मतदान के प्रति उत्साह क्यों नहीं ?———सुरेश हिन्दुस्थानी

मतदान के प्रति उत्साह क्यों नहीं ?———सुरेश हिन्दुस्थानी

चुनाव आयोग और मतदान के प्रति जागरुकता लाने वाले प्रेरक संगठनों के तमाम प्रयासों के बाद भी मतदान के प्रति वैसा उत्साह अभी तक देखने में नहीं आ सका है, जैसी उम्मीद की जा रही थी।

वास्तव में मतदान का प्रतिशत नहीं बढऩा कहीं न कहीं मतदाताओं की उदासीनता को ही प्रदर्शित कर रही हैं। सवाल यह है कि अपना जनप्रतिनिधि चुनने में मतदाता उदासीन क्यों होता जा रहा है, इसके पीछे कौन दोषी है? केवल राजनेता ही दोषी हैं या फिर जनता की निक्रियता भी दोष के दायरे में आती है। इन तमाम सवालों के उत्तर आज किसी के पास नहीं हैं। क्योंकि मतदान प्रतिशत बढ़ाने के तमाम प्रयासों के बाद भी नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला ही है।

देश की जनता को यह भी समझना चाहिए कि यह अवसर मात्र एक दिवसीय कर्तव्य का नहीं है, बल्कि मतदान के दिन हम पांच वर्ष के लिए सरकार का चुनाव करते हैं। हम पूरे पांच वर्ष तक केवल सरकार की खामी निकालते रहते हैं, लेकिन जब उन खामियों का जवाब देने का समय आता है, तब हम निष्क्रिय होकर घर में बैठ जाते हैं। ऐसे में हम जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता। दूसरे जैसा चाहते हैं, वैसा हो जाता है।

मतदान के प्रति यह उदासीनता कहीं न कहीं हमें अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों से भी दूर करता है। जरा स्मरण कीजिए कि आज देश में जो भी समस्याएं विद्यमान हैं, वे सभी स्वार्थी राजनीति के कारण ही हैं।

राजनीतिक सरकारें तभी देश का भला कर सकती हैं, जब देश की जनता अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति जागरुक हो। कहा जाता है कि भारत में जनता की सरकार है यानी लोकतंत्र है, लेकिन जब जनता ही सरकार चुनने में उदासीन हो जाए तो फिर क्या जनता की सरकार कहा जा सकता है।

कदाचित नहीं। देश की जनता को यह भी तय करना होगा कि हम हमारी सरकार चुनने जा रहे हैं। राजनेता तो मात्र हमारे प्रतिनिधि के तौर पर ही चुने जाते हैं। फिर बहुत बड़ी मात्रा में देश की जनता इस राष्ट्रीय यज्ञ से दूरी बनाकर क्यों चल रही है। देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए जनता को जागरुक होना ही होगा, यह समय की मांग है।

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान हमने यह भी देखा कि चुनावी आमसभाओं और रैलियों में ताबड़तोड़ भीड़ दिखाई दे रही है, लेकिन यह भीड़ मतदाता बनकर मतदान केन्द्रों पर नहीं पहुंच रही। इसके कारण यह भी हो सकते हैं कि यह भीड़ केवल एकत्रित की गई हो। नहीं तो क्या कारण है कि रैलियों में आने वाला समूह मतदान केन्द्रों तक नहीं आ रहा है। वह समूह मात्र भीड़ की श्रेणी में अपने आपको स्थापित कर रहा है।

अभी तक लोकसभा चुनाव के तीन चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है, लेकिन आमसभाओं जैसी भीड़ दिखाई नहीं दे रही है। इसलिए कहा जा सकता है कि देश का मतदाता इस बार भी पूरे जोश में नहीं आया है।

अभी तक का जो मतदान प्रतिशत आ रहा है, वह 60 प्रतिशत के आसपास ही है, ऐसे में यही कहा जा सकता है कि लगभग 40 प्रतिशत मतदाता अपने आपको चुनाव प्रक्रिया से दूर रखे हुए हैं।

यहां सवाल यह आता है कि जब देश में 60 प्रतिशत मतदान होगा तो स्वाभाविक ही है कि कोई भी प्रत्याशी कुल मतों का मात्र 20 या 25 प्रतिशत मत प्राप्त करने पर भी विजयी हो सकता है। मात्र एक चौथाई जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति समस्त जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि माना जा सकता है।

यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर केवल तर्क ही हो सकता है, लेकिन वास्तव में यह उत्तर किसी भी प्रकार से समुचित नहीं कहा जा सकता। प्राय: देखा जा रहा है कि मतदान के प्रति जिस प्रकार की उदासीनता लम्बे समय से अनुभव की जा रही है, वह यही है कि मतदाता कहीं न कहीं लालच की प्रतीक्षा करता है, जब हम अपना वोट बेचने की कवायद करेंगे तो फिर वही भ्रष्टाचार का खेल होगा। अन्यथा ऐसा कैसे संभव है कि देश का वोटर उस भ्रष्टाचार को कैसे समर्थन दे जिससे निकलने की वह जी तोड़ प्रयास कर रहा है, जिस भ्रष्टाचार की जकड़ उसे पैर-पैर पर महसूस हो रही है।

अब देश की जागरुक जनता को भी यह समझना चाहिए कि मतदान के प्रति हम स्वयं तो जागरुक हों, साथ अपने आसपास रहने वाले व्यक्तियों को भी जागरुक करें, तभी लोकतंत्र का असली रुप सामने आ पाएगा। कहीं ऐसा न हो कि पर्याप्त मतदान के अभाव में बाद में पछताना पड़े।

अभी इस बात को तय करें कि हम स्वयं तो मतदान करेंगे ही, साथ अपने साथ और मतदाताओं को भी मतदान के लिए लेकर जाएं। हम अपना कर्तव्य पूरी प्रामाणिकता के साथ निभाएं, तभी मतदान का प्रतिशत बढ़ सकता है।

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