राजभाषा के लिए जिन्हें जेल और लाठियाँ मिलीं : श्याम रुद्र पाठक

राजभाषा के लिए जिन्हें जेल और लाठियाँ मिलीं : श्याम रुद्र पाठक

हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है-14
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हिन्दी के प्रचार- प्रसार के नाम पर हिन्दी के तथाकथित विद्वानों को प्रतिवर्ष सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान दिए जाते हैं। किन्तु इन हिन्दी सेवियों से अलग एक ऐसा व्यक्ति भी देश में मौजूद है जिसने अपनी शानदार शैक्षिक योग्यता के बावजूद सुख और समृद्धि का नहीं, अपितु हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष का रास्ता चुना। जो हिन्दी के लिए लाठियाँ खाता है, अनशन और सत्याग्रह करता है और आजाद भारत में भी हिन्दी के वाजिब अधिकार के लिए जेल जाता है। जिसे कभी कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला। हाँ, लाठियां और जेल की हवा जरूर मिली किन्तु कभी हार नहीं माना। इस योद्धा का नाम है श्यामरुद्र पाठक।

श्यामरुद्र पाठक का जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले के बथनाहा गाँव में 24 अक्टूबर 1962 को हुआ था। उनके पिता एक अध्यापक थे। इनकी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के विद्यालय में ही हुई। 1974 में राँची के समीप प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय में प्रवेश लिया। 1979 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड में रजत पदक के साथ उतीर्ण की।1980 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा (IIT-JEE) में बैठे और पहली कोशिश में ही सफल हुए। आईआईटी दिल्ली में उन्होंने पंचवर्षीय एकीकृत एम. एस. (भौतिकी) पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। 1985 के गेट में 99.89 परसेन्टाईल अकों के साथ उन्होंने सम्पूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया। श्यामरुद्र पाठक ने आईआईटी दिल्ली से ही ऊर्जा अध्ययन में एम. टेक. भी किया।

अपने हिन्दी प्रेम के कारण उन्होंने आईआईटी दिल्ली में बी.टेक. के अन्तिम वर्ष की परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में लिखी। परियोजना रिपोर्ट ( शोध- प्रबंध ) अस्वीकार कर दिया गयी। वे अपनी मांग पर अड़ गए. संस्थान ने भी डिग्री देने से मना कर दिया। मामला संसद में पहुँचा और भगवत झा आजाद ने यह मुद्दा संसद में उठाया तब जाकर कहीं बात बनी और उन्हें अपनी परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में जमा करने की अनुमति मिली।.

इतना ही नहीं, दीक्षान्त समारोह के समय जब श्यामरुद्र पाठक ने देखा कि डिग्री तो केवल अंग्रेजी में दी जाती है तो उन्होंने केवल अंग्रेजी में छपी डिग्री लेने से इनकार कर दिया और घोषित कर दिया कि यदि उन्हे डिग्री अंगेरजी में मिली तो वे उसे डिग्री देने वाले के सामने ही फाड़ देंगे। दीक्षान्त समारोह में मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी थे। प्रशासन ने श्यामरुद्र पाठक को समझाया कि इस वर्ष वे हो जाने दें अगले वर्ष से उपाधि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपेगी। किन्तु श्यामरुद्र पाठक अपने निर्णय पर अडिग थे। अंत मे दीक्षान्त समारोह की तिथि टालनी पड़ी और राजीव गाँधी से दूसरी तिथि लेनी पड़ी। उस वर्ष हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में अलग अलग उपाधि दी गई।

उपाधि पाने के बाद श्यामरुद्र पाठक के सामने देश- विदेश के अनेक बेहतर अवसर उपलब्ध थे। उन्हीं के सहपाठी रहे भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम जी. राजन का उदाहरण सबके सामने है। किन्तु श्यामरुद्र पाठक के जीवन का उद्देश्य पद, प्रतिष्ठा और पैसा कमाना नहीं था। उन्हें तो ‘पूरी आजादी’ पाने के लिए लड़ाई लड़नी थी।

उन दिनों श्यामरुद्र पाठक के जीवन का एक मात्र मिशन था सभी आईआईटी में प्रवेश के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता समाप्त करवाना, जिससे कि सरकार की व्यवस्था के तहत इस परीक्षा का पाठ्यक्रम अलग- अलग भारतीय भाषाओं में 11वीं व 12वीं में पढ़ रहे छात्रों के साथ हो रहा अन्याय समाप्त हो. इस निमित्त आईआईटी दिल्ली के अन्दर अपने दो तीन वर्षों के प्रयासों को फलीभूत न होता हुआ देखकर ही इन्होंने अपना उपर्युक्त शोध प्रबंध हिन्दी में लिखने की ठानी थी जिससे कि या तो अंग्रेजी के दुर्ग से एक ईंट खिसक सके अगर हिन्दी में लिखा उनका शोध प्रबंध स्वीकार हो जाए, नहीं तो विश्व समुदाय के सामने यह प्रदर्शित हो सके कि भारत एक ऐसा अन्यायकारी देश है, जहाँ विदेशी भाषा अंग्रेजी की बेदी पर वहाँ की प्रतिभाओं की बलि चढ़ाई जाती है.

उन्होंने 1986 से 1989 के बीच दो बार आईआईटी दिल्ली से केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक अपने मित्रों के साथ पद-यात्रा की और कई बार उस मंत्रालय के समक्ष धरना और उपवास किया. इन उपवासों में 1988 का पाँच दिन का अनशन और 1989 का साढ़े उन्नीस दिनों का अनशन भी शामिल है. इन प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त प्रवेश परीक्षा में साल 1988 से अंग्रेजी भाषा का प्रश्न- पत्र समाप्त हुआ और साल 1990 से हिन्दी में प्रश्न- पत्र आना शुरू हुआ, और कई अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिखने का विकल्प मिला. अब जब कि परीक्षा में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाते हैं, अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिख पाने के विकल्प का अधिकार अर्थहीन हो गया है. प्रश्न- पत्र अभी भी सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी में दिए जा रहे हैं, जबकि 1989 में कहा गया था कि शुरुआत हिन्दी से की जा रही है और धीरे- धीरे अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रश्न पत्र दिए जाएंगे, अत: अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में श्री पाठक अभी भी ठगा हुआ ही महसूस करते हैं.

इसके बाद श्यामरुद्र पाठक ने भारतीय अदालतों में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने हिन्दी की वास्तविक दशा की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि, “हिंदी वह भाषा है कि केवल इस भाषा को जानकर हिन्दुस्तान में कोई भी व्यक्ति इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट की पढ़ाई नहीं कर सकता, केंद्र सरकार द्वारा संचालित संस्थानों से कानून की पढ़ाई भी हासिल नहीं कर सकता; और कहीं से भी पढ़ाई हासिल करके देश के उच्चतम न्यायालय और 24 में से 20 ( संप्रति 25 में से 21) उच्च न्यायालयों में न तो वकालत कर सकता है और न ही न्यायाधीश बन सकता है, जबकि केवल अंग्रेज़ी भाषा का जानकार इन सभी अवसरों को पा सकता है। केवल हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का जानकार कोई व्यक्ति संघ लोक सेवा आयोग और कर्मचारी चयन आयोग की अधिकांश परीक्षाओं में सफल नहीं हो सकता।“

उच्चतम न्यायालय तथा देश के 24 में से 20 उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं के प्रयोग की माँग को लेकर श्यामरुद्र पाठक ने 4 दिसंबर 2012 से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह आरंभ कर दिया। यह सत्याग्रह 225 दिन तक चला। सत्याग्रह आरंभ करने से पहले उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी, लोकसभा अध्यक्ष, भाजपा अध्यक्ष आदि तीस जनप्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस बाबत अवगत कराया था। उनकी माँग थी कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा संबंधित राज्यों की राजभाषा में बहस हो। इसके लिए वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन चाहते थे।

श्यामरुद्र पाठक को कांग्रेस मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह करने की अनुमति बहुत मुश्किल से मिली थी। कई शर्तों के साथ उन्हें यह अनुमति मिली थी। शर्त के अनुसार वे सुबह 10 बजे कांग्रेस के दफ्तर के बाहर सत्याग्रह पर बैठते थे और शाम को छह बजे पुलिस उन्हें उठाकर तुगलक रोड थाने ले जाती थी। रात भर वे वहीं रहते थे। फिर सुबह वे सत्याग्रह स्थल पर पहुंच जाते थे। किन्तु 16 जुलाई 2012 की शाम लगभग साढ़े पांच बजे धरना के दौरान तुगलक रोड पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया। 24 जुलाई 2012 की रात को श्यामरुद्र पाठक को तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। आज भी वे अपनी उस माँग को लेकर संघर्षरत हैं। वे कहते हैं कि उनका आन्दोलन तबतक जारी रहेगा जबतक भारत के उच्चतम न्यायालय और देश के किसी भी उच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता बनी हुई है।

जब सिविल सेवाओं के अभ्यर्थियों ने 27 जून 2014 से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भारतीय भाषाओँ के साथ किये जा रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रधानमंत्री आवास, 7 रेस कोर्स के बाहर धरना-प्रदर्शन आरंभ किया तो श्यामरुद्र पाठक ने उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। उसके बाद पुन: 6 जुलाई 2014 से राष्ट्रीय अधिकार मंच द्वारा सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम से सीसैट को हटाने और भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव को ख़त्म करने को लेकर किये जा रहे आमरण-अनशन में भी उन्होंने छात्रो का उत्साहवर्धन किया था। इस संबंध में उनपर झूठा आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया गया था।

श्री पाठक कहते हैं कि भारतीयों को अभी पूर्ण आजादी नहीं मिली है। जब तक लोगों को उनकी मातृभाषा में काम करने और पढ़ने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक यह कैसे कहा जा सकता है कि लोगों को आजादी मिल गई है? वे केवल सत्याग्रहोँ और अनशनों द्वारा ही नहीँ बल्कि लेखोँ द्वारा भी अपने हिंदी-प्रेम एवं तथाकथित अधूरी आज़ादी को संपूर्ण आज़ादी मेँ बदलने के लिए अनवरत प्रयास रत रहते हैँ।

चाहे कितना भी विरोध हो, अपने विचारोँ को व्यक्त करने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। कभी कभी उनके भीतर का आक्रोश आपत्तिजनक वाक्यों के रूप में भी फूट पड़ता है जैसे आतंकवादियोँ को सलाम करना, राष्ट्रीय ध्वज पर थूकने की चाहत व्यक्त करना, सारे जहाँ से घटिया हिन्दोस्ताँ हमारा का गान करना इत्यादि। श्यामरुद्र पाठक के ऐसे वक्तव्यों पर प्राय: प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिलती हैं। मुझे लगता है कि अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद वे व्यापक समाज को लामबंद नहीं कर पाते और जनहित के इस कार्य में जनसमर्थन न पाने के कारण उनका स्वभाव भी कठोर होता जाता है।

श्यामरुद्र पाठक ने 19 मई 2017 को फेसबुक पर लिखा, “ मैं उस भारत देश के प्रति देश –द्रोही हूं जहां के उच्चतम न्यायालय में और 25 में से 21 उच्च न्यायालयों में जनता को देश की किसी भी भाषा में बोलना वर्जित है। जहां प्राथमिक कक्षा से ही अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह की शिक्षा व्यवस्था है। जहां अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह के चिकित्सालय हैं। जहां आम जनता को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया तो जाता है भारतीय भाषाओं में, लेकिन उच्च शिक्षा में प्रवेश और नौकरियों में नियुक्ति के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता है। जहां शराब द्वारा जनता की हो रही बहुआयामी बर्बादी के बावजूद सरकार शराब का व्यापार करवाना अपनी आमदनी का जरिया मानती है।.”

वर्तमान मोदी सरकार अपने को राष्ट्रवादी और हिन्दी का पोषक कहती है किन्तु श्यामरुद्र पाठक का अनुभव कुछ और ही है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा कि, “मैंने राजीव गांधी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था।

मैंने पी. वी. नरसिंहा राव के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने मनमोहन सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने नरेन्द्र मोदी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था और बाद में खुद भी अलग से सत्याग्रह किया।”

शीर्ष अदालतों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने 3 मई 2017 से प्रधान मंत्री के कार्यालय के सामने धरना देना शुरू किया जिसे सरकार ने ज्यादा दिन तक चलने नहीं दिया। पुलिस उन्हें बलपूर्वक उठा ले गई। इस सत्याग्रह को आरंभ करने के पहले श्यामरुद्र पाठक ने प्रधान मंत्री को जो पत्र लिखा था उसे देखना किसी भी सचेत भारतीय नागरिक के लिए जरूरी है। पत्र लम्बा है इसलिए उसका संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है-

“विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के सत्तर वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय और देश के 25 में से 21 उच्च न्यायालयों की किसी भी कार्यवाही में भारत की किसी भी भाषा का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है।

14 फरवरी, 1950 को राजस्थान के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। तत्पश्चात् 1970 में उत्तर प्रदेश, 1971 में मध्य प्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। इन चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अंग्रेजी अनिवार्य है।

सन् 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यवस्था के तहत उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत करने की माँग केन्द्र सरकार से की। सन् 2010 एवं 2012 में तमिलनाडु एवम् गुजरात सरकारों ने अपने उच्च न्यायालयों में तमिल एवम् गुजराती का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए केंद्र सरकार से माँग की। परन्तु इन तीनों मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों की माँग ठुकरा दी।

सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए और प्रत्येक उच्च न्यायालय में कम-से-कम एक-एक भारतीय भाषा का दर्जा अंग्रेज़ी के समकक्ष दिलवाने हेतु संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है।

इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए।

ध्यातव्य है कि भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित सभी बाईस भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो तत्क्षण-अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में एकाधिक भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो परन्तु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता को खुल्लमखुल्ला शोषित करते रहने की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में स्वयं बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष बीस उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सत्तानबे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया गया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं।

सत्तानबे प्रतिशत जनता में से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे या उन पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उन्हें अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक का अधिकार है। अगर कोई वकील रखता है तो भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमे के बारे में महत्‍वपूर्ण तथ्यों को सही ढंग से रख रहा है या नहीं।

निचली अदालतों एवम् जिला अदालतों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। अतः उच्च न्यायालयों में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबद्ध निर्णय एवम् अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है।

प्रस्तावित कानूनी परिवर्तन इस बात की संभावना भी बढ़ाएगा कि जो वकील किसी मुकदमे में जिला न्यायालय में काम करता है, वही वकील उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में भी काम कर सके। इससे वादी-प्रतिवादी के ऊपर मुकदमे से सम्बंधित खर्च घटेगा।

यह कहना कि केवल हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति होगी, अहिंदी भाषी प्रांतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है। परन्तु अगर यह तर्क भी है तो भी छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड एवं झारखंड के उच्च न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग की अनुमति क्यों नहीं है ? ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़, उत्तराखंड एवम् झारखंड के निवासियों को इन राज्यों के बनने के पूर्व अपने-अपने उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग करने की अनुमति थी।

अगर चार उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं ? क्या यह उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं है ? क्या यह अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता’ और अनुच्छेद 15 द्वारा प्रदत्त ‘जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध’ के मौलिक अधिकारों का उलंघन नहीं है ? और इस आधार पर छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और गुजरात सरकार के आग्रहों को ठुकराकर क्या केन्द्र सरकार ने देश-द्रोह एवम् भारतीय संविधान की अवमानना का कार्य नहीं किया था ?

उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने एवं न्यायाधीश बनने के अवसरों में भी तीन प्रतिशत अंग्रेजीदां आभिजात्य वर्ग का पूर्ण आरक्षण है, जो कि ‘अवसर की समता’ दिलाने के संविधान की प्रस्तावना एवं संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की हमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। प्रस्तावित संशोधन से अनुवाद में लगने वाले समय और धन की बचत होगी तथा वकीलों को रखने के लिए होने वाले खर्च में भी भारी कमी होगी। अनुच्छेद 348 का वर्तमान स्वरूप शासक वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करते रहने की दुष्ट भावना का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी को निष्प्रभावी बना रहा है।

कहने के लिए भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परन्तु जहाँ जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहाँ प्रजातंत्र कैसा ? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र अपनी जन-भाषा में काम करके ही उल्लेखनीय उन्नति कर सकता है। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है, जहाँ का बेईमान आभिजात्य वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और इसके द्वारा विकास के अवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है।“

श्यामरुद्र पाठक के सहपाठी जहाँ देश- विदेश में शीर्ष पदों पर बैठकर करोड़ों में खेल रहे हैं वहाँ श्यामरुद्र पाठक गाँधी की तरह अहिंसात्मक तरीके से जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं।

हम हिन्दी के असली योद्धा श्यामरुद्र पाठक को जन्मदिन की बधाई देते हैं और उन्हें जनहित के अपने उद्देश्य की सफलता की कामना करते हैं। ?

– प्रो. अमरनाथ शर्मा
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष,
कोलकाता विश्वविद्यालय।

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