- June 4, 2022
हमारा दायित्व है कि हमें देखकर एक एक को वो शिक्षा मिलनी चाहिए— मोहन भागवत जी (पूर्व सरसंघचालक)
(संघ कार्यालय मधुबनी से ) मधुबनी (बिहार) में प्रथम और द्वितीय वर्ष प्रशिक्षण शिविर के अवसर पर पूर्व सरसंघचालक का संबोधन अंश।
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जब सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने पदभार ग्रहण किया था उस समय ही उन्होंने अपना उद्देश्य बता दिया था। नीचे संलग्न वीडियो 2006 में मोहन भागवत जी के शपथग्रहण का वीडियो है। तब उन्होंने कहा “यहाँ मुझे क्या करना है? हमारे पास शाश्वत सत्य अधिष्ठान है, जिसके आधार पर संघकार्य चलता है। वह क्या है? वह यह कि हिन्दुस्तान हिन्दू राष्ट्र है।”
◆ और कल का उनका भाषण यह है ::–
स्वतन्त्रता का 75वाँ वर्ष चल रहा है। स्वतंत्र में हमारा स्व कौनसा है? भारत माता की जय सारे विश्व में करानी है। हम विश्वविजेता बनना चाहते हैं क्या? नहीं हमें विश्वविजेता बनने की आकांक्षा नहीं है। हमको किसी को जीतना नहीं है। हमको सबको जोड़ना है। भारत वर्ष दुनिया में आदिकाल से अब तक जीतता रहा है तो किसी को जीतने के लिए नहीं सबको जोड़ने के लिए।
यही हमारा स्व है। बहुत प्राचीन समय में कभी हमारे आर्ष पूर्वजों ने अस्तित्व के सत्य को समझा और जाना कि यह सारा अस्तित्व रंग बिरंगी विविधताओं से भरा हुआ वह एक ही शाश्वत सम्पूर्ण एकमेव अद्वितीय सत्य का आविष्कार मात्र है। विविधता यह उस एक एकत्व की साज सज्जा है, वह अलगाव नहीं है। आपस में सबका आत्मीयता या अपनेपन का सम्बन्ध है, और इसलिए इस अपनेपन की भावना से सम्पूर्ण विश्व को सत्य की ओर ले जाना है। क्योंकि उस सत्य को प्राप्त करने से शाश्वत और कभी फीका न पड़ने वाला सुख मिलता है, जिसके खोज में साडी दुनिया दौड़ती रहती है। वह केवल वहीं मिलता है और हमको प्राप्त हुआ है, सारा विश्व हमारा अपना है, उसको भी प्राप्त होना चाहिए। सबको यह सत्य प्राप्त हो इसलिए इसी सत्य के आधार पर सत्य, करुणा, शुचिता और तपस्, जिसको धर्म के चार पैर हमारे यहाँ कहा गया है। इन मूल्यों पर आधारित एक धर्म जीवन भारत में खड़ा किया गया, वह हमारा राष्ट्रजीवन बना। हम राष्ट्र हैं क्यों हैं? किसी भाषा, पूजा, एक जगह रहने के कारण नहीं है बल्कि हमारे सामने एक समान लक्ष्य है
एतद् देश प्रसूतस्य सकाशाद् अग्र जन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
मनुष्य का जीवन कैसा हो? दुनिया के लोग आएं और हम जो दुनिया के सबसे प्राचीन देश हैं, हमारा दायित्व है कि हमें देखकर एक एक को वो शिक्षा मिलनी चाहिए कि हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए। यह एक समान उद्देश्य भारतवर्ष के सब पन्थ-सम्प्रदायों के सामने, भाषा बोलने वालों के सामने, सभी प्रदेशों के सामने, सभी खानपान, रीतिरिवाज वालों के सामने है। यहाँ तक की मेरा दवा है कि जिन्होंने कुछ ऐतिहासिक कारणों से विदेश से आई पूजा को स्वीकार किया उनके भी अंतर्मन से जब आवाज निकलती है तो उनके सामने यही लक्ष्य होता है क्योंकि वह भारत के हैं।
इस बात की आज दुनिया को आवश्यकता है क्योंकि सबको साथ लेकर आगे कैसे बढ़ें, जोड़ने वाला क्या है? इसकी प्रतीति दुनिया में नहीं है। थ्योरी है, अनुभव और प्रैक्टिस नहीं है। उसकी परम्परा भारत में आज तक अखण्ड चलती आ रही है। सब प्रकार के परिस्थितियों में वह कभी खण्डित नहीं हुआ, वही आध्यात्मिकता और उसके आधार पर खड़ा हुआ यह धर्म जिसको आजकल लोग हिन्दू धर्म कहते हैं वास्तव में वह तो मानव धर्म है, विश्वधर्म है। युगों से इस भूमि में उसका सांगोपांग संरक्षण, संवर्धन हुआ वह हिन्दू धर्म है।
इस भूमि में हम रहते हैं तो इस भूमि ने हमको यह सिखाया क्योंकि सुरक्षित भूमि थी, बाहर से कोई आने का नाम लेना कठिन था पुराने जमाने में, पर्वत और सागर पार करके कौन आए? और इसलिए यहाँ पर पले बढ़े लोगों को अपने अस्तित्व के लिए या अपनी सुरक्षा के लिए किसी से कभी लड़ाई झगड़ा नहीं करना पड़ा, इतनी समृद्धि थी, इतनी सुरक्षा थी, यह हमारी मातृभूमि ने दी है। उसके आधार पर उस सत्य का साक्षात्कार और उसको सारी दुनिया में देने के लिए आवश्यक सद्गुण और सम्पदा रखने वाला संगठित समाज, उस समाज के आधार पर राष्ट्र की निर्मिति बहुत प्राचीन समय में हमारे यहाँ हुई है।
ॐ भद्रं इच्छन्तः ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षा उपसेदुः अग्रे।
ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातं तस्मै देवा उपसं नमन्तु।।
(आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत के कल्याण की इच्छा से सृष्टि के आरम्भ में दीक्षा लेकर जो तप किया उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज प्रकट हुआ।)
यह इतिहास हमारे यहाँ रिकोर्डेड है वेदों में। हमारा राष्ट्र, हमारा बल और ओज, विश्व का कल्याण चाहने वाले ऋषियों के दुर्धर तप से हुआ है, अपनी सुरक्षा के लिए नहीं हुआ है, अपने स्वार्थ के लिए नहीं हुआ, जो अपने पास है वह दुनिया को देने के लिए हुआ है। और वह हमारे राष्ट्रजीवन का आधार स्वर बना, समय का चक्र चलता रहा कभी अनुकूलता, कभी प्रतिकूलता कभी अच्छे दिन, कभी खराब दिन, कभी विश्व पर राज्य कर रहे हैं, कभी विश्व के राजाओं से पीटे जा रहे हैं। ऐसी सब परिस्थितियों में हमारे राष्ट्रजीवन का यह सूत्र अभी तक कायम है और अब फिर से अग्रसर हो रहा है।
उस सनातन राष्ट्र के हम राष्ट्रीय हैं। वही धर्म, जो समन्वय सिखाता है, संतुलन देता है, सबको साथ लेकर सबकी उन्नति करना जानता है, सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखो, अपनी उन्नति से सबकी उन्नति हो ऐसी उन्नति को उन्नति कहो। वह हमारा “स्व” है, उसके आधार पर अपने देश के सारे तन्त्र को फिर से स्थापित करना होगा। क्योंकि हमारे देश का प्रयोजन यह है, हमारी स्वतन्त्रता इस “स्व” के आधार पर अपना तन्त्र बनाकर दुनिया को मन्त्र देने के लिए हुई है।
धर्म का संरक्षण दो प्रकार से होता है। उसपर जो आक्रमण होता है, उससे बचाना पड़ता है, उसके लिए बलिदान भी देना पड़ता है, और उसके लिए लड़ाई भी करनी पडती है। लेकिन धर्म आचरण से बढ़ता है, “आचाराः प्रभवो धर्मः”। तो हमें ये धर्माचरण चाहिए। आपस में प्रेम आनन्द, सुख दुःख की संवेदना चाहिए, हमारी विविधता है उनको हमारी साज सज्जा के रूप में देखना चाहिए अलगाव के रूप में नहीं, आपस में लड़ाई नहीं होनी चाहिए। यह सत्य हमारे पास है , सारी दुनिया को देने के लिए हमारे पास है, उसको देने का समय आ गया है, उसके लिए हमारी तैयारी है।
सत्य के अपने पैर नहीं होते। सत्य को शक्ति का अधिष्ठान चाहिए, बिना शक्ति के दुनिया नहीं मानती, हम किसी को जीतना नहीं चाहते पर दुनिया में दुष्ट लोग हैं जो हमें जीतना चाहेगे, आज भी उनके कारनामे चल रहे हैं। और इसलिए हमको उस शक्ति की भी आराधना करनी चाहिए, जो विद्या को छोड़कर यानि आध्यात्मिकता को छोड़कर केवल अविद्या की उपासना करते हैं यानि भौतिकता की तरफ जाते हैं वह अंधकार में जाते हैं, “अन्धतमः प्रविश्यति”, लेकिन अगले चरण में कहा है जो अविद्या छोड़कर केवल विद्या की उपासना करते हैं वह उससे भी घोर अंधकार में फंसते हैं। सही तरीका क्या है, “अविद्याया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते”, भौतिक ज्ञान के आधार पर जीवन संग्राम में आने वाली भौतिक बाधाओं का मुकाबला करते हुए यशस्वी बनो और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके उस यशस्विता को सार्थकता में बदल दो, केवल यशस्वी होना, पशु भी होते है।
यशस्वी हुए बिना सार्थक भी नहीं हो सकते, लेकिन सार्थकता के बिना यश का कोई अर्थ नहीं और इसलिए हमारे यहाँ यह मार्ग बताया है। यह संतुलन साधा है।
हिन्दुत्व एक अपनत्व भावना रोम रोम में भरना है।
अहंकार व्यक्तित्व भुलाकर सबको अपना करना है।
लेकिन सब बातों को शक्ति का अधिष्ठान चाहिए और शक्ति को सत्याधारित नीति का अधिष्ठान चाहिए। नहीं तो शक्ति उपद्रवी हो सकती है। शक्ति चाहिए लेकिन दुष्टों के हाथ में विद्या विवादाय, जानकारी झगड़े हेतु होती है। धनं मदाय, धन अहंकार करने हेतु लिहाज नहीं करते। शक्ति “परेषां परपीड़नाय” दूसरों को पीड़ा के लिए शक्ति उपयोग, यह दुष्टों का स्वभाव है। खलस्य, जो नीति विहीन हैं, सत्य पर नहीं चलते, अपनत्व को नहीं जानते। पर साधुओं का क्या है, “साधुर्न विपरीतेतद्”, उनका उल्टा है, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय, विद्या मिली तो लोगों का ज्ञान बढाने में उपयोग, धन मिला तो लोगों के अभाव दूर करने हेतु दान, बल मिला तो दुर्बलों की रक्षा के लिए उपयोग।
यह नीति नहीं है तो शक्ति उपद्रव बनती है हम देख रहे हैं। लड़ाई चल रही है, रशिया ने युक्रेन पर आक्रमण किया, विरोध भी हो रहा है लेकिन कोई भी यूक्रेन में जाकर रशिया को नहीं रोकता क्योंकि रशिया के पास ताकत है, धमकी दे रखी है। इधर आओगे अणुबम चलाऊंगा। डरना पड़ता है। जो विरोध कर रहे हैं उनके हेतु भी पवित्र नहीं वह तो सारे शस्त्र युक्रेन को दे रहे हैं। एक भारत है जो सत्य बात बोलता है जिसे संतुलन साधकर चलना पड़ रहा है और सौभाग्य से उसने संतुलित भूमिका ली है। उसने आक्रमण का समर्थन नहीं किया और रशिया का विरोध भी नहीं किया। भारत अगर पर्याप्त शक्तिशाली होता तो इस युद्ध को रोकता पर वो नहीं रोक सकता क्योंकि उसकी शक्ति अभी बढ़ रही है पूरी नहीं बढ़ी है। इस युद्ध ने हमारे जैसे देश के लिए सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियाँ बढ़ा दी हैं।
हमको अपने प्रयासों को अधिक दृढ करना पड़ेगा। शक्तिसम्पन्न होना पड़ेगा, ऐसी शक्ति अगर भारत में होती तो ये प्रसंग नहीं आता दुनिया में। लेकिन यह शक्तिवान लोग हैं, लेकिन अपनत्व और एकत्व से आने वाली धर्मप्राण नीति उनके पास नहीं है, इसलिए भाषा तो वही है शान्ति एकता की, संस्था भी हैं यूएनओ जैसी, सैन्य समृद्धि है, लेकिन स्वार्थ में ही जीते हैं। अपने स्वार्थ की सुरक्षा के लिए सब तत्त्वों का भी उपयोग करते हैं।
इसलिए नीति चाहिए और शक्ति चाहिए, यह शक्ति जैसे सत्व सम्पन्न में होती है वैसे एकता में भी होती है। भारत को परम वैभव सम्पन्न बनाना, भारत को विश्वगुरु बनाना यह समय की आवश्यकता है लेकिन उसके लिए भारत में सर्वत्र लोगों को भारत बनकर एक होना पड़ेगा। यह भारत का स्व है। वो किसी पूजा के आड़े नहीं आता। वह किसी पूजा का विरोध नहीं करता। वह किसी एक भाषा का समर्थन नहीं करता। सब भाषाओँ को अपना मानता है, वो सब प्रान्तों के लोगों को अपना मानता है, एक भारत माता के सब पुत्र हैं, समान पूर्वजों के सब वंशज हैं और यही “स्व” आधारित धर्म संस्कृति सबको विरासत में मिली है। पूजा से और रीती रिवाज से अलग करो तो हमारा धर्म बचता है बंधुभाव-मानवता, वही भारत का “स्व” और प्राचीन सनातन धर्म है, उसी को आज हिन्दू धर्म कहते हैं।
हम सबको यह ध्यान में रखना पड़ेगा की विविधताएँ अपनी हैं परन्तु वह अलगाव नहीं हैं, अभी यह प्रकरण निकला ज्ञानवापी का मुद्दा चल रहा है। एक इतिहास तो है उसको हम बदल नहीं सकते। वह इतिहास हमने नहीं बनाया न आज के हिन्दूओं ने न आज के मुसलमानों ने बनाया, उस समय घटा। इस्लाम बहर से आया, आक्रामकों के हाथ आया , उस आक्रमण में भारत की स्वतन्त्रता चाहने वालों के मनोधैर्य खच्च करने के लिए देवस्थान तोड़े गए, हजारों ऐसे स्थान हैं। हिन्दू समाज का विशेष ध्यान विशेष श्रद्धा जिनके बारे में है, ऐसे कुछ हैं उसके बारे में मामले उठते हैं। अब इसका विचार क्या करना है, हिन्दू यह मुसलमानों के विरुद्ध नहीं सोचता है। आज के मुसलमानों के उस समय पूर्वज भी हिन्दू थे, उन सबको स्वतन्त्रता से चिरकाल तक वंचित करने के लिए, उनका मनोधैर्य दबाने के लिए यह सब किया गया। इसलिए हिन्दू को लगता है कि इसका पुनरुद्धार होना चाहिए। हम तो कुछ नहीं कहते हमने 9 नवम्बर को कह दिया की एक रामजन्मभूमि का आन्दोलन था जिसमें हम अपने प्रकृति के विरुद्ध किसी ऐतिहासिक कारण से उस समय की परिस्थिति में सम्मिलित हुए, हमने उस कार्य को पूरा किया, अब हमको कोई आन्दोलन करना नहीं है, लेकिन इशुज अगर मन में हैं तो वह उठते ही हैं। यह किसी के विरुद्ध नहीं है और विरुद्ध मानना नहीं चाहिए।
मुसलमानों को तो नहीं ही मानना चाहिए हिन्दुओं को भी यह नहीं करना चाहिए।
अच्छी बात है ऐसा कुछ है, आपस में मिल बैठकर सहमती से कोई रास्ता निकालिए। लेकिन वो हर बार नहीं निकल सकता, इसलिए कोर्ट में जाते हैं। कोर्ट जाते हैं तो फिर कोर्ट जो निर्णय देगा उसे मानना चाहिए। अपनी संविधान सम्मत न्यायव्यवस्था को पवित्र सर्वश्रेष्ठ मानकर उसके निर्णय हमको पालन करने चाहिए, उनके निर्णयों पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाना चाहिए। और ठीक है हमारी कुछ विशेष श्रद्धा थी ऐसे स्थानों के बारे में कहा। लेकिन रोज एक मामला निकालना यह भी नहीं करना चाहिए, हमको झगड़ा क्यों बढाना है। ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धा हैं, परम्परा से चलती आ रही हैं, हम कर रहे हैं ठीक है। परन्तु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना। अरे भाई वो भी एक पूजा है, ठीक है बाहर से आई है लेकिन जिन्होंने अपनाई है वो मुसलमान वो बाहर से सम्बन्ध नहीं रखते। यह उनको भी सझना चाहिए, यद्यपि पूजा उनकी उधर की है उसमें वो रहना चाहते हैं तो अच्छी बात है, हमारे यहाँ पूजा का विरोध नहीं, सबकी मान्यता और सबके प्रति पवित्रता की भावना है। परन्तु पूजा वहाँ की होने के बाद भी वंशज वो हमारे प्राचीन सनातन काल से चलते आ रहे ऋषि मुनि राजा क्षत्रियों के वंशज हैं।
समान पूर्वजों के वंशज हम हैं। परम्परा हमको समान मिली है। शत्रु मित्र भाव हमारे लिए समान है। देश के हर स्वातन्त्र्य युग में हिन्दुओं के साथ राष्ट्रीय वृत्ति के कुछ मुसलमान लड़े हैं, वह यहाँ के मुसलमानों के लिए आदर्श हैं, अशफाक उल्ला खान, इब्राहिम खान गारदी, इतिहासकाल से चलता आया है। इन लोग का सम्बन्ध यहाँ से है बाहर से नहीं है। और इसलिए मुसलमानों को भी समझना चाहिए कि भारत मातृभूमि, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशी, किसी को न बदलते हुए सबको अपना मानना, अपनी पूजा अपने लिए सर्वश्रेष्ठ है लेकिन सबकी पूजा सबके लिए सर्वश्रेष्ठ है, किसी की बुराई न करना, मेरा ही सही, ऐसा कट्टरपन और अहंकार नहीं रखना, और जनजीवन में सबके साथ बराबरी में आना।
यह मान्य था इसलिए तो पाकिस्तान बना तो कुछ लोग चले गये ये लोग नहीं गये। ये नहीं गये इसका अर्थ यही है न हमारी पूजा अलग हो गयी इसलिए हम भारत छोड़ना चाहते हैं यह हमें मंजूर नहीं ऐसे ही सोचा होगा। तो उस भारत में फिर समरस होकर रहना। अलगाव का वही राग फिरसे अलापना नहीं। पूजा अलग है इसलिए हमारा हित अलग है ऐसा मानना नहीं। और सम्पूर्ण हिन्दू समाज ने भी ऐसा समझना कि ये हमारे ही पूर्वजों के वंशज, रिश्ते से, खून के रिश्ते से भाई, ये अगर वापिस आना चाहते तो दोनों हाथ खोलकर हम इनका स्वागत करते हैं। पर अगर नहीं भी आना चाहते हैं तो कोई बात नहीं। अपनी अपनी पूजा सब कर रहे हैं।
सब लोग देश भक्त हों। हमारी संस्कृति की उदारता सर्वसमावेशकता, सबको समान देखकर अपना मानना। अपने विकास से सबका विकास हो। अपना विकास कोई अलग व विशिष्ट नहीं है। मुसलमानों को सब के साथ यह देखना और हमारे वही पूर्वज हैं जिन्होंने हमको यह विरासत दी। उनके गौरव को मन में रखकर उनके रहन सहन का अनुकरण करते हुए आगे चलना। एकता का तो यही मार्ग है, हमारे संविधान की प्रस्तावना इसीका आदेश देती है, उसके मार्गदर्शक तत्व यही बताते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए समाज में एकता है तो एक दूसरे की संवेदनाओं का सबको ख्याल रखना पड़ेगा। मन वचन कर्म में कोई अतिवादिता आनी नहीं चाहिए।
दोनों तरफ से ऊल जलूल धमकियां देने की बातें अगर होती हैं, हिन्दुओं की ओर से बहुत कम होती हैं, हिन्दुओं ने बहुत धैर्य रखा है, हिन्दुओं ने इस एकता के लिए बहुत ज्यादा कीमत भी चुकाई है, देश भी तोड़ दिया है। और फिर भी ऐसे स्वर उठते हैं और उसका विरोध कोई करता नहीं मुसलमानों की ओर से। इसलिए हमारे जैसे लोग बताते रहते हैं भाई सब अपने हैं पर उनके मन में हिन्दू के लिए प्रश्नचिह्न रहता है।
और इसलिए अपने अपने ऐसे अतिवादी लोगों को टोकना चाहिए। हिन्दुओं में टोकते हैं, हम भी कुछ बोल गये तो हमें भी टोकने वाले लोग हैं। हिन्दू समाज किसी प्रकार का अतिवाद मान्य नहीं करता है। इसलिए हिन्दू समाज में सब लोग आए, यहूदी पारसी आदि।
विश्व का हर देश जब भी दिग्भ्रमित हो लडखडाया।
सत्य की पहचान करने इस धरा के पास आया।
भूमि यह हर दलित को पुचकारती। हर पतित को उद्धारती।
यह हिन्दू जीवन की परम्परा है इसको समझकर, हिन्दू भी अपना हिन्दुत्व का आचरण ठीक करे। शक्ति सम्पन्न हो, जीतना नहीं है किसी को पर किसी की और से जीता जाना भी नहीं है। डराना नहीं है किसी को लेकिन किसी से डरने की नौबत भी नहीं आनी चाहिए। ऐसा हिन्दू रहे और एक राष्ट्रजीवन के समृद्ध प्रवाह में सबको शामिल कर ले। हम सबको भाषा प्रान्त पन्थ की सारी विविधताओं को लेकर एक दूसरे से ऐसे दूर करा आपस में लड़ाना, और उन झगड़ों की आग पर अपने स्वार्थ की रोटी को सेकने का उद्योग करने वाले अभी भी कार्यरत हैं। दुनिया में भी हैं और देश में भी हैं। उनके चंगुल में किसी प्रकार के समझदार लोगन को नहीं फंसना चाहिए। लम्बा चलना पड़ेगा, कठिन रास्ता है, उबड़ खाबड़ रास्ता है, लेकिन इसमें से जाना पड़ेगा, हम लोग भारत माता की जय करना चाहते, हम लोग अपनत्व भाईचारे में विश्वास रखते हैं, हम भारत को विश्वगुरु बनाना चाहते हैं तो हमें इस व्रत को आगे लेकर बढना होगा। सम्पन्न, सामर्थ्य, संगठित हिन्दू समाज अपने हिन्दुत्व की सच्ची प्रवृत्ति के आधार पर देश में क्या सारी दुनिया के क्लेश बंद करके एक सुखी सुंदर दुनिया बनाने की क्षमता रखता है।
– श्री मोहन भागवत
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इस 2 मिनट के वीडियो में उन्होंने जो कहा है, उनके सभी भाषणों में इसी तथ्य को बढ़ाकर नए नए शब्दों में वो कहते हैं। मैंने उनके जितने भी भाषण सुने हैं उसमें से कुछ भी निम्न विडीओ के कथ्य से इधर उधर नहीं है जिसमें कल का भाषण भी शामिल है। संघ नरसिंहानन्द जी जैसे अनावश्यक भड़काऊ भाषण करने में विश्वास नहीं रखता जिसके बाद जेल जाकर कहना पड़े अब मैं सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेता हूँ केवल निजी सामाजिक कार्य करूँगा। जाकिर नाइक भी खुद कभी कट्टर शब्दों का प्रयोग नहीं करता था हमेशा इस्लाम को शांति प्यार भाईचारे का मजहब कहता था, चर्च भी यही करता है, सिखों का भी यही प्रोपेगेंडा है, बौद्ध भी शांति अहिंसा की USP लेकर महिमामण्डित हैं। जबकि इन सबका कार्य ठीक उसके विपरीत है। संघ 1925 से ही जानता है कि क्या करना है। आंदोलन से नहीं तप से धर्मयुद्ध जीता जाता है। आंदोलन किसके विरुद्ध? केन्द्र या यूपी की सरकार के विरुद्ध। वहाँ अपनी ही सरकार है। संघ की प्रकृति संगठन है विरोध नहीं। अब जो कार्य होगा वह सब स्वतः स्वचालित अपने आप होगा जैसे देवरहा बाबा ने कहा था। इस उद्बोधन में भी कोर्ट से कराने का मैसेज साफ है। फिर किसके खिलाफ रोष है।
भागवत जी की चन्द्रकुण्डली के द्वितीय भाव में बैठा केतु उन्हें वाणी के कारण अप्रसिद्धि दे रहा है, इसी कारण यह बोलते कुछ हैं अर्थ कुछ और ही लगा लिया जाता है। इनके भाषण से विवाद के और भी कारण हैं :-
1. बहुत लंबे वाक्य बोलना जिससे तारतम्यता का टूट जाना।
2. Helping verbs का समुचित उपयोग न होना जिससे संशय रहना व दो वाक्य मिल जाना।
3. मराठी प्रभाव की हिन्दी बोलना।
4. मूल बात से हटकर अचानक दूसरी पर चला जाना व बाद में वापिस मूल बात पर आना जिससे सन्दर्भ का टूट जाना।