नोटबंदी और जीएसटी से लगे तगड़े झटकों का असर कम होने लगा है

नोटबंदी और  जीएसटी से लगे तगड़े झटकों का असर कम होने लगा है

बिजनेस स्टैंडर्ड ——————– मुमकिन है कि व्यापक आर्थिक परिदृश्य के बारे में आने वाली खबरें अब बेहतर ही होंगी क्योंकि पहले नोटबंदी और फिर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से लगे तगड़े झटकों का असर कम होने लगा है। ऐसा होने पर आर्थिक वृद्धि के तिमाही आंकड़े सुधरेंगे, कंपनियों के बेहतर नतीजे आने लगेंगे, विनिर्माण क्षेत्र का प्रदर्शन सुधरेगा और निर्यात में भी सुधार का सिलसिला जारी रहेगा।

अगर यह सब होता है तो सरकार को पिछले कुछ महीनों की तरह रक्षात्मक होने की जरूरत नहीं रहेगी। अगर आंकड़े उम्मीद के मुताबिक सुधरते हैं तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि नरेंद्र मोदी अपने आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब देने लगें। ऐसा होने पर भी छोटी कारोबारी इकाइयों और सामान्य मजदूरों के लिए खुशी मनाने के हालात नहीं होंगे। इन दोनों के लिए पिछले 12 महीने उनकी जिंदगी का संभवत: सबसे खराब दौर रहा है। उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि सामान्य स्थिति जल्दी बहाल हो पाएगी या नहीं।

व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्रों में आंकड़ों की रिपोर्टिंग और आंकड़ों से झलकने वाले आख्यान इस दौर में कारोबार जगत की उथल-पुथल, अव्यवस्था, कर अनिश्चितता, कर्ज भुगतान समय में बढ़ोतरी और नौकरियों में कमी के बारे में व्यापक तस्वीर पेश करते हैं।

तार्किक रूप से कहें तो नोटबंदी के असर अस्थायी होने चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था में एक बार नकदी की पर्याप्त उपलब्धता हो जाने के बाद चीजें यथास्थिति पर लौट जानी जाहिए।

कभी-कभी आर्थिक प्रक्रिया के साधन माने जाने वाले कुशल कामगारों या कारोबारियों के लिए पुराने हालात बहाल नहीं हो पाते हैं। मुश्किल समय में गांव लौट चुके मजदूर शहर नहीं लौट सकते हैं जबकि सीमित संसाधनों में काम कर रहे कारोबारी के पास भी नए सिरे से काम के लिए जरूरी संसाधन नहीं होते हैं।

जीएसटी भले ही अच्छा साबित हो लेकिन यह संरचनात्मक विभ्रम की भी स्थिति पैदा करता है। जीएसटी को अधिकतम उत्पादन गतिविधियों को संगठित क्षेत्र में शामिल करने और उन्हें कर दायरे में लाने के खास मकसद से लाया गया था। लेकिन शायद अनजाने में ही, कारोबारी लेनदेन का लेखा-जोखा रखने की कष्टदायक अनिवार्यता और विस्तारित कर्ज भुगतान अवधि ने छोटे कारोबारों को जीएसटी-पूर्व की तुलना में अलाभदायक स्थिति में ला दिया।

उद्योग जगत के विभिन्न क्षेत्रों के आंकड़े बताते हैं कि कई इकाइयों को या तो कारोबार सीमित करना पड़ा है या बंद ही करना पड़ा है। जीएसटी परिषद अगले हफ्ते इनमें से कुछ मुद्दों पर गौर करेगी। हो सकता है कि कारोबारी लेनदेन के बारे में विवरण दर्ज करने की अनिवार्यता के बारे में कुछ रियायतों का ऐलान भी किया जाए।

‘मिंट’ समाचारपत्र में 3 नवंबर को प्रकाशित रिपोर्ट में इंदिरा राजारमन ने कहा है कि टैक्स क्रेडिट देने के पहले रसीदों का मिलान करने की अनिवार्यता खत्म नहीं होने तक हालात नहीं सुधरेंगे। अन्य लोगों के साथ बिज़नेस स्टैंडर्ड भी इस पहलू को उठाता रहा है।

कर चोरी की आशंकाएं कम करने के लिए रसीदों का मिलान जरूरी किया गया था लेकिन इससे भुगतान में गतिरोध हो रहा है जिसके प्राथमिक शिकार तो छोटे व्यवसाय ही हैं। यह देखना होगा कि जीएसटी परिषद क्या इस स्थिति को दुरुस्त कर पाएगी ? कर वंचना को लेकर चिंतित होने वाले लोग इस प्रावधान में बदलाव का विरोध भी कर सकते हैं।

आर जगन्नाथन ने ‘स्वराज्य’ पत्रिका में एक लेख में इस मुद्दे के बुनियादी पहलुओं का जिक्र करते हुए इसे ‘डार्विनोनिक्स’ की संज्ञा दी है। जगन्नाथन एक तरफ तो यह मान रहे हैं कि ‘इंसानों को सरकार की नादानी से सुरक्षित रखने की जरूरत है’, वहीं वह व्यवस्था को सशक्त करने के लिए कमजोरों को निकाल बाहर करने के विचार से भी सहमति जताते नजर आते हैं। लेकिन इन कमजोरों में लोग भी तो शामिल हैं।

आर्थिक नजरिया भी यही कहता है कि अगर बहुत सारे नाकाम लोग हैं तो व्यापक मांग कम होगी और आर्थिक वृद्धि में भी गिरावट आएगी। अधिक विकसित समाजों में इस मुद्दे का समाधान सुरक्षात्मक प्रावधानों के जरिये किया गया है लेकिन भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इसके चलते एक लोकतंत्र में बड़े अनचाहे नतीजे देखने को मिल सकते हैं।

अगले महीने गुजरात चुनाव आर्थिक परिदृश्य के बारे में आम जनता की मनोदशा का एक संकेतक हो सकता है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते रोजगार के मोर्चे पर मोदी सरकार की सोच के विपरीत हालात हैं। सरकार सारे रोजगार अवसर खुद ही नहीं बना सकती है लिहाजा उद्यमशील समाज और नए व्यवसाय का सृजन ही इसका समाधान हो सकता है। अब इस मोर्चे पर उम्मीद की रोशनी धीमी पड़ती जा रही है।

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