• March 18, 2015

आदिवासियों का त्रिवेणी संगम घोटिया आम्बा मेला : फागुनोत्सव को विदाई — कल्पना डिण्डोर

आदिवासियों का  त्रिवेणी संगम घोटिया आम्बा मेला : फागुनोत्सव को विदाई — कल्पना डिण्डोर

बांसवाड़ा (सू०जन०अ०) – बाँसवाड़ा जिले में जनजातीय परंपराओं और लोक लहरियों का प्रतिनिधित्व bansकरने वाले मेलों का उल्लास साल भर बरसता रहता है। इन सभी प्रकार के मेलों की पूर्णाहुति वर्ष के अंतिम दिन पहाड़ों में उल्लास के साथ होती है जब मेला रंगों और रसों की भरपूर वृष्टि के बीच वार्षिक मेला भरता है जिसमें क्षेत्र भर से करीब लाख भर ग्रामीण हिस्सा लेते हैं और फागुनोत्सव की विदाई के साथ ही वर्ष भर के मेलों का समापन होकर नया वर्ष आरंभ होता है।)

वर्ष का अंतिम मेला बांसवाड़ा-दोहद मार्ग स्थित बड़ोदिया से कुछ दूर घोटिया आम्बा के जंगल में भरता है जिसमें क्षेत्र भर से मेलार्थी हिस्सा लेते हैं। मेले की धूम पांच दिन तक बनी रहती है।

जंगल में मंगल होता है साकार

       घोटिया आम्बा की परम्पराओं के अनुसार यह ़मेला फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी (पूर्णिमांत पद्धति के अनुसार चैत्र कृष्ण त्रयोदशी) 18 मार्च बुधवार को शुरू होगा।  मुख्य मेला अमावास्या के दिन 20 मार्च को पूरे यौवन पर रहेगा। इस मेले में डेढ़-दो लाख से अधिक मेलार्थी हिस्सा लेते हैं। इसमें वागड़ अंचल के हजारों मेलार्थियों के साथ ही गुजरात और मध्यप्रदेश के सरहदी क्षेत्रों से आने वाले मेलार्थियों की संख्या भी कोई कम नहीं होती। बांसवाड़ा जिले का यह सबसे बड़ा परंपरागत ग्राम्य मेला है।

       अगाध आस्था है घोटिया बावसी के प्रत

       मेलार्थी यहां आकर पाण्डव कुण्ड में स्नान, घोटेश्वर शिवालय, केलापानी के देवालय, बजरंग बली, वाल्मीकि मंदिर आदि में दर्शन करने के उपरान्त मेले के मनोरंजन संसाधनों का जमकर आनंद लेते हैं। तीनों तरफ पर्वत से घिरे घोटेश्वर शिवालय में रक्ताभ शिवलिंग एवं देवी पार्वती की आकर्षक प्रतिमा है। पाश्र्व में दीर्घ अधिष्ठान पर श्वेत पाषाण निर्मित पाण्डव कुल की सात मूर्तियां हैं जिनका दर्शन एवं पूजन किया जाता है।Ghotiya Aamba (246)

       दूर-दूर से आते हैं मेलार्थी

       ढोल-नगाड़ों व घण्टों के अनवरत् नादों के बीच ‘‘हर-हर महादेव’’ और ‘‘जै घोटिया बावसी’’ के उद्घोषों के साथ दर्शनार्थियों की रेलमपेल मची रहती है। मुख्य मंदिर के द्वार पर आकर्षक देव प्रतिमाओं के अलावा शिखराग्र में दो सिंह मूर्तियां एवं मध्य में ध्यानावस्थित महात्मा की प्रतिमा यहां की शान्ति एवं समन्वयक को बखूबी अभिव्यक्ति देती हैं। इसके पास ही हनुमान मंदिर, यज्ञ कुण्ड, गौशाला, धर्मशाला, भोजनशाला है। शिवालय के सम्मुख धूंणी वाले आश्रम में मेले के दौरान दूर-दूर से आए संतों एवं भक्तों के समूह दिन-रात साधना व भजन-कीर्तनों में व्यस्त रहते हैं।

       आरोग्य और शुचिता देता है पाण्डव कुण्ड

       घोटेश्वर शिवालय के पास ही पवित्र जल से भरा पाण्डव कुण्ड है, जहां मेलावधि में नर-नारियों को स्नान करते देखा जा सकता है। मुख्य मेले के दिन स्नानार्थियों की भारी भीड़ यहां जमा रहती है। इस कुण्ड को पापों का शमन करने वाला और मुक्तिदायक माना गया है। स्नान में असमर्थ मेलार्थी हाथ-पाँव व मुख प्रक्षालन कर लेते हैं। कुण्ड में ही शिला स्तम्भ पर शिवलिंग स्थापित है जिस पर श्रद्धालु पैसे चढ़ाते हैं। यहीं पर जन-जन की अगाध आस्था का प्रतीक आम्रवृक्ष है जिसके बारे में मान्यता है कि यह लोगों की कामनाएं पूरी करता है।

       जनश्रुति है कि घोटिया आम्बा के पठार पर पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से देवराज इन्द्र से प्राप्त आम की गुठली यहाँ रोपी व इससे उत्पन्न आम्र फलों के रस से 88 हजार ऋषियों को भोजन कराने का पुण्य पाया। आज भी लोग इसी परम्परा के आम्र वृक्ष की परिक्रमा, पूजन इत्यादि करते हैं व बाधाएं लेते हैं।

       यहां धूंणी है, जिसमें नारियल की चटकों का हवन लगातार चलता रहता है। श्रद्धालु कामना पूरी हो जाने पर यहां रंगीन ध्वज चढ़ाते हैं, नारियलों की कतार बांधते हैं व ब्राह्मणों एवं साधु संतों को भोजन कराते हैं। यहां के वाल्मीकि मंदिर में मेले के दौरान भक्तों का जमघट लगा रहता है।

       रमणीय है केलापानी

       घोटेश्वर से कुछ ही दूर पठार के पार केलापानी नामक पवित्र धाम है, जहाँ शिवालय, राम मंदिर, केले के मनोहारी झुरमुट, दिव्य चावल, सुरम्य झरना तथा गोमुख से सतत प्रवाहमान जलधाराएँ श्रद्धा एवं आत्मीय आनंद से भर देती हैं।

       वनवास के दौरान प्यास लगने पर भीम के गदा प्रहार से बना सुरम्य केलापानी झरना बरसात के दिनों में हर किसी को मुग्ध कर देता है। यहां मोती गिरी महाराज की छतरी, धूंणी, आश्रम तथा पाण्डवों के चरण चिह्न  भी हैं, जहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहीं पर पौराणिक महत्व के साल के पौधों से गिरे चावलों को ढूँढ़कर मेलार्थी घर ले जाते हैं। इन चावलों का पाना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।

       घोटिया आम्बा पहाड़ से लगा सुविस्तृत एवं दीर्घ पठार है, जिसे ‘माल’ कहते हैं। इस पठार पर खेती होती है। मेेले की शुरुआत शिवार्चन के साथ ही फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को महंत हीरागिरी महाराज एवं महंत रामगिरी महाराज द्वारा शिवलिंग पर रजत छत्र चढ़ाकर की जाती है।

       लगते हैं लम्बे मेला बाजार

       घोटिया आम्बा मेले में तीन तरफ लंबे मेला बाजार लगते हैं। वहीं रंगझूले, चकड़ौल, मदारियों के करतब, प्रदर्शनियाँ, खेलकूद, प्रतिस्पर्धाएँ आदि होती हैं। यह मेला प्रतिदर्श है वनवासी संस्कृति के हर रंग और रस का जो सदियों से सींचते रहे हैं वनांचल को।

       पाण्डवों की याद ताजा करते हैं मेलार्थी

       पाण्डवों की याद में लगने वाला यह मेला युगों-युगों से जन-जन को पराक्रम एवं शौर्य का संदेश देता आ रहा है, वहीं पूर्वजों के प्रति अगाध आस्थाओं एवं सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक भी बना हुआ है।

       मेलार्थी खाने-पीने का सामान अपने साथ लाते हैं व घोटिया आम्बा तीर्थ के देवस्थलों में दर्शन व मेले का आनंद लेते हैं। कई किलोमीटर छितराए पहाड़ों के आँचल में ये समूह दाल-बाटी, चूरमा, दूध-पानीये आदि पका कर परिजनोें के साथ सामूहिक गोठ (पिकनिक)कर मौज-मस्ती लूटते हैं।

       प्रकृति नहला देती है मस्ती से

       घोटिया आम्बा का मनोहारी नैसर्गिक परिवेश ही ऎेसा है कि यहाँ आने वाला हर कोई जीवन के संत्रासों, विषादों और भविष्य की तमाम आशंकाओं को भूल कर असीम आनंद के सागर में डूब जाता है।

       रमणीय घोटिया आम्बा क्षेत्र में चारों और बडे़-बडे़ वृक्षों से भरी पहाड़ियाँ, दुर्गम घाटियाँ, शीतल जल के सोते और वन्य जीवों की अठखेलियाँ प्रकृति के अनुपम वैभव को व्यक्त करती हैं तो राजस्थान, गुजरात ओैैर मध्यप्रदेश के सीमावर्ती अँचलों से परम्परागत परिधानों में जमा आदिवासी स्त्री-पुरुषों, लोकवाद्यों के साथ फाल्गुनी गीतों की झंकार और नृत्यों की मनोहारी फिज़ाँ आदिवासी संस्कृति के प्राणों को बखूबी रूपायित करती है।

       यों होता है नव वर्ष का स्वागत

       आदिवासी समाज सुधारक एवं संंत महात्मा भी बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचकर धार्मिक एवं समाजिक चेतना का संचार करते हैं। नव वर्ष के स्वागत और अभिनन्दन के उल्लास में नहाते मेलार्थी यहाँ रंगझूलों व चकड़ोल में बैठकर हवा मेें तैरने का आंनद लेते हैं और मेले का भरपूर लुत्फ उठाने के बाद जंगल के पहाड़ों पर खुले आसमान तले खो जाते हैं नींद के आगोश में।

       पुराने वर्ष को भावपूर्वक विदाई तथा  नव वर्ष का यह पारंपरिक अभिनन्दन सदियों से प्रकृति प्रेम और जंगल में मंगल का पैगाम सुना रहा है।

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