कुछ ख़्वाब बुन लेना जीना आसान हो जायेगा —डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’

कुछ ख़्वाब बुन लेना जीना आसान हो जायेगा —डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’

कुछ ख़्वाब बुन लेना जीना आसान हो जायेगा

कुछ ख़्वाब बुन लेना जीना आसान हो जायेगा
दिल की सुनलेना मिज़ाज शादमान हो जायेगा
मुद्दत लगती है दिलकश फ़साना बन जाने को
हिम्मत रख वक़्त पे इश्क़ मेहरबान हो जायेगा
टूटना और फिर बिखर जाना आदत है शीशे की
हो मुस्तक़िल अंदाज़ ज़माना क़द्रदान हो जायेगा
लर्ज़िश-ए-ख़याल में ज़र्द किस काम का है बशर
जानें तो हुनर तिरा मुल्क़ निगहबान हो जायेगा
मंज़िल-ए-इश्क़ में बाकीं हैं इम्तिहान और अभी
ब-नामें मुहब्बत ‘राहत’ बेख़ौफ़ क़ुर्बान हो जायेगा

डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’

*** अदाकारी ***
**************

ज़िंदगी के रंग मंच पर
आदमी है
सिर्फ़ एक कठपुतली ।
कठपुतली
अपनी अदाकारी में
कितने भी रंग भर ले
आख़िर;
वह पहचान ही ली जाती है, कि
वह मात्र एक कठपुतली है ।
ऐसे ही आदमी
चेहरे पर
कितने ही झूठे-सच्चे रंग भरे
अंत में,
रंगीन चेहरे के पीछे
असली चेहरा
पहचान ही लिया जाता है |

***ख़लिश ***
***************

जिस सहर पे यकीं था वो ख़ुशगवार न हुयी
देखो ये कैसी अदा है नसीब की
समझा था जिसे बेकार, वो बेकार न हुयी
मांगी थी जब तड़प रूह बेक़रार न हुयी
कहूँ अब क्या किसी से
देखकर माल-ओ-ज़र भी मिरि चाहतें तलबगार न हुयीं
सोचा था जिन्हे अपना वो साँसें मददगार न हुयीं
है अजीब अशआर क़ुदरत की
भूल से छोड़ा था जिसे हमने
वो निगाहें शिकबागार न हुयीं

*** पति की अभिलाषा ***

सुन्दर डीपी लगा रखी है मोहतरमा अब तो चाय पिला दें
सुबह उठते से ही देखो की है तारीफ़ अब तो चाय पिला दें
सोच रखा है छुट्टी का दिन सारा आराम करके गुजार दूँगा
चाय पीके सो जाऊंगा, कहीं वो शॉपिंग की याद न दिला दें
हफ़्ते भर की थकान मीठी नींद, भीने सपनो से मिटाऊँगा
लम्बी अँगड़ायी लेकर एक बजे उठूँगा फिर खाना खिला दें
देर शाम गपशप मारूँ दोस्तों की महफ़िल में दिल खोल के
प्रियतम रखे ख़्याल, कहीं जाने का सोच रखा है तो भुला दें
कल फिर जाना है दफ़्तर डर जाता हूँ जहन में आते ख़्याल
शाम सुहानी चली गई ‘राहत’ हे! प्रिय सिर सहलाके सुला दें

*** दिल में बस जाना ***

दिल में बस जाना फिर रूठ के चले जाना हमदम
कभी मान जाना तो कभी बे-ख़ता सताना हमदम
जोड़ता फिर रहा हसरतें मुहब्बत की राह में सनम
इक छोर से तुझ पर आके ख़त्म हो जाना हमदम
अपने इस दिल को क्या बताऊँ कहाँ जा कर बसे
तू जो न मिला तो समझो मौत का आना हमदम
बुरे वक़्त का आना इत्तेफ़ाक़ ही समझते रहे हम
रग़बत यार की कुफ़्र तिरि यादों का जाना हमदम
जब फ़िक्र न उसको तो क्यूँ गिला रखियेगा ‘राहत’
मिरा यकीं करना और तिरा दग़ा दे जाना हमदम

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