- September 25, 2017
सर्वें में गिरावट–राष्ट्रीय मोर्चों पर सरकार असफल क्यों— डॉ नीलम महेंद्र
मार्च 2017 में उप्र के चुनावी नतीजों के बाद देश भर के विभिन्न मीडिया सर्वे में जुलाई तक जिस मोदी को एक ऐसे तूफान का नाम दिया जा था जिसे रोक पाना किसी भी पार्टी के लिए “मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन है”, वही मीडिया सर्वे सितम्बर माह के आते आते मोदी के तेजी से दौड़ते विजयी रथ को ब्रेक लगाते दिखाई दे रहे हैं।
अगर उनके द्वारा दिए गए आंकड़ों की बात की जाए तो पिछले साल की तुलना में मोदी सरकार से संतुष्ट लोगों की संख्या में 2% की गिरावट आई है (46% से 44%) वहीं दूसरी तरफ इस सरकार से असंतुष्ट लोगों की संख्या में 3% से 36% की वृद्धि हुई है।
कल तक जो सोशल मीडिया मोदी की तारीफों से भरा रहता था आज वो ही विपक्षी दलों द्वारा मोदी सरकार के दुष्प्रचार का सबसे बड़ा जरिया बन गया है।
बात यहाँ तक कही जा रही है कि ‘द टेलीग्राफ‘ के अनुसार संघ के एक अन्दरूनी सर्वे में यह बात सामने आई है कि 2019 में मोदी की चुनावी राह में बिछे फूलों की जगह काँटों ने ले ली है।
तो आखिर इन दो महीनों में ऐसा क्या हो गया?
देश की जनता जो मोदी के हर निर्णय को सर आँखों पर इस कदर बैठाती थी कि उसे ‘अन्धभक्त’ तक का दर्जा दे दिया गया था आज देश हित में दूरगामी प्रभाव वाले पेट्रोल की बढ़ती कीमत को सहजता के साथ स्वीकार नहीं कर पा रहीं है।
घरेलू मोर्चे पर सरकार की परफोर्मेन्स की अगर बात की जाए तो देश में बढ़ती हुई महंगाई के बावजूद भारत का आम आदमी आज भी इस बात को मानता है कि देश की बागडोर ईमानदार हाथों में है और मोदी द्वारा लिए गए फैसले जैसे नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटल इंडिया, स्वच्छता अभियान, शौचालयों का निर्माण ,मेक इन इंडिया, ये सभी देश हित में लिए गए वो फैसले थे जिनके नतीजे आशा के अनुरूप नहीं निकले (क्योंकि ये सभी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए)।
इसके परिणामस्वरूप नोटबंदी तक जो आम आदमी परेशानियों का सामना करने के बावजूद मोदी सरकार के इस कदम में उनके साथ था, जीएसटी के आते आते उसके सब्र का बांध टूटने लगा और मध्यम वर्ग खास तौर पर व्यापारी वर्ग का इस सरकार से मोह भंग होने लगा। उसे लगने लगा कि अपने प्रधानमंत्री द्वारा बनाए गए जिन कानूनों का पालन करने के लिए वो हर प्रकार की तकलीफों का सामना करने के लिए तैयार है उन कानूनों की धज्जियां वे ही लोग उड़ा रहे हैं जिन पर उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
वहीं अगर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार के काम की समीक्षा की जाए तो तीन तलाक, सर्जिकल स्ट्राइक, डोकलाम विवाद,ब्रिक्स सम्मेलन और यूएन में पाकिस्तान और आतंकवाद पर, विश्व का भारत के साथ होना ,एक तरफ सालों से अमेरिका के साथ ठंडे सम्बन्धों में गर्माहट तो दूसरी तरफ रूस के साथ सम्बन्धों को बरकरार रखना,इजरायल,साउदी अरब, ईरान आदि देशों से सम्बन्ध स्थापित कर देश के युवाओं के लिए नई राहों के अवसर खोलना ,स्वतंत्रता के 70 सालों पुराना बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद सुलझाना,ऐसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर काम करके इस सरकार ने विश्व पटल पर भारत का नाम पहुंचाया है।
यानी कूटनीति,विदेश नीति,और राजनीति के मंचों पर सफल होने वाली सरकार घरेलू नीतियों में बाजी हार गई।
या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है कि जो सरकार अन्तराष्ट्रीय मोर्चों पर सफल हो रही है वो घरेलू मोर्चे पर असफल हो रही है।
अब जो आदमी उपर्युक्त तथ्यों से सहमत होगा वो बहुत ही आसानी से इसके कारण को भी समझ लेगा कि भूल मोदी से कहाँ हुई।
दरअसल उन्होंने इस देश के नौकरशाहों को समझने में भूल कर दी। इस देश में सालों से फैले भ्रष्टाचार की जड़ों की गहराई आँकने में भूल कर दी।
देश तो मोदी और उनके फैसलों में मोदी के साथ था लेकिन वे लोग जिन पर मोदी के फैसलों को अमल में लाने की जिम्मेदारी थी, जिन पर देश बदलने की जिम्मेदारी थी, वो खुद तो नहीं बदले लेकिन अपने कारनामों से मोदी के फैसलों के परिणाम जरूर बदल दिए। बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत से कैसे सारा काला धन सफेद हो गया वो पूरा देश जानता है।
जनधन खातों का दुरुपयोग खाताधारक ने किया या फिर बैंकों ने यह जगजाहिर है।
शौचालय निर्माण के नाम पर जो फर्जीवाड़ा हुआ है वो उस गरीब ने किया है जिसके नाम पर शौचालय निर्माण के पैसे तो ले लिए गए लेकिन शौचालय का नामोनिशान नहीं है या फिर उस अधिकारी ने जिस पर इसकी जिम्मेदारी थी?
और क्या इस अधिकारी के सीनियर को इस बात की जानकारी नहीं थी या फिर वो भी इस फर्जीवाड़े में शामिल था?
पहले स्वच्छता अभियान और अब स्मार्ट सिटी के नाम पर जो गोरखधंधा हो रहा है क्या वो इस देश की आम जनता कर रही है?
कुल मिलाकर इन तीन सालों में काम उन्हीं मोर्चों पर हुआ जिन पर पीएमओ का सीधा दखल था और जिन मोर्चों की जिम्मेदारी आगे सौंप दी गई वो सालों पुरानी परंपरानुसार फाइलों में दफन कर दी गई।
2014 में जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर मोदी जीतकर आए थे,आज वो ही मुद्दा मोदी की जीत में रुकावट बनकर खड़ा है फर्क है तो इतना कि पहले सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते थे लेकिन आज सरकार खुद भले ही पाक साफ है लेकिन अपने नौकरशाहों के कारण वो कटघड़े में है।
इस बात से तो उनके विरोधी भी इंकार नहीं कर सकते कि जिस देश में वोटों की राजनीति होती हो और राजनैतिक पार्टियों की नजर में जिस देश का नागरिक वोट बैंक से अधिक और कुछ भी न हो उस देश के प्रधानमंत्री के लिए नोटबंदी करना और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर बात करना वाकई में कब एक “साहसिक फैसले” से “आत्मघाती फैसले” में बदल जाते हैं पता नहीं चलता उस देश में मोदी ने ऐसे फैसले लेने का जोखिम उठाया।
अगर इस देश में कुर्सी पर बैठा हर नेता और नौकरशाह ईमानदारी से अपना काम करता तो यह तीन साल इस देश की तकदीर बदलने के लिए एक मजबूत नींव का काम करते लेकिन इनकी बेईमानी ने देश की तकदीर भले ही नहीं बदली मोदी की कार्यशैली के प्रति लोगों की सोच अवश्य बदल दी।
अब अगर मोदी को लोगों का भरोसा बरकरार रखना है तो उन्हें पहले अपने नौकरशाहों को जीतना होगा, देश और जनता के प्रति उनकी जवाबदेही तय करनी होगी नहीं तो जिस सपनों के भारत का सपना उन्होंने देखा और दिखाया है कहीं वो सपना ही न रह जाए।
(लेखिका -बेहरतरीन संपादकिय विजेता है)
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( नवसंचारसमाचार ने दिसम्बर 2017 तक
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