दैवीय गुण आएं तभी साधना सफल – डॉ. दीपक आचार्य

दैवीय गुण आएं  तभी साधना सफल  – डॉ. दीपक आचार्य

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उपासना, उपासक और उपास्य देवी या देव का सीधा रिश्ता है। हममें से हर किसी को श्रद्धा और विश्वास सभी देवी-देवताओं में हो सकता है लेकिन एक या दो खास भगवान होते हैं जिनके प्रति हमारी विशेष अगाध श्रद्धा होती है और जिन्हें हम इष्ट देव या  इष्ट देवी के रूप में हृदय से स्वीकारने लगते हैं।

आमतौर पर हम लोग उसी देवी-देवता को दिल से चाहते हैं जिनकी हमने पूर्वजन्म में उपासना की हुई होती है। जिस किसी देवी-देवता की साधना पूर्वजन्म में हमसे हो चुकी होती है उसके प्रति हमारा मौलिक आकर्षण व लगाव रहता है तथा उसी देवी या देवता की साधना को अपनाने से हमारा संबंध पूर्वजन्म में की गई साधना से जुड़ जाता है तथा इसमें सिद्धि और साक्षात्कार की संभावनाएं अधिक हुआ करती हैं।

पूर्वजन्म में की गई साधना-उपासना का प्रभाव जीवात्मा पर नए जन्म को प्राप्त करने के बाद भी बना रहता हैै। इसलिए उसी देवी या देवता की साधना को अंगीकार करना चाहिए जो हमें स्वाभाविक और मौलिक रूप में पसंद हो और भीतरी आकर्षण हो।

इससे हमारी पूर्वजन्म की साधना संरक्षित रहती है और इस जन्म में हम जो कुछ करते हैं उसके तार पहले जन्म की साधना से स्वतः जुड़ जाते हैं। इससे साधना की शक्ति बढ़ती है और सफलता जल्दी मिलती है।

इंसान के जीवन में उपासना और उपास्य देव का पूरा प्रभाव शारीरिक संरचना, मनः स्थिति, मस्तिष्क के वैचारिक धरातल और कार्य-व्यवहार आदि सब कुछ पर पड़ता है।

जो जिस देवी या देवता की उपासना करता है उसके गुणधर्म, स्वभाव और व्यवहार उपासक में प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जबकि साधक सच्चे मन से श्रद्धापूर्वक साधना करे और उपास्यदेव के प्रति अनन्य श्रद्धा के भाव हों।

ऎसा होने पर उपासक और उपास्यदेव के बीच एक सीधा रिश्ता कायम हो जाता है जो दिखता नहीं है लेकिन अदृश्य रूप से अपने इष्ट देव या इष्टदेवी से जुड़ कर उनकी शक्तियों, दिव्यताओं और विभूतियों को साधक के मन-मस्तिष्क और शरीर में प्रवेश कराता रहता है।

जितनी अपने इष्ट के प्रति तीव्रतर श्रद्धा होती है उतनी अधिक दिव्य ऊर्जाएं साधक की आत्मा और शरीर को प्राप्त होती रहती हैं। निरन्तर साधना की वजह से साधक में भी अपने आप परिवर्तन आने आरंभ हो जाते हैं।

यह सारे परिवर्तन इस प्रकार के होते हैं कि जिनसे साधक में उसके उपास्यदेव या उपास्यदेवी की प्रतिच्छाया को सूक्ष्म रूप में देखा जा सकता है। सभी प्रकार के ये परिवर्तन साधक की श्रद्धा-भावना के अनुरूप न्यूनाधिक रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

हम जिसकी साधना करते हैं उस देव या देवी के गुण हमारे व्यक्तित्व में न आएं तो मान कर चलना चाहिए कि हमारी साधना का कोई प्रभाव नहीं है और इस प्रकार की साधना में हम समय गंवा रहे हैं।

देवी-देवता की साधना में भगवान के गुण, सदाचार, सद्व्यवहार, सहिष्णुता, संवेदनशीलता, माधुर्य, सेवा, परोपकार, उदारता और सभी प्रकार के श्रेष्ठ गुण और आदर्श साधक अपने भीतर अनुभव करता है।

इतना ही नहीं तो साधक जहाँ रहता है वहाँ के लोगों को भी यह दैवीय गुण प्रभावित करते हैं और पूरा का पूरा वातावरण सकारात्मक ऊर्जाओं से भरने लगता है।

देवी या देवता की प्रत्यक्ष कृपा जब आती है तब चित्त एकदम शांत होकर आत्मस्थिति में आ जाता है। सारे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप,मानसिक एवं शारीरिक विकार, उद्विग्नता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, ईष्र्या, शत्रुता आदि सभी नकारात्मक भाव समाप्त हो जाते हैं, सभी प्राणियों के प्रति सच्चा प्रेम उमड़ने लगता है, आसुरी भाव, छल, कपट, कुटिलता, षड़यंत्र आदि सब कुछ समाप्त हो जाते हैं तथा ऎसे साधक के प्रति हर किसी में प्रेम और श्रद्धा उमड़ने लगती है।

देवी या देवता के आने पर शरीर अपने आप हल्का तथा दिव्य हो जाता है और चेहरे तथा स्वभाव में इसका असर सीधा देखने को मिलता है।  शरीर भारी होने, बेवजह हिलने-डुलने लग जाने, फालतू की वाणी प्रकट होने तथा अनावश्यक हलचल आने को देवी या देवता की कृपा नहीं माना जा सकता।

देवी या देवता की प्रसन्नता और कृपा का सीधा सा संकेत है दैवीय गुणों का होना, दैवीय भावों के साथ सृष्टि का कल्याण और परम सत्ता के प्रति समर्पण। इन दिनों नवरात्रि चल रही है। सभी लोग दैवी पूजा में व्यस्त हैं। लेकिन इनमें से कितने लोगों में दैवीय भावों का आगमन दिख रहा है,यह बहुत बड़ा प्रश्न है।

हमारी वे सारी साधनाएं बेकार हैं जिन्हें अपनाते हुए भी हम उन कर्मों में लगे रहें जो राक्षसों के कहे जाते हैं, असुरों की  तरह व्यवहार करें और पैशाचिक भावनाओं को अंगीकार किए रहें। जो कुछ करें पूरी ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण भाव से।

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