• April 12, 2019

संपति में विधवा या महिला अधिकार—उत्तरजीविता— शैलेश कुमार

संपति में विधवा या महिला अधिकार—उत्तरजीविता— शैलेश कुमार

दूसरी शादी के बाद भी अधिकार खत्म नहीं होता
वहीं दूसरी तरफ इददत के अनुसार “ हक ” हराम है।
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सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में व्यवस्था दी कि पति की मृत्यु के बाद यदि घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं है, तो पूरी संपत्ति विधवा के नाम हो जाएगी। इसमें पुत्रियों का कोई हक नहीं होगा।

यह व्यवस्था देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला को मात्र चौथाई हिस्सा देने के हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। जस्टिस कुरियन जोसेफ व जस्टिस आरएफ नरीमन की पीठ ने कहा कि हिंदू कानून में महिलाओं के अधिकार, अधिनियम 1933 की धारा 8 (1) (डी) के प्रावधान में स्पष्ट हैं।

अगर पति की मौत के बाद परिवार में कोई पुत्र वारिस नहीं है और पत्नी ही अकेली है, तो उस स्थिति में वह पूरी संपत्ति की मालिक होगी। इसमें विवाहित या अविवाहित पुत्रियों का कोई हिस्सा नहीं होगा। इसी के साथ अदालत ने स्पष्ट किया कि हिस्सा उन्हें तभी मिलेगा जब संपत्ति का बंटवारा किया जाए। इसमें पुत्रियों का भी पूरा हक होगा। लेकिन पति की मृत्यु के मामले में उसकी पूरी संपत्ति पत्नी को ही मिलेगी।

चाहे यह संपत्ति उसके पति को जीवित रहते हुए परिवार में हुए बंटवारे के बाद ही क्यों न मिली हो। इस बंटवारे का उत्तरजीविता के बाद आई संपत्ति पर कोई असर नहीं होगा।

मैसूर के एक मामले में पति की मृत्यु के बाद परिवार में गौरम्मा व उसकी तीन बेटियां बचीं। उत्तर जीविता के आधार पर संपत्ति पत्नी के पास आ गई। उसने संपत्ति का कुछ हिस्सा बेच दिया और शेष अपनी एक पुत्री को दे दिया। इस पर अन्य पुत्रियों ने आपत्ति की और कहा कि संपत्ति में उनका हिस्सा भी है। निचली अदालतों ने चार हिस्सों में बंटवारे का फैसला सुनाया था।

हिंदू विधवा के भरण-पोषण का अधिकार केवल “औपचारिकता” नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक और नैतिक अधिकार है, जिसे खुद को बनाए रखने के लिए उसे दी गई संपत्ति पर “पूर्ण अधिकार” का दावा करके न्यायिक रूप से लागू किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति एम0 इकबाल की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के एक विधवा के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि उसने अपने पति द्वारा एक रिश्तेदार को जीवन भर के लिए संपत्ति हस्तांतरित कर दी थी, यह महिला की “पूर्ण अधिकार और” थी। वह संपत्ति के अधीन होने के लिए स्वतंत्र थी।

यह अच्छी तरह से तय है कि हिंदू कानून के तहत, पति को अपनी पत्नी को बनाए रखने के लिए एक व्यक्तिगत दायित्व मिला है और अगर वह गुणों से युक्त है, तो उसकी पत्नी को इस तरह के गुणों से बाहर बनाए रखने का अधिकार है। यह समान रूप से अच्छा है।

यह तय किया कि हिंदू विधवा का दावा केवल औपचारिकता नहीं है, जिसे रियायत, अनुग्रह या अनुग्रह के रूप में प्रयोग किया जाना है, लेकिन एक मूल्यवान, आध्यात्मिक और नैतिक अधिकार है,”पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति नागप्पन भी शामिल थे विभिन्न न्यायिक घोषणाओं का उल्लेख करते हुए, कहा कि हालांकि विधवा को बनाए रखने का अधिकार उसके पति की संपत्ति पर आरोप नहीं बनाता है, लेकिन वह निश्चित रूप से एक शुल्क बना कर रखरखाव के लिए एक डिक्री पारित करने के लिए अदालत में जाकर अपना अधिकार लागू कर सकती है।

मामले के विवरण पर चर्चा करते हुए, पीठ ने कहा, “हमारे विचार में किसी भी रूप में उसके पक्ष में एक सीमित हित पैदा होता है जो रखरखाव के पूर्व-मौजूदा अधिकार रखता था, वही ऑपरेशन के पूर्ण अधिकार बन गया है हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 (1)”। शीर्ष अदालत का फैसला एक जुपडी परधा सरथी द्वारा दायर अपील पर आया, जिसने आंध्र प्रदेश निवासी पी वेंकट सुब्बा के बेटे से एक घर खरीदा था, जिसकी तीन पत्नियां थीं।

सुब्बा ने 1920 में अपनी तीसरी पत्नी वीराराघवम्मा को अपनी संपत्ति दी थी, जिसके पास कोई बच्चा नहीं था। वीरराघवम्मा ने 1971 में एक वसीयत के द्वारा संपत्ति को पेंटापति सुब्बा राव को हस्तांतरित कर दिया।

1976 में उसकी मृत्यु के बाद, सुब्बा के बेटे ने अपनी दूसरी पत्नी से संपत्ति को सारथी को बेच दिया।ट्रायल कोर्ट ने सारथी को यह कहते हुए बिक्री को बरकरार रखा था कि महिला को संपत्ति का आनंद लेने का सीमित अधिकार है और उसकी मृत्यु के बाद वह पुरुष उत्तराधिकारियों को सौंप देगी।

हालाँकि, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों पर पलटवार करते हुए कहा, यह मामला हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 (1) के तहत गिर गया है जिसमे “वीरघवम्मा मुकदमे की संपत्ति का पूर्ण मालिक बन गया और उसे उक्त संपत्ति पर कब्जा करने का पूरा अधिकार था।

पहले प्रतिवादी पी सुब्बा राव के पक्ष में फैसला दिया गया। ”

चॅुकी भारत में सभी धर्ममावलंबी रहते हैं। हिंदू (सिख,बौद्ध,जैन), मुस्लिम, इसाई। धर्मनिरपेक्ष होने के कारण राजनीतिक दवाब के तहत कोर्ट का निर्णय गौण हो जाता है जहाँ हिंदू (सिख,बौद्ध,जैन) पर कोर्ट का फैसला हावी है वहीं मुस्लिम समुदायों पर इददत, शरियत और वक्फ बोर्ड।

बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पुनर्विवाह करने वाली विधवा को अपने मृत पति की संपत्ति पर अपना अधिकार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

यह तब सामने आया जब एक व्यक्ति (मृतक के भाई) ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 की धारा 2 पर भरोसा किया और दावा किया कि उसकी भाभी ने जो पुनर्विवाह किया था, उसे अपने पूर्व पति की संपत्ति को विरासत में नहीं दिया जाना चाहिए।

हालांकि हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि वह अभी भी अपने मृतक पति के वर्ग- वारिस के तहत समूहबद्ध है और उसे विरासत में मिलना चाहिए-

• शून्य या शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को धारा 16 के आधार पर वैध माना जाता है।

• एक से अधिक विधवा होने पर, वे अपने मृत पति की संपत्ति का एक हिस्सा समान रूप से साझा करते हैं।

• एक विधवा माँ भी धारा 14 के आधार पर अन्य उत्तराधिकारियों के साथ अपने हिस्से के लिए सफल होती है।

जयलक्ष्मी बनाम गणेश अय्यर मामले में इसे बरकरार रखा गया। भले ही वह तलाकशुदा हो या फिर पुनर्विवाह करने वाली.

हिंदू कानून के तहत, एक हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) एक समूह है जिसमें एक से अधिक व्यक्ति होते हैं, जो सभी सामान्य वंश के वंशज होते हैं।

एक विधवा मां (जो एक दत्तक मां हो सकती है) भी धारा 14 के आधार पर अन्य उत्तराधिकारियों के साथ अपने हिस्से में सफल हो जाती है। यहां तक कि अगर वह तलाकशुदा है या पुनर्विवाह करती है, तो वह अपने बेटे से विरासत की हकदार है।

यदि गोद लेने वाली मां है, तो प्राकृतिक मां को संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है। एक माँ भी धारा 3 (I) (J) के आधार पर अपने नाजायज बेटे की संपत्ति को प्राप्त करने की हकदार है।

द हिंदू सक्सेशन एक्ट, 1956 की धारा 10 में स्थिति संपत्ति के वितरण के बारे में बात की गई है जब पति की मृत्यु हो जाती है और कहते हैं कि संपत्ति का वितरण अनुसूची के वर्ग I में वारिसों के बीच होगा, जिसमें नियम 1 विशेष रूप से बताता है कि विधवा, या यदि एक से अधिक विधवाएँ हैं, तो सभी विधवाएँ मिलकर एक हिस्सा लेंगी।

[HUF] दो विधवाओं और एक बेटे से बच जाता है, तो वारिस संपत्ति को एक साथ और अन्य सभी को शामिल नहीं करेगा। यहाँ धारा 10 के नियम 1 के प्रावधानों के अनुसार, पति की दोनों विधवाएँ पति की संपत्ति में एक-आधा हिस्सा लेंगी और अन्य आधा अपने बेटे के पास चला जाएगा।

2008 में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लिया कि पुनर्विवाह करने वाली विधवा को उसके मृत पति की संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसके अनुसार यह विधवा मृत पति के धन के पूर्ण हिस्से के प्रावधान के रूप में उसके हिस्से की पूर्ण मालिक बन जाती है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 पूर्व हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 से अधिक होगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 के प्रावधानों के साथ सहमति नहीं जताई, कहता है कि सभी अधिकार और हित जो किसी विधवा के पास अपने मृत पति की संपत्ति में रख-रखाव के माध्यम से हो सकते हैं, या विरासत के आधार पर, उसे फिर से जारी करना चाहिए।

शीर्ष अदालत ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 4 का हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम सहित किसी भी हिंदू कानून पर प्रभाव पड़ेगा।

5 मार्च को दिल्ली की अदालत ने एक सुनवाई के दौरान 65 वर्षीय लाजवंती देवी के मामले में फैसला सुनाया था, जो अपनी बेटी और दामाद के खिलाफ कोर्ट गई थी।

दोनों ने शास्त्री नगर स्थित मकान का एक हिस्सा खाली करने से इनकार कर दिया था, जो लाजवंती के पति ने उनके नाम पर खरीदा था।

एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज कामिनी लाउ ने महिला को प्रॉपर्टी का मालिक माना था, जिनके पति ने साल 1996 में अपनी पत्नी के नाम पर यह संपत्ति ली थी। उनके निधन के बाद बेटी और दामाद का संपत्ति पर अनुमोदक कब्जा (परमिसिव पोजेशन) था।

अर्चना साहू (23) के पति की एक सड़क हादसे में मृत हुई। परिवार वालों के दबाव में आकर उन्होंने दूसरी शादी कर ली। लेकिन वह यह देखकर हैरान रह गई कि उनके पूर्व सास-ससुर उसे उसके स्वर्गवासी पति की संपत्ति, जिसमें उन्होंने भी थोड़ा भुगतान किया था, में से एक फूटी कौड़ी भी देने को राजी नहीं थे। इससे दुखी होकर उन्होंने अदालत का रुख किया।

वकील ने बताया कि उनके पूर्व ससुराल वाले पुराने पड़ चुके हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 के प्रावधानों पर भरोसा कर रहे है।

इस पुराने कानून में कहा गया है कि अगर किसी महिला के पति की मौत हो जाती है और वह बिना इजाजत के दूसरी शादी कर लेती है तो स्वर्गवासी पति की संपत्ति पर उसका अधिकार खत्म हो जाएगा और पति के अन्य वारिस उत्तराधिकारी होंगे।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के सेक्शन 8, में पुरुषों के उत्तराधिकार के मामले के आम नियम बताए गए हैं :

-फर्स्ट टू क्लास-1 वारिसों में स्वर्गवासी शख्स के बच्चे, विधवा और मां शामिल है।

– सेकंड टू क्लास-11 में उसके पिता और भाई-बहन आते हैं।

-तीसरे में मृतक (जिनका संबंध पुरुष से हो) के पूर्वज या सगोत्र आते हैं।

-चौथे में मृतक (जिनका संबंध महिला से हो) के पूर्वज या सगोत्र आते हैं।

इस वजह से कोर्ट ने अर्चना के पक्ष में फैसला दिया। कोर्ट ने कहा कि दूसरी शादी के बाद भी महिला क्लास-1 वारिसों के तहत आती है और उसके मृत पति के रिश्तेदार क्लास-2 के वारिसों में— जज ने यह भी कहा कि अगर महिला के पति की मौत भी हो जाए तो भी उसकी चल और अचल संपत्ति पर उसकी पत्नी का दूसरी शादी के बाद भी अधिकार खत्म नहीं होता।

हिंदू उत्तराधिकार कानून का सेक्शन 23 जॉइंट फैमिली द्वारा बनाए गए एक घर के विभाजन को लेकर महिला की मांग को उस वक्त तक रोकता है, जब तक कोई पुरुष वारिस प्रॉपर्टी का बंटवारा न कर दे।

इस वजह से अर्चना को तब तक इंतजार करना होगा, जब तक उसके मृत पति के परिवार का मुखिया कानूनी वारिसों को उनका हिस्सा नहीं दे देता।

साल 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि अगर कोई विधवा दूसरी शादी कर लेती है तो उसे उसके मृत पति की संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार नहीं किया जा सकता।

मुस्लिम महिलाएं :

संविधान के आर्टिकल 14 और 15 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन

मुस्लिम महिला को तलाक के बाद पति इद्दत के दौरान उसकी देखभाल करने के लिए उत्तरदायी है।

डैनियल लतीफी बनाम भारत सरकार मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम वुमन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डायवोर्स एक्ट के सेक्शन 3 में कहा गया कि इद्दत अवधि के बाद भी गुजारा-भत्ता दिया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक महिला दोबारा शादी नहीं करती वह सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पूर्व पति से गुजारा-भत्ता मांग सकती है।

लेकिन शरियत के मुताबिक इद्दत अवधि के बाद गुजारा-भत्ता लेना या देना हराम (अवैध) है, क्योंकि इसके बाद पुरुष और महिला का रिश्ता समाप्त हो जाता है।

साल 2016 में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा, “महिलाएं पितृ सत्तात्मक ढांचे की दया पर निर्भर नहीं रह सकतीं, जो मौलवियों द्वारा स्थापित किया गया है, जिनकी पवित्र कुरान की अपनी व्याख्या है।

किसी भी समुदाय के निजी कानून संविधान में दिए गए अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकते”।

मुस्लिम महिला:

एक मुस्लिम महिला अपने पति से रखरखाव पाने की हकदार है। वक्फ बोर्ड को महिला के बच्चे के कमाने तक उसकी देखभाल करनी पड़ती है।

पति की मौत के बाद मुस्लिम महिला:

अगर किसी मुस्लिम महिला के पति का निधन हो जाए तो उसे एक-आठवां हिस्सा (अगर बच्चे हैं तो) दिया जाएगा। लेकिन अगर बच्चे नहीं हैं तो एक-चौथाई। अगर एक से ज्यादा पत्नियां हैं तो हिस्सा एक-सोलहवें तक जा सकता है।

क्रिश्चियन—– इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, 1872 का पालन करते हैं।

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 के अनुसार, एक विधवा ईसाई महिला अपने गुजरे हुए पति की प्रॉपर्टी का एक-तिहाई हिस्सा पाने की हकदार है।

बाकी उसके बच्चों को मिलेगा। अगर बच्चे नहीं हैं तो विधवा को 5000 रुपये और आधी संपत्ति दी जाएगी।

ईसाई महिला: —इंडियन डायवोर्स एक्ट के मुताबिक जिस अवधि में मुकदमा अदालत में है, पति को अपनी सैलरी का पांचवा हिस्सा बतौर गुजारा भत्ता पत्नी को देना होगा। बाद में गुजारा-भत्ता सालाना या निर्वाह-धन के तौर पर दिया जा सकता है।

पति को कोर्ट के आदेश पर इंडियन डायवोर्स एक्ट, 1869 के एस.37 के तहत पत्नी के जिंदा रहने तक उसे गुजारा-भत्ता देना होगा।

वर्तमान में कमजोर वर्ग के महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुई है,रूढ़िवादी धर्म मुस्लिम में जागृति आती है,नई सोच,नई विचारधारा के कारण पूर्व में जो स्थिति रही वह अब नहीं है॰

सभी धर्म की महिलाएं आर्थिक उपार्जन करने के लिए आगे आ रही है।

मुस्लिम महिलाएं भी अपने हक के लिए आगे आई है , पढ़ लिख कर स्वरोजगार की ओर बढ़ी है, अपने पाँव पर खड़े होने के लिए शहरों मेँ ऑटो रिक्शा भी चलाने में पीछे नहीं रही है ।

मुस्लिम बहू विवाह प्रथा में काफी सुधार आई है। पुरुष वर्ग बहू –विवाह पर यदा –कदा ही विचार करते है अर्थात बहू पत्नी की प्रथा समाप्त के कगार पर है।

सरकार से लेकर समाज तक सहयोग के लिए आगे आई है,कमजोर वर्ग जिसे घर के लिए जमीन नहीं है, सरकार ने उनके लिए सरकारी जमीन पर प्रधानमंत्री आवास योजना या अन्य योजना के तहत सहयोग कर रही है, महिलाओं के लिए हिन्दू कानून काफी कठोर है,अगर दूसरी शादी करने वाली महिला को भी पूर्व पति के जायदाद मेँ हिस्सेदारी दी है।

(अपटेड लेख)

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