएः

हरिवंश सिंह- — राजपूत (जदयू)
वशिष्ठ नारायण सिंह —जदयू — राजपूत
किंग महेंद्र — जदयू — भूमिहार
गोपाल नारायण सिंह — भाजपा — राजपूत
सतीश चंद्र दुबे — भाजपा — ब्राह्मण

महागठबंधनः

अखिलेश सिंह — कांग्रेस — भूमिहार
मनोज झा — राजद — ब्राह्मण
अमरेन्द्रधारी सिंह- राजद- भूमिहार

कायस्थ को बिहार से राज्यसभा में जगह नहीं देना राजनीतिक गलियारे में नया बखेड़ा शुरु कर दिया है। आर के सिन्हा एक ऐसे कायस्थ नेता माने जाते हैं जिनके सानिध्य में ही बिहार के कायस्थ अपनी राजनीति को जिंदा रखते हैं।

मगर भाजपा और जदयू ने कायस्थ को अलग किया ही महागठबंधन में भी कायस्थ को जगह नहीं मिलना बिहार की राजनीति के लिए बेहतर संकेत नहीं है। शायद राजनेता यह भूल जाते हैं कि कायस्थ समुदाय का ब्यूरोक्रेसी में बड़ा दल है अगर कायस्थ की नजाकत को नहीं समझेंगे राजनीतिक दल तो उन्हें आगे की राजनीति के लिए कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

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