स्त्री मात्र में हो परस्पर मैत्री भाव – डॉ. दीपक आचार्य

स्त्री मात्र में हो  परस्पर मैत्री भाव  – डॉ. दीपक आचार्य

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शक्ति उपासना का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है जिन लोगों को शक्ति का प्रतीक माना जाता है उनके भीतर भी स्वयं को शक्ति के रूप में अपने आपको जानने की समझ हो तथा उसके अनुरूप समस्त व्यवहार भी हों।

स्त्री मात्र को शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है और इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि संसार की समस्त स्ति्रयों में आपस में मैत्री भाव, सहृदयता, सहिष्णुता और सहज स्वीकार्यता के भाव हों। इन दैवी भावों के होने पर ही स्त्री को शक्ति का पूर्ण प्रतीक माना और अनुभव किया जा सकता है।

स्ति्रयों में एक-दूसरे के प्रति सद्भावना, आत्मीयता और परस्पर आदर-सम्मान तथा श्रद्धा भाव हों। देवी उपासना के माध्यम से दैवीय गुणों के आविर्भाव और दिव्यत्व प्राप्ति की नसीहतें केवल पुरुषों के लिए ही नहीं हैं बल्कि स्ति्रयों को भी उन सभी गुणों को अंगीकार करने की अनिवार्यता है जो हमारी देवियों और दैवी परंपरा में रही है।

 देवी की कृपा प्राप्ति और देवी मैया को प्रसन्न करने के लिए इन देवी गुणों को होना स्त्री मात्र के लिए भी जरूरी है। भगवती भी  उन्हीं स्ति्रयों की पूजा-अर्चना और साधना को स्वीकारती है जिनमें दैवीय गुण विद्यमान होते हैं।

कोई सा युग हो, पौराणिक घटना और अन्तर्कथा हो, उसमें कुछ अपवादों को छोड़कर सभी जगह देवी समुदाय में विद्यमान देवियों, उनकी उप देवियों, नित्याओं, अनुचरियों और समस्त प्रकार की दिव्य स्ति्रयों में परस्पर एक-दूसरे के प्रति सम्मान, सहयोग और स्वीकार्यता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है।

शुंभ-निशुंभ, चण्ड-मुण्ड, महिषासुर, रक्तबीज हों या दूसरे सारे असुरों के संहार का कोई घटनाक्रम, सभी में प्रधान देवी या अवतारी देवी के साथ शक्ति समूह के रूप में जो-जो भी स्त्री रूपा देवियां रही हैं उन सभी के बीच सशक्त संगठन, अटूट मैत्री भाव, एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा और आदर, माधुर्य भावों से परिपूर्ण अपार एवं निश्छल प्रेम, सद्भावना एवं समस्त समूहों की समृद्धि की भावना देखने को मिलती है।

स्त्री मात्र के लिए इन गुणों का होना जरूरी है तभी उन्हें शक्ति का पूर्ण पर्याय माना जा सकता है। जहाँ स्ति्रयों के मध्य परस्पर मैत्री और आत्मीयता के भाव होंगे वहाँ असुरों का उन्मूलन बड़ी ही आसानी से होता रहता है, दुष्ट इंसानों का संहार तो मामूली बात है। स्ति्रयों की सारी समस्याओं का एकमेव समाधान यही है।

आज हम स्त्री सशक्तिकरण की बातें करते हैं और उन्हें मजबूत बनाने के लिए ढेरों जतन करते हैं। लेकिन हम इस बात को भूल जाते हैं कि स्त्री अपने आप में शक्ति है और वह सहज स्वाभाविक  एवं मौलिक रूप से सर्वांगीण दृष्टि से सशक्त है, उसे सशक्त बनाने की नहीं बल्कि उसके भीतर की शक्ति को जगाने भर की आवश्यकता है।

आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि स्त्री अपनी महत्ता और सामथ्र्य से परिचित नहीं होकर आत्महीनता के भावों के साथ जी रही है जहाँ उसे अपनी शक्तियों और महान सामथ्र्य के बारे में जानकारी नहीं है और इस वजह से उसके व्यक्तित्व और जीवन का पूरा-पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।

यह अनभिज्ञता ही है जिसके कारण स्त्री समस्याओं, विपदाओं, आत्महीनता और निराशाओं में जीने को विवश है अन्यथा हमारे यहाँ स्त्री को केवल इंसानी रूप में ही नहीं बल्कि इससे भी कहीं ऊपर और विशिष्ट सम्माननीय दर्जा प्राप्त है।

यह भारतीय संस्कृति की अपनी अन्यतम विशेषताओं में भी सर्वोपरि है।  नवरात्रि में अधिकांश स्ति्रयां देवी उपासना करती हैं और इसके माध्यम से शक्ति संचय के प्रयास करती हैं लेकिन वे केवल बाह्य उपचारों और औपचारिकताओं तक ही सिमट कर रह जाती हैं, इससे उन्हें अपेक्षित लाभ या सफलता प्रत्यक्षतः दिख नहीं पाती।

नवरात्रि स्त्री मात्र के लिए भी अपने शक्ति तत्व और इससे जुड़े समस्त कारकों के पुनर्भरण (रिफिलिंग) का सौभाग्यशाली अवसर है। स्त्री के बारे में कहा जाता है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।

यही एक बात है जो कि स्ति्रयों के पिछड़ेपन और उपेक्षा के लिए जिम्मेदार है। स्ति्रयों की शक्तियों का यह विभाजन या मार्गान्तरण ही है जिसके कारण स्त्री के भीतर समाहित शक्ति तत्व का न तो जागरण हो पा रहा है, न इसका कोई सार्थक उपयोग।

समस्त स्ति्रयां अपने भीतर के देवी तत्व को जान लें, उसके अनुरूप बर्ताव करना आरंभ कर दें, आपस में ईष्र्या-द्वेष, कलुष, शत्रुता, वैमनस्य आदि सब कुछ भुला दें, एक-दूसरे को आदर-सम्मान के साथ सहज स्वीकारें, सामूहिक तरक्की की सकारात्मक सोच से काम करें, परस्पर निन्दा और आलोचना के भावों का त्याग करें और स्त्री मात्र के कल्याण के लिए सजग रहें तो दुनिया में कोई उन्हें नहीं पछाड़ सकता।

शक्तिस्वरूपा कही जाने वाली स्त्री की शक्तिहीनता और विवशता के लिए स्ति्रयां ही जिम्मेदार हैं, इस बात को स्ति्रयां भी खुले मन से स्वीकारती भी हैं। जो स्त्री दूसरी किसी भी स्त्री के प्रति बुरी सोच रखती है, नीचा दिखाने की कोशिश करती है, हानि पहुंचाने के लिए षड़यंत्र रचती है, बुरा-भला कहती है, दूसरी स्ति्रयों के सुहाग या प्रेम को छीनने की कोशिश करती है, दाम्पत्य जीवन को खुर्द-बुर्द करने के लिए निरन्तर टोने-टोटकों और तंत्र-मंत्रों का सहारा लेती है, परिचित या अपरिचित किसी भी स्त्री के प्रति कटु और अनर्गल वचन कहते हुए प्रताड़ित करती है, अपने स्वार्थ के लिए दूसरी स्ति्रयों को हानि पहुंचाती है, ये सारे कर्म आसुरी कहे जाते हैं और जो इनको अपनाता है उसके प्रति देवी मैया क्रूर बर्ताव करती हैं चाहे वह स्त्री कितनी ही बड़ी साधक, साध्वी अथवा संन्यासिन ही क्यों न हो। इनकी साधना निष्फल ही होती है।

देवी उपासना में सफलता पाने के लिए साधना करने वाली स्ति्रयों के लिए भी यह जरूरी है कि उनके मन में दूसरी किसी भी स्त्री के प्रति राग-द्वेष न हो। जिन महिलाओं के मन में अन्य समस्त स्ति्रयों के प्रति अच्छी भावना होती है, उन्हें देवी उपासना में सिद्धि औरों की अपेक्षा जल्दी प्राप्त होती है क्योंकि स्त्री मात्र के प्रति संवेदनशीलता और सद्भावना रखने वाली स्ति्रयों के प्रति देवी मैया अधिक प्रसन्न रहती हैं।

ऎसी स्ति्रयों को कम साधना होने पर भी देवी उपासना में अधिक सिद्धि प्राप्त होती है और वह भी जल्दी।  सार यही है कि समस्त स्ति्रयों के प्रति सद्भावना और आत्मीयता के भाव रखें। इससे स्त्री मात्र की सभी समस्याओं का निदान अपने आप संभव होने के साथ ही पारस्परिक साहचर्य और कल्याण के संकल्प सिद्ध होने में आसानी होगी।

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