• February 29, 2016

उपयोगी बनाएं इस भीड़ को -डॉ. दीपक आचार्य

उपयोगी बनाएं इस भीड़ को -डॉ. दीपक आचार्य

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मजमा लगाना और मजमा लगाकर बैठना, तमाशा बनना और तमाशा बनाना-दिखाना आदमी की फितरत में शुमार हो चला है।
हमारे यहां गली-कूंचों से लेकर महानगरों तक सर्कलों, रास्तों, चौराहों, तिराहों, डेरों, पाटों और सहज उपलब्ध सभी स्थानों पर बुद्धिजीवियों, अति-बुद्धिजीवियों,महा-बुद्धिजीवियों, चिन्तकों और विचारकों की विभिन्न श्रेणियां विद्यमान हैं जिनका एकसूत्री एजेण्डा जिन्दगी  भर चर्चाओं में रमे रहना ही है और ये चर्चाएं ही हैं जिनकी बदौलत ये लोग जैसे-तैसे जिन्दा हैं और ऊर्जावान बने हुए हैं।
वरना इन अमूल्य धरोहरों का साक्षात हम कभी नहीं कर पाते। एक ओर इस जमात का बहुत बड़ा योगदान देश के विचारकों में है वहीं दूसरी ओर एक किस्म और है जो हमेशा किसी न किसी महान इंसान के इर्द-गिर्द हमेशा बनी रहती है।
जैसा आदमी का कद, उतनी अधिक भीड़ आस-पास बनी रहती है। यह भीड़ ही है जो आदमी के मूल्य से लेकर औकात तय करती है और आदमी के वजूद से लेकर प्रतिष्ठा को तय करती है तथा जब-जब भी शक्ति परीक्षण के मौके आते हैं यह भीड़ नियंता के रूप में आगे ही आगे रहकर निर्णयों को अपने हिसाब से परिवर्तित करवाने की तमाम क्षमताओं से युक्त होती है।
यह स्थिति सभी स्थानों पर समान रूप से देखी जा सकती है। हर बड़े और महान इंसान के लिए इनका होना नितान्त जरूरी है और ऎसा न हो तो कोई भी इंसान अपने आपको बड़ा नहीं मान सकता।
हर इंसान के साथ उसी की वैचारिक भावभूमि वाली भीड़ हमेशा छाया की तरह विद्यमान रहती है।  इस मामले में दो प्रकार की भीड़ से हमारा वतन गौरवान्वित है। एक स्थिर है जबकि दूसरी चलायमान। इन दोनों ही प्रकार की भीड़ का समाज और देश के लिए योगदान के बारे में मूल्यांकन  किया जाए तो निराशा ही हाथ लगती है।
एक तीसरी प्रकार की भीड़ और है जिसे मौके-बेमौके इस्तेमाल किया जाता है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि हमारा न कोई जीवन लक्ष्य है, न दिशा और दशा। या तो खुद भेड़ों की तरह घूमते रहेंगे अथवा भेड़ों की तरह कोई भी हमें चला सकता है, कहीं भी ले जा सकता है।
हमें खुद को नहीं पता कि हमारी रेवड़ें किधर जा रही हैं, और क्यों जा रही हैं। इस भीड़ का काम आगे-पीछे घूमना, सुनना-सुनाना और हमेशा अपने आपको सक्रिय दिखाना ही रह गया है।
महान लोगों की भारी संख्या के बावजूद इस बात पर अब तक आत्मचिन्तन नहीं हो पाया है कि क्यों न इस भीड़ का उपयोग समाज, क्षेत्र और देश के किसी न किसी रचनात्मक काम के लिए किया जाए। कितना अच्छा हो कि जहां यह भीड़ दिखे, उसके लायक कोई न कोई काम तत्काल सुपुर्द कर दिया जाए ताकि इन लोगों का भी उपयोग समाज और देश के लिए हो सके। यही वास्तविक उपयोग होगा।
इससे इन लोगों की रचनात्मक क्षमता बढ़ेगी, मेहनत करने का जज्बा पैदा होगा और इन्हें भी आत्म संतोष होगा कि वे देश या समाज के किसी न किसी काम आ रहे हैं। इन लोगों में  अपार ऊर्जा और विराट सामथ्र्य है लेकिन हम लोग इनका कोई उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
इस वजह से ये लोग भी हमसे खफा भी रहते हैं। कितना अच्छा हो कि अब से इस भीड़ का उपयोग समाज के नवनिर्माण, क्षेत्र के विकास और देश के किसी काम में लिया जाए।
इन दिनों कई कार्यक्रम चल रहे हैं जिनमें सामूहिक श्रमदान की जरूरत  आंकी गई है। क्यों न इन लोगों का सहयोग लिया। इससे सभी लोगों को लाभ पहुंचेगा और देश के विकास को नई गति भी प्राप्त होगी।

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