समुद्र में समा रहे हैं भारत के तटीय इलाके

समुद्र में समा रहे हैं भारत के तटीय इलाके

ड्यू.काम———- बाढ़, जलवायु परिवर्तन और मानवीय लापरवाही की वजह से होने वाले भूमिकटाव के कारण भारत के तटीय इलाकों की जमीन तेजी से समुद्र में समा रही है. पिछले 26 सालों में देश का एक तिहाई तटीय इलाका समुद्र में डूब गया है.


केंद्रीय भू-विज्ञान मंत्रालय के तहत काम करने वाले नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च (एनसीसीआर) के एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 1990 से 2016 के बीच 26 वर्षों के दौरान 6,632 किमी लंबे तटीय इलाकों का एक तिहाई हिस्सा भूमिकटाव की वजह से गायब हो गया है. देश में तटीय रेखा की लंबाई 7,517 किमी है. लेकिन उसमें से 6,031 किमी का ही सर्वेक्षण किया गया.

पश्चिमी तट के मुकाबले पूर्वी तट पर यह समस्या ज्यादा गंभीर है और इस मामले में पश्चिम बंगाल का तटवर्ती इलाका सबसे संवेदनशील है. सबसे ज्यादा भूमिकटाव यहीं हुआ है. बंगाल की खाड़ी के तटीय इलाकों में यह समस्या ज्यादा गंभीर है. इसके बाद पुडुचेरी, केरल और तमिलनाडु का स्थान है.

एनसीसीआर

चेन्नई स्थित एनसीसीआर ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि तटीय इलाकों में भूमिकटाव आसपास रहने वाली आबादी के लिए बड़ा खतरा बन गया है और अगर शीघ्र इस पर अंकुश की दिशा में पहल नहीं की गई तो और ज्यादा जमीन और आधारभूत ढांचा समुद्र में समा जाएगा. इस नुकसान की भरपाई मुश्किल है. इससे तटीय इलाकों में स्थित गावों व शहरों में रहने वाली आबादी, इमारतों और होटलों को भारी नुकसान पहुंचेगा. एनसीसीआर के निदेशक एमवी रामन्ना मूर्ति कहते हैं, “तटीय इलाकों के पानी में समाने से खेती को भी काफी नुकसान होता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, नौ राज्यों और दो केंद्रशासित क्षेत्रों में भूमिकटाव का खतरा लगातार बढ़ रहा है.” वर्ष 1990 से 2016 के बीच देश के तटवर्ती इलाकों में 34 फीसदी यानी एक-तिहाई जमीन को भूमिकटाव की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा है. इसकी वजह से पस्चिम बंगाल की 99 वर्गकिमी जमीन समुद्र में समा गई. इस दौरान पूरे देश में तटीय इलाकों की 234.25 वर्गकिमी जमीन समुद्र में समा चुकी है.

मूर्ति बताते हैं, “देश के पूर्वी तट पर कटाव का खतरा पश्चिमी तट के मुकाबले गंभीर है. बंगाल में बीते 26 वर्षों के दौरान 63 फीसदी तटीय रेखा समुद्र में समा चुकी है. इसके बाद पुडुचेरी (57 पीसदी), ओडीशा (27 फीसदी) और आंध्र प्रदेश (27 फीसदी) का स्थान है.” वह बताते हैं कि हर राज्य में भूमिकटाव की अलग-अलग वजहें हैं. लेकिन लहरों के पैटर्न में आने वाला बदलाव, उसकी तीव्रता, तूफान और निम्न दबाव की वजह से होने वाली भारी बारिश के कारण नदियों से आने वाले गाद में कमी, बढ़ता जलस्तर और तटीय इलाकों में बड़े पैमाने पर निर्माण जैसी मानवीय गतिविधियां ही मुख्य रूप से इस हालत के लिए जिम्मेदार हैं.

बंगाल की स्थिति

पश्चिम बंगाल में तटीय इलाकों के समुद्र में समाने का खतरा सबसे गंभीर है. भूमिकटाव के चलते सुंदरबन इलाके के लोहाचारा और सुपारीभांगा नामक दो द्वीप हमेशा के लिए बंगाल की खाड़ी में समा चुके हैं. अब सुंदरबन इलाके को दुनिया में डूबते द्वीपों की धरती के नाम से जाना जाता है. इसरो की ओर से सेटेलाइट के जरिए जुटाए गए ताजा आंकड़ों से साफ है कि इस इलाके में बीते एक दशक के दौरान 9,900 हेक्टेयर जमीन पानी में समा चुकी है.

बंगाल देश में दूसरा सबसे घनी आबादी वाला राज्य है. तटीय इलाके में स्थित मैंग्रोव जंगल वाले सुंदरबन में प्रति वर्गकिमी एक हजार लोग रहते हैं. यह आबादी आजीविका के लिए समुद्र और जंगल पर ही निर्भर है. लेकिन लगातार तेज होते भूमिकटाव और समुद्र के बढ़ते जलस्तर की वजह से इलाके से लोगों का पलायन तेज हो रहा है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से सुंदरबन इलाके में लगातार बिगड़ते पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने की योजना पर काम कर रहे जाने-माने पर्यावरण विज्ञानी और जादवपुर विश्वविद्यालय में सामुद्रिक विज्ञान अध्यययन संस्थान के प्रमुख डॉ. सुगत हाजरा कहते हैं, “सुंदरबन के विभिन्न द्वीपों में रहने वाली 45 लाख की आबादी पर खतरा लगातार बढ़ रहा है. इलाके में कई द्वीप पानी में डूब चुके हैं और कइयों पर यह खतरा बढ़ रहा है.” वह बताते हैं कि खतरनाक द्वीपों के 14 लाख लोगों को दूसरी जगह शिफ्ट करने के साथ ही बाढ़ और तटकटाव पर अंकुश लगाने के लिए मैंग्रोव जंगल का विस्तार करने को प्राथमिकता देनी होगी. यहां समुद्र का जलस्तर 3.14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है.

दक्षिणी राज्य

केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्य भी भूमिकटाव की समस्या से जूझ रहे हैं. केरल के तटीय इलाकों में भूमिकटाव का आंकड़ा 40 फीसदी तक पहुंच गया है. एनसीसीआर रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम में शामिल केंद्रीय भू-विज्ञान मंत्रालय में सचिव एम राजीवन रहते हैं, “अरब सागर के मुकाबले बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव और तूफानों की वजह से पूरे साल मौसम खराब रहता है. इससे भूमिकटाव के मामलों में तेजी आती है.”

लेकिन दूसरे पश्चिमी राज्यों के मुकाबले केरल में भूमिकटाव की समस्या गंभीर क्यों है? इस सवाल पर उनका कहना है कि अरब सागर के दक्षिणी हिस्से में लहरों की तीव्रता ज्यादा होने की वजह से केरल के तटीय इलाके ज्यादा प्रभावित हैं. पश्चिमी तट के दूसरे राज्यों मसलन गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात, दीव व दमण में यह समस्या गंभीर नहीं है.

वजह व उपाय

एनसीसीआर के निदेशक रामन्ना मूर्ति कहते हैं, “तटीय इलाकों में मानवीय गतिविधियां तेज होने की वजह से भी भूमिकटाव की समस्या तेज हुई है. बंदरगाह इलाकों में बड़े पैमाने पर गाद या तलछट निकाल कर उसे गहरे समुद्र में फेंक दिया जाता है. लेकिन इनको तटीय इलाकों में फेंका जाना चाहिए.

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और समुद्र के बढ़ते जलस्तर ने जहां समस्या की गंभीरता बढ़ा दी है, वहीं नदियों के बेसिन पर बनने वाले बांधों की वजह से तटीय इलाकों तक गाद का प्रवाह कम हो गया है.

रिपोर्ट तैयार करने वाले एम राजीवन कहते हैं, “तटकटाव की समस्या पुरानी है. लेकिन इस पर अंकुश के प्रभावी उपाय तैयार करने के लिए इसकी माप-जोख कर ठोस आंकड़े जुटाना जरूरी है.” मूर्ति बताते हैं, “हर राज्य में भूमिकटाव की वजहें भिन्न हैं.

संस्थान ने अब इन वजहों का पता लगाने के लिए राज्यवार विश्लेषण के लिए दूसरे दौर का अध्ययन शुरू किया है.” सुंदरबन की समस्या पर काम करने वाले एक भू-वैज्ञानिक डा. देवेश्वर जाना कहते हैं, “समस्या के बारे में तो सबको पता है. लेकिन इसकी गंभीरता को ध्यान में रखते हुए अब महज संसद व सेमिनारों में बहस करने की बजाय इस पर अंकुश लगाने के लिए ठोस एकीकृत उपाय जरूरी है.” इसमें जितनी

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