• September 28, 2015

जहाँ अहंकार, वहाँ पराभव – डॉ. दीपक आचार्य

जहाँ अहंकार,  वहाँ पराभव  – डॉ. दीपक आचार्य

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ईश्वर अपने प्रतीक रूप में सभी शक्तियों के साथ इंसान के रूप में जीवात्मा को धरती पर भेजता है और यह मानकर चलता है कि वह ईश्वरीय कार्य करता हुआ सृष्टि के किसी न किसी काम आएगा ही। और जब लौटेगा तब उसके खाते में कम से कम इतना कुछ तो होगा ही कि ईश्वर को अपनी बनाई प्रतिकृति पर गर्व हो।

ईश्वर तो हमें शुद्ध-बुद्ध भेजता है लेकिन संसार की माया के बंधनों में फँसकर ईश्वर का अंश होने का भान समाप्त हो जाता है और हमें लगता है कि हम ही हैं और कोई कुछ नहीं।

जो लोग अपनी आत्मस्थिति में होते हैं उनके लिए सांसारिक माया अनासक्त भोग से अधिक कुछ नहीं होती लेकिन बहुत सारे लोग ऎसे होते हैं जो अपनी संस्कृति, संस्कारों और ईश्वरीय तंतुओं से पृथक होकर अपने आपको ही बहुत कुछ मान लिया करते हैं।

ऎसे लोगों का फिर ईश्वर या वंशानुगत संस्कारों, पुरातन काल से चली आ रही गौत्र, वंश या कुटुम्ब की मर्यादाओं आदि से नाता पूरी तरह टूट चुका होता है। इस अवस्था में पहुंच जाने के उपरान्त इंसान की स्थिति  ‘ न घर का – न घाट का’ वाली हो जाती है।

इंसानों की विस्फोटक भीड़ में बहुत से लोग हैं जो अपने सिवा किसी और को कुछ समझते ही नहीं। अंधकार से परिपूर्ण आसुरी माया के पाश से बँधे इन लोगों के लिए सारा जहाँ उनका अपने लिए ही, अपनी सेवा-चाकरी के लिए ही बना हुआ दिखता है, इनकी यही अपेक्षा होती है कि दुनिया उनके पीछे-पीछे चलती रहे, उन्हें पालकियों में बिठा कर इच्छित स्थानों का भ्रमण कराती रहे और चूँ तक न करे।

वे जैसा कहें, वैसा होता रहे, वे जैसा करें वैसा ही दूसरे लोग भी अनुकरण करते रहें। इन लोगों के लिए स्वाभिमान, साँस्कृतिक परंपराओं, नैतिकता और मानवीय संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं है।

सामाजिक प्राणी कहे जाने के बावजूद इस प्रजाति के लोगों को किसी भी दृष्टि से इंसानी बाड़ों में रखकर नहीं देखा जा सकता। इसका मूल कारण यही है कि इनके भीतर अहंकार का समन्दर इस कदर हमेशा ज्वार वाली स्थिति में रहता है कि इन्हें अपने अलावा और कुछ दिखता ही नहीं। न इंसान दिखते हैं न परिवेश के अनुपम नज़ारे।

इंसानी बाड़ों से लेकर समाज और क्षेत्र भर में हर तरफ ऎसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है जो अपने इर्द-गिर्द अहंकारी आभामण्डल हमेशा बनाए रखते हैं और दिन-रात उसी में रमण करते हुए आसमान की ऊँचाइयों में होने का भ्रम पाले रहते हैं।

इनके अहंकार का गुब्बारा दिन-ब-दिन फूलता ही चला जाता है जो इनको आसमानी ऊँचाइयों में होने का भरम पैदा करने के लिए काफी है।

जो लोग जमीन से जुड़े हुए हैं उन लोगों को अहंकार छू तक नहीं पाता है लेकिन जो लोग हवा में उड़ने के आदी हो गए हैं उनके लिए अहंकार हाइड्रोजन गैस का काम करता है जिसकी वजह से इनके गुब्बारे बिना किसी सामथ्र्य के ऊपर की ओर बढ़ते चले जाते हैं।

ईश्वर को सबसे ज्यादा नफरत उन लोगों से होती है जो अहंकारी होकर उसे भी भूल जाते हैं और उसके कर्म को भी। इंसान के अहंकार को परिपुष्ट करने में तमाम प्रकार की बुराइयों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

ये बुराइयां उसके भीतर इंसानियत के संतुलन को बिगाड़ कर आसुरी बना डालती हैं। साफ तौर पर  देखा जाए तो अहंकार एक ओर जहाँ आसुरी व्यक्तित्व का सुस्पष्ट प्रतीक है वहीं दूसरी ओर यह उन तमाम द्वारों को खोल देता है जो इंसान के पराभव और निरन्तर क्षरण के लिए बने हुए होते हैं।

अहंकार होने का अर्थ ही यही है कि ईश्वर की नाराजगी। भगवान जिस किसी इंसान पर कुपित और रुष्ट हो जाता है उसके अहंकार का शमन करना बंद कर देता है। अन्यथा भगवान की कृपा जब तक बनी रहती है तब तक संसार की माया और अहंकार को वह नियंत्रित रखता है, विस्तार नहीं होने देता।

लेकिन जब मनुष्य ईश्वरीय भावों, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को भुला बैठता है उस स्थिति में ईश्वर उसे मझधार में छोड़ देता है जहाँ अहंकार धीरे-धीरे ऑक्टोपस की तरह इंसान को अजगरी पाशों में बाँधने लगता है और एक स्थिति ऎसी आती है जब वह नितान्त अकेला रह जाता है। न वह किसी के भरोसे पर खरा उतरने के काबिल होता है, न वह किसी और पर भरोसा कर पाने की स्थिति में होता है।

विश्वासहीनता और अहंकार के चरम माहौल में दुर्गति और पराभव के सिवा मनुष्य को कुछ भी हाथ नहीं लगता। हमारे आस-पास भी बहुत सारे लोग ऎसे रहते हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे घोर दंभी हैं जिनसे न कोई बात करना पसंद करता है, न अहंकार भरे ये लोग संसार से संवाद रख पाते हैं।

आत्म अहंकारी लोगों का सबसे बड़ा भ्रम यही होता है कि वे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं और उनके मुकाबले कोई इंसान हो ही नहीं सकता। अहंकार अपने आप में ऎसा एकमात्र सटीक पैमाना है जो यह स्पष्ट संकेत करने के लिए काफी है कि किस पर भगवान मेहरबान है।

जिस पर ईश्वर प्रसन्न रहता है वह इंसान सभी प्रकार के अहंकारों से मुक्त रहता है, भगवान की कृपा से कोई से अहंकार उसे छू तक नहीं पाते। इसके विपरीत भगवान जिस पर से अपनी कृपा हटा लेता है उसके भीतर विद्यमान किन्तु सुप्त पड़े अहंकार के बीज अंकुरित होना शुरू हो जाते हैं और धीरे-धीरे पूरे आभामण्डल को अपनी कालिख से ढंक लिया करते हैं।

यह अहंकार अपने आप में यह संकेत है कि अहंकारी इंसान का मानसिक और शारीरिक क्षरण आरंभ हो चुका है और उसके अधःपतन के सारे रास्ते अपने आप खुलते चले जा रहे हैं।  इस दुर्भाग्य को गति देने के लिए इन्हीं की किस्म के दूसरे अहंकारी, दोहरे चरित्र वाले और पाखण्डी लोग भी इनके साथ जुड़ जाते हैं जो इनके ताबूत में कील ठोंकने के लिए काफी होते हैं।

इसलिए जहाँ जो लोग किसी न किसी अहंकार के मारे फूल कर कुप्पा हुए जा रहे हैं, उन्हें अपने अहंकारों के साथ जीने दें। ऎसे अहंकारी लोगों के सान्निध्य व सामीप्य तथा इनके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार तक भी अपने पुण्यों को क्षीण करने वाला होता है।

अहंकारी मनुष्यों के साथ रहने वालों, उनका जयगान करने वालों और उनकी पूछ करने वालों से भी भगवान नाराज रहता है। अधिकांश सज्जनों और अच्छे लोगों की बहुत सारी समस्याओं का एक कारण यह भी है।   अहंकारियों से दूर रहें, ये समाज के कूड़ेदान हैं, इनसे जितनी दूरी होगी, उतना हमारा व्यक्तित्व सुनहरा, दिव्य और सुगंधित बना रहेगा।

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