• April 19, 2016

भिखारियों से न करें सच की उम्मीद – डॉ. दीपक आचार्य

भिखारियों से न करें  सच की उम्मीद  – डॉ. दीपक आचार्य

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हर इंसान अपने आप में तभी तक इंसान रहता है जब तक कि वह इंसानियत के मौलिक गुण-धर्म को अपनाए रखता है।  जब इन तत्वों का क्षरण होना आरंभ हो जाता है तब वह इंसान रहने और कहलाने की सारी काबिलियत छोड़ देता है।

यह दीगर बात है कि जो आदमी इंसानियत खो चुकता है, वह शैतानियत के सारे रास्तों को अपना लेता है और इस वजह से दूसरे लोग इनसे इसलिए कोई पंगा लेना नहीं चाहते कि कौन इनसे उलझ कर अपना समय बर्बाद करे, अपने आपको विवादित करे और इंसान के रूप में प्राप्त दुर्लभ जीवन के अमूल्य क्षणों को फालतू खर्च करे।

उन कारणों की खोज की जाए जिनकी वजह से इंसान भटक और बहक जाता है, उन धाराओं के साथ जो प्रदूषित और घातक हैं। तो साफ सामने आगा कि मामूली ऎषणाओं, स्वार्थों और कामनाओं के वशीभूत होकर इंसान भिखारियों की तरह व्यवहार करने लगता है। उसका स्वभाव ही ऎसा हो जाता है जैसे कि याचक जिस किसी में उम्मीद देखते हैं उसकी ओर हाथ पसार कर मुँह लटका कर अपनी दीनता-हीनता और पुरुषार्थहीनता का खुला प्रदर्शन कर स्वाँग रच लिया करते हैं।

इंसानी क्षमताओं और सामथ्र्य से बेखबर रहने वाले अधिकांश लोगों की यही स्थिति है। इन लोगों का न ईश्वर पर भरोसा होता है, न अपने आप पर, इसीलिए जिन्दगी भर छलांग मारते रहने के लिए किसी न किसी सहारे की उम्मीद लगी रहती है।

इन सहारों के भरोसे इनकी पूरी जिन्दगी बड़ी ही आसानी से कट जाती है। करना क्या है सिर्फ लल्लो-चप्पो, अच्छी-अच्छी लुभावनी बातें,चापलुसी और झूठी वाहवाही भरी बातें। ऎसा मिथ्या संभाषण और पग-पग पर झूठ बोलने, सुनने और झूठ का आश्रय ग्रहण करते हुए सारी जिन्दगी निकाल देने का काम वे ही कर सकते हैं जिनकी आत्मा मर चुकी होती है।

यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है। लेकिन इन जैसे लोगों के शरीर में आकर आत्मा तब तक मृतावस्था में ही पड़ी रहती है जब तक कि वह इनकी सड़ियल और झूठ से लबालब भरी देह से वह पृथक न हो जाए।

जो खुद को भुला दे कर इंसान औरों की दया, करुणा और कृपा पर पलता है वह जीवन में कभी भी अपने लिए जीने की कल्पना नहीं कर सकता। औरों के भरोसे रहता ही वह इसलिए है ताकि बिना मेहनत या कम मेहनत किए वह सब कुछ मुफत में प्राप्त कर ले जिसके लिए दूसरे लोगों को दिन-रात कितनी हाड़-तोड़ मेहनत करने की जरूरत पड़ती है तब कहीं जाकर जीने का संतोष प्राप्त हो पाता है।

लेकिन कबीलाई दासों की तरह जीने वाले इन पराश्रित लोगों के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, जो मिल रहा है वह तो अपना है ही, इससे अधिक देने वाले खूब लोग हैं जिनकी चम्पी करते रहो, आगे-पीछे घूमते रहो, बैण्डबाजे वालों और नाचने वालों की तरह अपने आपको ढाल लो,फिर कहाँ कोई कमी रहने वाली है। मुद्राओं और भोग-विलासी संसाधनों के साथ ही तमाम प्रकार की भूख और प्यास मिटाने वाली झूठन सहज उपलब्ध रहती है सो अलग।  जो समझौते बिठाने और समीकरण जमाने में माहिर हो जाते हैं उनकी जिन्दगी सँवर जाती है।

जो इंसान जीवन में एक बार झूठन चाट लेता है फिर उसे अपने खाने में आनंद नहीं आता। उसे अपने घर का खाना अच्छा नहीं लगता। उसे झूठन ही झूठन पाने की इच्छा लगातार बनी रहती है और वे ही लोग सुहाते रहते हैं जो उसके लिए झूठन का मुफतिया बन्दोबस्त करते रहते हैं।

यह झूठन अपने साथ आनंद के दूसरे सारे कारक भी लेकर आती है क्योंकि झूठन अपने आपमें अंधेरे का प्रतीक है। और जहाँ अंधेरा होता हैं वहीं सारे अपराध, षड़यंत्र, गोरखधंधे,  मलीनताएं, दरिद्रता, नींद, आलस्य और वे सारे अवगुण पनपते और आश्रय पाते हैं जो कि रोशनी में रह नहीं पाते।  इनके साथ ही यह अंधेरा जहां होता है वहां किसी भी कोने में साँप-बिच्छुओं और मकड़ियों को मस्ती के साथ रहने का आनंद प्राप्त होने लगता है। अंधेरा अकेला नहीं होता, अपने साथ सौ-सौ बुराइयों को लेकर आता है।

जैसे-जैसे यह परायी झूठन अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगती है उससे बनने वाला रस, रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि और वीर्य-रज आदि अन्त में ओज और फिर मन में रूपान्तरित होते जाते हैं। यही कारण है कि जो झूठन चाटता रहता है, खुरचन का मजा लेता रहता है उसका दिल-दिमाग और शरीर भी पूरी तरह झूठा हो जाता है।

यह झूठ की वह परिपक्व अवस्था है जिसमें किसी भी इंसान से सत्य, धर्म और न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती। वह इंसान जीवन में न सच बोल सकता है, न सच को प्रोत्साहित कर सकता है, न सच्चे लोगों की बातों से सहमत हो सकता है, न सत्य की राह पर चल सकता है।

इस स्थिति में आ जाने के बाद इंसान झूठ और झूठों को संरक्षित करने लगता है, झूठन की महिमा का गान करता रहता है और झूठी बातों में रमा रहता है। जहाँ कहीं कोई सच का कतरा सामने आ धमकता है, वह अपनी काली चादर लेकर ढकने को लपक पड़ता है।

ऎसा इंसान हमेशा यह प्रयास करता है कि सच कहीं से भी सामने न आने पाए, कोई दूसरा भी सच न बोलने पाए और जो सच बोलने का साहस करे, उस पर सारे मलीन लोग मिलकर ऎसे पिल पड़ेंंगे कि जैसे दुनिया चलाने और जीवन व्यवहार को परिभाषित करने का ठेका इन्हीं बिकाऊ लोगों ने ले रखा हो।

सच कहने और सच काम करने का साहस सभी के बूते में नहीं है। जो लोग सत्य की राह पर चलते हैं, सच को अनुभव करते हैं वे ही सच बोल सकते हैं और अपनी अभिव्यक्ति में सत्य का पैनापन ला सकते हैं।

याचकों, झूठन चाटने वालों और हर क्षण परायों पर आश्रित रहने वाले निम्न कोटि के याचकों से सत्य सुनने और सच को संरक्षण-प्रोत्साहन पाने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।

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