• April 2, 2016

छंटनी चाहिए इनकी गर्मी :- डॉ. दीपक आचार्य

छंटनी चाहिए इनकी गर्मी :- डॉ. दीपक आचार्य

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गर्मियाँ हर साल आती हैं, चली जाती हैं, पर हम सब मस्ती से टिके हुए हैं। साल दर साल गर्मियाँ भयावह होती जा रही हैं। इंसान से लेकर मवेशी, पक्षी सब परेशान हैं। जमीन पर रहने वाले भी हैरान हैं और जमीन के अंदर रहने वाले भी। आकाश में उड़ने वाले भी त्रस्त हैं और उथले पानी के जीव भी।

Dr. Deepak Acharyaसब कुछ गरम ही गरम है। आदमी के मिजाज़ से लेकर परिवेश तक गर्मी पसरी है। किसी को पद-प्रतिष्ठा की गर्मी है। किसी को पैसे की। बहुत से हैं जिन्हें अपनी कोई गर्मी नहीं है बल्कि उन लोगों की गर्मी है जो इनके आका या मालिक कहे जाते हैं। यो भी गर्मी या तो जंगलियों को होती है अथवा पालतुओं को। जिसका आका जितना बड़ा, उतनी ज्यादा गर्मी दिखाता है उसका अपना पालतू। सर्वाधिक लोगों को अपने नाजायज़ और अवैध अहंकार की गर्मी चढ़ी हुई है।

वैसे देखा जाए तो अब लोगों में इंसानियत की गर्मी या ऊर्जा रही नहीं। बावजूद इसके सबके दिमाग जल्दी गरम होने लगे हैं। बात-बात में गर्मी चढ़ जाती है, आँखें लाल सूर्ख हो जाती हैं, चेहरा क्रोध में तमतमाने लगमा है, दाँत किटकिटाने लगते हैं और ऎसा गरम हो जाता है कि जैसे आदमी नहीं कोई भाप इंजन या रेडियेटर गर्म हो गया हो।

यह आदमी है ही ऎसा। बात-बेबात गर्म हो जाता है, गर्मी दिखाता है और माहौल गरम करता रहता है। सृष्टि का यह एकमात्र जीव है जो गर्मी ही नहीं बरसात और सर्दी के मौसम में भी गरम हो जाता है। इसकी तासीर ही भयंकर गरम होती जा रही है और अब ऊपर से ग्लोबल वार्मिंग का जमाना ही आ गया है।

सब गरम ही गरम होते जा रहे हैं, पिण्ड से लेकर संसार तक सब कुछ। अहंकार की गर्मी के मारे छोटे-बड़े सभी आदमी लावा उगलने वाले पहाड़ होते जा रहे हैं। आदमी सरद-गरम दोनो में जी रहा है।

सर ठण्डा रहने की बजाय भीषणतम गरमागरम होता जा रहा है और शरीर गरम रहने की बजाय ठण्डा। केवल दिमाग ही पूरी गरमी के साथ दौड़-भाग करने लगा है, शरीर कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। न मेहनत हो पाती है, न कोई पुरुषार्थ। शरीर चल नहीं पाता किन्तु दिगाम गरम हवा भरे गुब्बारे की तरह पूरी दुनिया और आसमान की ऊँचाइयों का ओर-छोर नापने लगा है।

जिसे देखो वह गरम होने लगा है। थोड़ा उत्तेजित कर दो तो भट्टी होने लगता है आदमी। बड़े-बडे़ लोगों को फलदार व सघन छायादार वृक्षों की तरह माना जाता था, लेकिन वे भी अब अपनी सारी शीतलता और मर्यादा छोड़कर आग का दरिया होने लगे हैं। जरा सी बात पर भौं-भौं कर लपकते हैं,अंगारे उगलते हैं, जैसे के लावा फूटने वाला ही हो।

अधिकतर लोग बेवक्त और बेवजह गरम होने लगे हैं। बहुत जरूरी हो गया है इनकी गर्मी को छाँटना। गर्मी छंटेगी, तभी दिख पायेगी इन्हें अपनी औकात, चादर हटेगी तभी दीख पाएगा इनका मौलिक स्वरूप,  तभी जान पाएंगे हम सभी कि आखिर ये कितने नंगे, बेशर्म और बदहवास हैं।

इनके पेट पर कसकर लात पड़नी चाहिए तभी पेट बोल पाएगा कि ये हरामखोर कितने भूखे-प्यासे हैं। वक्त आ गया है इन सबकी गर्मी छांटने का। पानी छिड़कने या बर्फ में रखने से कम नहीं होगी इनकी गर्मी।

गर्मी ही गर्मी को काट सकती है। इसलिए उठा लो अपने हाथों में धधकती लकड़ियां और बढ़ चलो उधर जहाँ गर्म दिमाग और बदमिजाजों के डेरे हैं। गर्म दिमाग की गर्मी इसी भाषा को समझती है। फिर देर किस बात की। आओ छांटें उन सभी की गर्मी, जो बेवजह गर्म हो गए हैं

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