पिताश्री और मेरी माताश्री को श्रद्धांजलि—-सुलेखा डोगरा

पिताश्री  और मेरी माताश्री को श्रद्धांजलि—-सुलेखा डोगरा

एक अरसे से मन में चाहत थी कि मैं अपने सवर्गीय पिताश्री के बारे में श्रद्दांजलि के रूप में कुछ लिख पाऊं , किन्तु वो इतने कर्मठ और जीवट वाले वयक्ति थे कि मैं सदा अपने आप को उनके बारे में कुछ भी लिखने में असमर्थ पाती। लेकिन फिर सोचा, जो भी मैंने उनके बारे में अपनी माँ से या बड़े बजुर्गो से सुना है और जो अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक उनके सरंक्षन में सीखा है या जिआ है शायद उसे अपनी लेखनी द्वारा आप सब तक पहुंचा पाऊं। वैसे तो हर बेटी के लिए उसका पिता हीरो होता है , लेकिन मेरे पिता पूरे जम्मू प्रान्त के लिए हीरो थे , उन्होंने हर चुनौती का बड़ी बहादुरी से सामना किया।

जीवन के हर क्षेत्र में कभी भी हार नहीं मानी। भले ही वो राजनीति की हो, या लोक सेवा हो। वो सबसे आगे रहते।

मैं सुलेखा अपने पांच भाई बहनो में सबसे छोटी और लाड़ली संतान थी । पिता जी अपने काम के सिलसिले में अधिक तर शहर से बाहर रहते और जब घर आते तो मेरी तो चांदी होती। हर बार नयी मांग और वो मना भी नहीं करते। जैसे जैसे बड़ी होती गयी उनकी हर बात से प्रभावित होती गयी। गर्व होता उनके वयक्तित्व पर। उनमे मुझे एक सच्चा, ईमानदार और समाज के प्रति निष्ठावान इंसान नज़र आता। उनके बारे में और अधिक जानने की तीव्र इच्छा होती। और फिर माँ से उनके जीवन के बारे में सब कुछ बताने का आग्रह करती।

यह सच है कि डोगरो का इतिहास ऐसे अनेक कर्मठ और उद्द्मीं कृति व्यकितत्वों से भरा पड़ा है ,जिन्होंने देश की सीमाओं के बाहर जाकर अपने श्रम और कर्मठता से अपनी जन्मभूमि को गौरवान्वित किया। आज भले ही जाम्मू की नई पीढ़ी अपने इतिहास पुरुषो को विस्मृत कर चुकी है ,किन्तु उनके कारनामे पिछली पीढ़ी के मानस पटल पर अभी भी अंकित हैं। जम्मू प्रान्त के जन जन के मानस में माँ शेरावाली वैष्णो माता नाम समाया हुआ है,किन्तु ऐसे कितने लोग होंगे जो कि मेरे स्वर्गीय पिता श्री पंडित शम्बू दत्त शेरांवाले के नाम से परिचित होंगे। इसी कारण मन में इच्छा होती कि मै उनकी जीवनी में से कुछ पन्ने लिखकर आने वाली पीढ़ी को उनके नाना या दादा और उनके वंशजो को अपने पिता जी से परिचित करवा सकूं।

वह एक ऐसे जीवट वाले डोगरा पुरुष थे जिन्होंने लगभग एक शताब्दी पूर्व अफ्रीका जाकर अपने श्रम से न केवल एक व्यवसाय स्थापित किया बलिक वहां के शेरों से भी न केवल ही दोस्ती की और उन्हें अपने साथ अपने शहर जम्मू ले आये और वहां के महाराजा को भेंट किया। तब से उनके नाम के साथ शेरांवाला जुड़ गया। मेरे सबसे बड़े भाई (मेरे पूज्यनीय चाचा जी के बड़े सुपुत्र ) स्वर्गीय डॉ. सत्यपाल श्रीवत्स मुझे मेरे पिता श्री के बारे में बहुत सी बातें बड़े गर्व के साथ सुनाते थे। अफ्रीका से वापिस लौटने के पश्चात् मेरे पिताश्री ने अपने निजी हितो को तिलांजलि देकर जम्मू शहर के हितो और डोगरों के शोषण के विरुद्ध संगर्ष किया।

माँ सुनाती थीं, कि पिताजी के बचपन में ही कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुयी, जिनके कारण ही वो जीवन की हर कठिन से कठिन परीक्षा में सफल होते गए। उनका जन्म कठुआ के सुरारि गांव में सन 1892 में शिव भगत पंडित बलदेव राज शर्मा और श्रीमति अन्नपूर्णा के घर हुआ। 11 वर्ष की आयु में उनके नाना जी शिक्षा के लिए उन्हें अपने साथ बनारस ले गए। जहाँ वह कश्मीर धर्मार्थ ट्रस्ट की सम्पति के जनरल मैनेजर थे। वहां पर मेरे पिता जी को वाराणसी की संस्कृत पाठशाला में प्रवेश मिल गया। शीग्र ही अपनी कुशाग्र बुद्धि से उन्होंने वहां के आचार्यों का दिल जीत लिया। सभी को इस छोटे से विद्दार्थी में भावी संस्कृत विद्वान् नज़र आने लगा। किन्तु भाग्य ने तो उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था।

उन दिनों डुग्गर देश में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित थी जिसकी भेंट चढ़कर अनेक बच्चो का जीवन असमय ही मुरझा जाता था । दुर्भाग्यवश मेरे पिता भी इसी प्रथा का शिकार हो गए। उस समय उनकी आयु केवल 14 वर्ष की थी। विवाहोपरान्त जब उनके नाना उन्हें वापिस पाठशाला लेकर आये तो प्रधान आचार्य ने यह कहकर कि वह एक विवाहित छात्र को अपनी पाठशाला में नहीं रख सकते , उन्हें वापिस भेज दिया। इस घटना ने उनके जीवन की धारा को ही बदल दिया। मन मसोस कर वह अपने गांव लौट आये। गांव में कोई विद्दालय न होने के कारण वह निरुद्देश्य भटकने लगे। कहीं भी उनका चित्त नहीं लगता। उन दिनों बहुत से लोग कारोबार के सिलसिले में अपना भाग्य आजमाने अफ्रीका जाते थे। मेरे दादा जी भी वहां चले गए थे।

सौभाग्यवश उनका कामकाज भी वहां अच्छा चल रहा था। बस फिर किया था , पिताजी जी मन ही मन अफ्रीका जाने के मंसूबे बनाने लगे। किन्तु उन्हें कुछ भी समझ नहीं आती कि कैसे जाेँऐ। लेकिन वह तो धुन के पक्के थे जो ठान लेते उसे पूरा करने के लिए पूरा दम लगा देते। घर वालो से अनुमति मिलने की कोई आशा नहीं थी ,यह लग भग सन 1906 की बात है, वह एक दिन बिना बताये घर से चुप चाप निकल गए। उस समय उनके आयु करीब 15 वर्ष के आस पास थी। तीन दिन का पैदल सफर तय करने के बाद जम्मू पहुंचे।फिर कुछ दिन जम्मू के प्रसिद्ध मंदिर रघुनाथ मंदिर में रुके।

उनके पास पैसे भी नहीं थे, लेकिन यदि कुछ था तो वो था उनका साहस उनका निश्चय। मंदिर की धर्मशाला में बहुत से लोग ठहरते थे. वहां उनकी पहचान किसी अफ्रिका जाने वाले दल से हो गयी। उसी दल के पीछे पीछे रेल से कराची और वहाँ से समुंद्री जहाज से की अफ्रीका जाना पड़ता था। जैसे तैसे रेल के किराये का जुगाड़ तो हो गया , लेकिन जहाज के किराये समस्या सामने आ गयी।

साहसी तो थे ही ज़रा भी विचलित नहीं हए। दल के यात्रिओं ने भी उन्हें अकेला देखकर उनकी बहुत सहायता की। वो जहाज में तो बैठ गए , लेकिन सोच में थे अगर पकडे गए तो क्या होगा। बस किसी एक कोने में दुबक कर बैठ गए। लेकिन भाग्य उनके साथ था, एक सेठ व्यपारी जो की उसी जहाज मेंअफ्रीका जा रहा था ,उसकी नज़र में आ गए। १५ साल के बालक का साहस देख कर वह बहुत प्रभावित हुआ और पिता जी को अपने साथ ले लिया और अफ्रिका में मेरे दादा जी तक सुरक्षित पहुंचा दिया।

मेरे दादा जी अपने बेटे को सामने पाकर बहुत ही आचम्भित हुए। अन्तत: उन्होंने इसे बेटे की नियति मान कर उन्हें कारोबार में लगा लिया। शीघ्र ही वह कारोबार के सारे गुर अपने पिता से सीख कर कारोबार में दक्ष होकर अपने पिता का हाथ बटाने लगे। जब मेरे दादा जी को उनके सुपुत्र की व्यवसायिक निपुणता पर विश्वास हो गया तो वह सारा कार्यभार अपने बेटे को सौंप कर अपने गाँव लौट गए।

कारोबार का स्वतन्त्र कार्यभार प्राप्त होने पर मेरे पिता श्री जी जान से अपने कारोबार की उन्नति में जुट गए। उन्ही दिनों उनका परिचय पटिआला के दो सिख भाईयों से हुआ और फिर उनसे दोस्ती भी हो गयी। केहर सिंग और हामीद सिंग दोनों भाई भी वहाँ छोटा मोटा काम करते थे। उनकी साझेदारी में मेरे पिता श्री ने एक कम्पनी स्थापित की। जिसका नाम पंडित शम्भू दत्त केहर सिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड रखा। उन्होंने अपनी कंपनी का मुख्यालय किजाबी गाँव में रखा जो इस समय कांगो गणतंत्र के वर्तमान कटांगा प्रान्त का एक गाँव है।

२०वी सदी के प्रारंभ में कांगो बेल्जियम का एक उपनिवेश था ,और प्राकृतिक सम्पदा और खनिज पदार्थो से भरपूर था। इनके उत्खलन के लिए दुसरे प्रांतो से भारी संख्या में लाये गए मज़दूर और अधिकारीयों के कारण इस कंपनी का कारोबार खूब फैला। दो वर्षो के भीतर ही कंपनी की आठ शाखाऐ खुल गयी और उनकी गणना मुख्य व्यवसायी प्रतिष्ठानों में होने लगी।

अपने व्यवहार और सूझ भूझ से उन्होंने न केवल स्थानीय लोगो अपितु उच्च अधिकारिओं से भी अच्छे सम्बन्ध बना लिए।साथ साथ उन्होंने अंग्रेजी और किजबि भाषा भी सीख ली. उनकी कंपनी में २५ स्थानीय मज़दूर काम करते थे , जिनपर उन्हें बहुत भरोसा था। पिता जी को शिकार और फोटोग्राफी का बहुत शौक था। अधिकतर वो वाइल्ड लाइफ की बहुत तसवीरें लेते थे। उनकी एल्बम में उनकी उन दिनों की बहुत सारी तस्वीरें थी। मै बड़े चाव से बार बार वो तस्वीरें देखती और बड़े गर्व के अपने मित्रों को भी दिखाती।

एक बार पिताश्री केहरसिंग और कुछ सहयोगिओं के साथ पिकनिक मनाने गए। दिन भर की मौज मस्ती के बाद जब वह वापिस लौट रहे थे , तो एक चट्टान पर उन्हें दो शावक नज़र आये। जो भूख से बिलबिला रहे थे। उनके साथियों ने शावकों पर गोली चलानी चाही , लेकिन पिताजी ने ऐसा करने से उन्हें रोक दिया , और शावकों को उठा कर घर ले आए।

उन्होंने शावकों के लिए एक अलग कमरे और नौकर की व्यवस्था की। कुछ समय पश्तात एक बाघ का बच्चा भी ले आये। तीनो को शुरू में तो खुद बोतल से दूध पिलाते , लेकिन थोड़े बड़े होने पर उन्हें मांस के टुकड़े डालना शुरू कर दिया। वह तीनो शावकों का खुद ख्याल रखते कियों कि नौकर भी उनसे डरने लगे थे। वह केवल अपने मालिक को पहचानते और पिता श्री उनके साथ खेलते और उनका धयान रखते।

समय अपनी गति से चल रहा था, कि भाग्य ने फिर पलटा खाया। अफ़्रिका में राजनैतिक उथल पुथल के कारण उन्हें कंपनी बंद करनी पड़ी और भारी मन से अपने देश लौटना पढ़ा। उन्होंने ने अपने पालतू शेरो के लिए दो मजबूत पिंजरे बनवाये और उन्हें बंद करके समुंद्री जहाज द्वारा कराची और फिर रेल द्वारा जम्मू ले आये । मैं अभी भी सोचती हूं कि कितने जोखिम भरा काम था, यह सब करना। स्वयं भी उनके साथ किसी मालगाड़ी में ही आए होंगे।

जम्मू में दूर दूर से लोग शेरो को देखने आते। शेरो को एक जू में रखा गया। पिता श्री की दिलेरी के चर्चे गली गली में होने लगे। सब लोग उन्हें शेरावाला कहने लगे। इसकी चर्चा रियासत के तत्कालीन महाराजा के पास पहुंची , तो उन्होंने पिताजी को अपने दरबार में शेरो सहित बुलाया। उनकी बेमिसाल दिलेरी की दाद दी। पिता श्री ने अपने पालतू शेर उन्हें भेंट कर दिए।

महाराजा हरी सिंह ऐसी नायाब भेंट पाकर बहुत प्रसन्न और प्रभावित हुए और उनके साथ एक मित्रवत व्यवहार करने लगे। उन्होंने पिता श्री की बहादुरी के लिए पांच हज़ार रूपये और एक ताम्र पत्र पर शेरांवाला की उपाधि दी। जम्मू के महाराजा प्रताप सिंग के ज़माने में वर्तमान विधान सभा परिसर में एक अजायबघर हुआ करता था। जिसका निर्माण प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के रियासत जम्मू कश्मीर के दौरे के उपलक्ष्य में किया गया था। पिता श्री द्वारा लाये गए शेरों को परेड ग्राउंड समीप उसी परिसर के एक बाडे में बने जू में रखा गया। वहीँ आजकल विधानसभा परिसर है।

लोग दूर दूर से शेरो को देखने आते। .एक दिन एक शेर पिंजरा तोड़ कर बाहर सड़क पर आ गया और वहां से गुज़र रहे एक तांगे के घोड़े को दबोच लिया। शहर की मुख्य सड़क पर दहाड़ते खुले शेर की खबर से पूरे नगर में दहशत फ़ैल गयी। लोग डर के मारे घरों के अंदर घुस गए। जब यह खबर महाराजा तक पहुंची तो उनके आदेश पर पिता श्री को शेर को नियंत्रित करने के लिए बुलाया गया। घटना स्थल पर पहुँच कर उन्होंने स्थिति का जायज़ा लिया और दूर से शेर को उसके नाम से सम्बोदित (राजा ) करके पुचकार कर बुलाया। शेर ने अपने मालिक को पहचान लिया।

चंद मिनटों के लिया आकर अपने मालिक का हाथ चाटने लगा ,लेकिन फिर भाग गया। माँ सुनाती थी की फिर उन्होंने महाराजा के सिपाहियों को कहा कि ” ये अब बागी हो चूका है , इसके माथे को निशाना बनाकर इसे गोली मार दो, मैं ऐसा नहीं कर पायूँगा” । इस तरह उनके लाडले शेर यानि राजा का अंत हो गया। माँ कहती थी उन्होंने पहली बार पिता जी को रोते हुए देखा था। पूरे शहर में उनकी निर्भीकता के चर्चे थे। कहते हैं कुछ समय के पश्चात् शेरनी का भी निधन हो गया।

पिता श्री के मन में अब जम्मूवासियों के लिए कुछ करने का जज़्बा ज़ोर पकड़ रहा था। उन्होंने जम्मू में स्थाई तौर पर बसने और समाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का निर्णय लिया। उन्होंने जम्मू के जाने माने सर्वश्री बालमुकुंद , ज्योतिषी रामकृष्ण डाक्टर विष्णुदत्त और गोपाल दत्त मेंगी जिन्हे मैं बचपन में मामाँ जी कहा करती थी, के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर हिन्दू सिख नौजवान सभा का गठन किया , जिसका मुख्य उद्देश्य जम्मू के हितों की रक्षा करना था। अपने परिवार की आजीवका चलाने के लिए उन्होंने जम्मू के बिश्नाह में एक आटा चक्की की मशीन लगाई। मेरे पिता की पहली पत्नी का स्वर्गवास तो बहुत पहले हो चुका था। दूसरी पत्नी यानि कि मेरी माताश्री एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार की पुत्री थी। जिनसे उनके दो बेटे और तीन बेटियां हुयी।

महाराजा हरी सिंह के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध होने के बावजूद १९३६ में जब गौ हत्या के विरोध में आंदोलन शुरू हुआ तो पिता श्री महाराजा के प्रशासन के विरुद्ध और गौहत्या के दोषियों के खिलाफ खुलकर सामने आ गए। पहले तो सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया और इसे दबाने का प्रयास किया किन्तु जब जलूस और भूख हड़तालों का जोर एक महीने तक रहा तो पूरा शहर और दुसरे क्षेत्र भी इसमें शामिल हो गए। इस आंदोलन का उग्र रूप देखकर महाराजा को रियासत में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी करना ही पड़ा। इसी दौरान पिताश्री ने कविता की एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसमे गाय तमाम धर्मो के लोगो से अपनी रक्षा की गुहार लगाती बताई गयी थी। इस कविता को सुनकर लोग अत्यंत भावुक हो जाते थे

इस पुस्तक की सैंकड़ो प्रतियां निशुल्क बांटी गयी। दुर्भाग्य से मेरे पास तो ये पुस्तक नहीं है, लेकिन इसकी एक दो पंक्तियाँ मुझे याद है, मेरी बड़ी दीदी कभी कभी गुनगुनाया करती थी।

तन्न जम्मू दिन भैना ने भैना ने , फिरि है दुहाई जग ते,

इना धर्मां तो रहना नई, गौ माता पुकार दी ऐ

छेती आ मैदान मल्लो , तुहानू वाजां पेयी मारदी ऐ।

माँवा बचच्यां नू केन्दिया ने केन्दिया ने, तुस्साँ धर्म निभाना निभाना ऐ

जान दी बाजी ला के ,गौमाता नू बचाना ऐ

कुछ इतना ही याद है मुझे। पिछली पीढ़ी के बजुर्ग आज भी इस आंदोलन को जम्मू प्रान्त का सबसे बड़ा आंदोलन मानते है।इस आंदोलन के बाद हिन्दू सिख नौजवान सभा जी जान से जम्मू के हितों की रक्षा के लिए और भी अधिक सक्रिय हो गयी। तीसरे दशक के प्रारम्भ मुस्लिम लीग ने मीरपुर में सम्प्रदायकिता का खेल खेलना शुरू कर दिया और हिन्दुओ पर अत्याचार होने लगे तो सभा ने इसका कड़ा विरोध किया। महाराजा प्रशासन को आगाह किया गया कि यदि इसे तुरंत रोका न गया तो जम्मू में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया होगी।

मेरे पिता श्री और उनकी यह सभा प्रगतशील विचार रखते थे। उन्होंने शेख अब्दुल्ला द्वारा नैशनल कॉन्फ्रेंस को धर्म निरपेक्ष दल घोषित किये जाने का स्वागत तो किया , लेकिन उनके महाराजा विरोधी रुख का कड़ा विरोध किया। सभा ने रोटी आंदोलन और चिनैनी ऐजीटेशन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। पिताश्री इन सभी आंदोलनों में सबसे आगे थे। उनके ही आदेश से सब होता था।

१९४७ में महाराजा सरकार ने रियासत में तम्बाकू की खेती पर टैक्स लगाने का आदेश जारी किया तो किसानो में भारी असंतोष फ़ैल गया। किसान अन्दीलन पर उतर आये। लेकिन एक रहनुमा के बिना वह दिशाहीन थे। जब गाँव के लोगो ने पिताश्री को बताया तो वह तुरंत अपने गाँव पहुंचे और किसान सभा का गठन करके आंदोलन शुरू कर दिया। आस पास के सभी गाँव के किसान उनके झंडे तले इकठे हो गए।

किसान अलग अलग स्थानों पर धरने देने लगे , जिसके फलसवरूप सरकार के खिलाफ माहौल गर्माने लगा। पिताश्री कभी कभी पैदल तो कभी घोड़े पर गांव गांव जाकर किसानो को जागृत करते, कि उन्हें खेती के मौलिक अधिकार से कोई कानून वंचित नहीं कर सकता। अपनी आदत के अनुसार उन्होंने इस आंदोलन को भी अंजाम तक पहुँचाया। उन् पर कई दवाब डाले गए कई प्रकार के लालच दिए गए , किन्तु वह अपने आदर्शो से कभी टस से मस नहीं हुए।

इस वजह से उन्हे जेल भी जाना पड़ा. हम गांव में थे उन दिनों, मैं तो बहुत छोटी थी। कुछ पुलिस के लोग हमारे घर के पीछे छिपे थे , लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी ,मेरे पिता जी को हाथ लगाने की। लेकिन पिताजी को अंदेशा था , उन्होंने मेरी माँ को आगाह कर दिया था की उनकी ग्रिफ्तारी कभी भी हो सकती है। इसलिए जब सिपाही टोर्च की रौशनी हमारे घर की ओर कर रहे थे , वो स्वयं बाहर निकले और उन सबको भीतर बुलाया।

उनको चाय पान करवा कर मुस्कुरा कर बोले “मैं जानता हूँ तुम लोग मुझे ग्रिफ्तार करने आये हो , मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ ” वहां से उन्हें बिलावर और फिर जम्मू सेंट्रल जेल में रखा उनके साथ बहुत अच्छा सलूक किया जाता था। सब उनकी निर्भीकता के कायल थे।

माँ सुनाती थी कि वह इतने स्वाभिमानी थे , कि एक बार महाराजा ने एक चांदी के कलश में कुछ मोहरे और कीमती रत्न भेंट किये, कलश को रेशमी वस्त्र से ढाका हुआ था। लेकिन उन्होंने अपने साथ खड़े पुरोहित को वह कलश थमा दिया। महाराज ने हंसकर कहा” पंडित जी एक बार देख तो लेते” इस पर मेरे पिता जी ने उत्तर दिया कि ” यदि देख लेता तो सम्भवत : मेरे मन में लालच आ जाता”।

वह इतने उच्च चरित्र के स्वामी थे कि महाराजा के कई बार कहने पर भी उन्होंने कभी कोई सहायता स्वीकार नहीं की। वह अपनी खरी कमायी से बनाये हुए मकान में अपने परिवार के साथ रहते थे . जिसमे हम सब बहुत ही प्रसन्न थे। अपने परिवार का भरण पोषण वह अपनी मेहनत से करते थे। आज के नेताओं की तरह उन्होंने राजनीती को टकसाल नहीं अपितु समाजसेवा के माध्यम के रूप में लिया।

उनके सचरित्र और निस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर जम्मू के जाने माने लाला मुलखराज सराफ, और नरसिंह दास नरगिस ने अपने समाचार पत्रों “रणवीर और चाँद ” के माध्यम से उनके प्रत्येक आंदोलन में उनका साथ दिया। किसान आंदोलन के बाद पिताश्री ने गाँव में रहकर किसानो के हित में काम करने का फैसला किया। १९४५-46 रियासती सरकार ने जब प्रजा सभा के ,( जिसे बाद में प्रजा परिषद् का नाम दिया गया) चुनावो की घोषणा की तो पिताश्री ने कठुआ क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मन बनाया।

चुनाव प्रचार में उन्हेंने बसहोली में स्थानीय तहसीलदार और पटवारियों द्वारा किये जा रहे किसानो के शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की और उनकी घूसखोरी को उजागर किया। यही नहीं , उन्होंने अखबारों में रिश्वतखोर अधिकारियो के खिलाफ एक तरह से जंग छेड़ दी । इसका खामियाज़ा उन्हें आगामी चुनाव में भुगतना पड़ा। जिन अधिकारियो का उन्होंने पर्दाफाश किया था, उन्होंने ही षड्यंत्र रच कर पिताश्री को चुनाव में हरा दिया। हालाँकि अपनी लोकप्रियता के अनुरूप उन्हें सबसे अधिक वोट प्राप्त हुए थे। १९४७ में देश के विभाजन के बाद जब शेख अब्दुल्ला रियासत के प्रधान मंत्री बने तो जम्मू प्रान्त में अफरा तफरी का माहौल बन गया।

बहुत से लोग शहर छोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर चले गए। ऐसे हालातो में पिताश्री ने अमन कमेटियों का गठन किया। पिताश्री को बिलावर ,बसोली और बनी के इलाको का इमरजेंसी अधिकारी नियुक्त किया गया। उन्होंने गांव गांव का पैदल दौरा किया। वह जहाँ भी जाते शांति और सौहाद्र का सन्देश देते। उनके अथक प्रयत्नों से पूरे इलाके में शीग्र ही शांति बहाल हो गयी। इसके बाद जब पंचयातो का गठन हुआ तो उन्हें स्यालना पंचायत का सर्व प्रथम सरपंच नामित किया गया। उन्होंने जी जान से अपनी पंचायत के विकास के लिए अनथक काम किया। १९५३ में शेख अब्दुल्ला के चंद सिद्धांतो पर मतभेद हो जाने पर पिताश्री ने उनका साथ छोड़ दिया और पंडित प्रेम नाथ डोगरा के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में शामिल हो गए।

उनका देहांत 1968 में 78 वर्ष की आयु में हुआ। मैं उस समय जम्मू वुमन कॉलेज में बी ए के फाइनल वर्ष में थी। मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा था अपने पिता को खोना। मै उनके बहुत करीब थी। दो बड़ी बहेनो की शादी हो चुकी थी। मैं उनकी सबसे छोटी और लाड़ली संतान थी। वो करीब १० दिन तक बीमारी से झूझते रहे मैं पल भर के लिए उनसे दूर नहीं होती थी। अभी भी मेरे कानो उनके अंतिम शब्द मेरे कानो में गूंजते हैं।

उनकी मृत्यु के तीन माह बाद मेरी शादी होगयी ; आप विश्वास नहीं करेंगे, जब भी मैं किसी बात पर दुखी होती ,वो प्रतक्ष्य रूप में मेरे सपने में आते थे। एक बार तो ऐसा हुआ ,मैं अपनी शादी के 8 माह बाद मुझे बेंगलोर से जम्मू आना था, उन दिनों जम्मू में रेल गाड़ी नहीं आती थी। पठानकोट से बस में जम्मू आना होता था। मेरे भाई साहेब जीप से पठानकोट मुझे लिवाने के लिए सुबह सुबह निकले , माँ सुनाती थी बाह्यी के जाने के उनकी आँख लग गयी, कि पिताजी उन्हें सपने में दिखाई दिए, और पूछने लगे “सुलेखा ने आज पहुंचना था , कोई उसे लेने गया कि नहीं”। मेरे से बड़े दो भाई , उनकी भी शादी नहीं हुई थी।

मेरे पिता की एक एक याद ,उनकी हर एक सीख , उनका असाधारण वयक्तित्व मेरे रोम रोम में बसा है। मुझे हमेशा उनपर गर्व रहेगा।

मेरे दोनों बड़े भाईओं में से बड़े भाई विजय शर्मा अब इस दुनिया में नहीं है. वह जम्मू में प्लानिंग विभाग में उच्च पद पर रिटायर हुए थे। वो जम्मू के नाटक कलाकार और डोगरी समाचार के वाचक थे। उनका बेटा विदेश में नौकरी कर रहा

मेरे दूसरे बड़े भाई श्री रवि शर्माजम्मू सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर रिटायर हुए। उन्होंने जम्मू में NIIT की स्थापना की। जम्मू में यह पहला कप्यूटर इंस्टिट्यूट था। अब इसकी और भी शाखाएं खुक गयी है। इनकी बहु और बेटा भी इस व्यवसाय को आगे बढ़ा रहे है।

मेरे सबसे बड़ी बहिन और जीजाजी भी अब इस दुनिआ से रुखसत हो गए हैं. उनके दो बेटे हैं. बड़ा बेटा अपना बिजनेस करता है। और छोटा बेटा अनिल उपाध्या ने अपने नाना के सेवाव्रत को जारी रखा हुआ है। उन्होंने यंग ब्लड एसोसिएशन का गठन और नेतृत्व करके हज़ारो रोगिओं की जान की रक्षा की। वह अब भी समाज सेवा, देशसेवा के पथ पर सदा अग्रसर रहते हैं।

मेरे दूसरी बड़ी दीदी और जीजा जी का भी स्वर्गवास हो गया है। उन का बेटा इंडियन नेवी में कप्तान के पद पर रिटायर होकर देहली में ऊंचे पद पर नौकरी कर रहे है। मैं अपने बहु बेटे के साथ इंग्लैंड में रह रही हूँ। मेरी बेटी जम्मू में संभ्रांत ब्राह्मण परिवार में ब्याही है , मेरे दामाद इंजीनियर के पद पर आसीन है।

मेरे पिता श्री आज कल के नेताओं की भाँती विरासत में अतुल धन सम्पति नहीं छोड़ गए बलिक सेवा भाव , स्वाभिमान और स्वर्णिम आदर्श छोड़ गए हैं ,जिन्हे उनके वंशजो ने शिरोधार्य किया है।

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