- March 16, 2016
स्मार्ट सिटीज: गलत चयन पद्धति के गलत नतीजे : – हरिप्रकाश ‘विसंत’
मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी स्मार्ट सिटीज योजना के तहत शहरों के चयन के लिए सरकार ने बड़ी शेखी बघारते हुए ‘स्पर्धा आधारित चयन पद्धति’ की घोषणा की | यह मानते हुए कि यह एक बड़ा स्मार्ट और अच्छे परिणाम देने वाला कोई समझदारी वाला तरीका है | जबकि वास्तव में बात इसकी उलट ही थी कि यह तरीका असंगत व उद्देश्यों के विपरीत होने से सरासर गलत था |
मैंने तो इस प्रक्रिया की शुरुआत में ही लिखा था कि इस मामले में यह सरासर तुगलकी तरीका हैं | अब इस तरीके के नतीजे 98 शहरों के नामों के रूप में और पहली किश्त में 20 शहरों के अंतिम चयन के रूप में आ चुके हैं | इन परिणामो को ध्यान से देखें तो ऐसा ही साबित भी हुआ |
यह तरीका गलत क्यों है ? इस बात को समझने के लिए, सबसे पहले तो यह ध्यान देना होगा कि इस योजना के कौनसे उद्देश्य बताये गए थे और उनमें से असल में वाजिब उद्देश्य क्या थे? केवल उन्ही उद्देश्यों को ध्यान में रखकर देखना होगा कि क्या इन शहरों का चयन इन उद्देश्यों के अनुसार हुआ हैं ? यह बात सही ढंग से समझेंगे तो हम पायेंगे कि कई ऐसे शहर छूट गए हैं, जो इस सूची में होना चाहिए थे और कई को पहली किश्त में ही होना चाहिए था | जबकि, कई ऐसे शहर चुन लिए गए हैं जो कि योजना के वाजिब उद्देश्यों कि दृष्टि से चयन के हक़दार नहीं थे | गलत तरीके के गलत नतीजे ही तो आना थे |
इस योजना की शुरुआत में शहरी विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर एक कंसेप्ट पेपर डाला गया था | जो कि फिर कई बार सुधरते हुए अब इस योजना की गाइडलाइन बन चुका है | इनमें वैसे तो योजना के कई उद्देश्य व कई लाभ बताये गए हैं; परन्तु वास्तव में गहराई से देखें व समग्र चिंतन करें तो पायेंगे कि इनमें से केवल दो ही उद्देश्य वाजिब हैं और इतने मजबूत आधारों पर टिके हैं कि इस योजना की हर प्रकार की आलोचना का सामना करते हुए भी इस योजना को अपनाने योग्य एवं श्रेष्ठ योजना साबित करने के लिए ये दो ही काफी हैं |
शेष गिनाये गए उद्देश्य या तो विवादस्पद है या यदि उनको ध्यान में रखकर देखें तो कई अन्य कदमों या योजनाओं को अधिक प्राथमिकता देनी होगी | अर्थात, उन अन्य उद्देश्यों के लिहाज से तो इस योजना का औचित्य ही सिद्ध नहीं होगा | इस सम्बन्ध में पूरा विश्लेषण यहाँ लिखा जाये तो एक पुस्तिका बन जायेगी; इसलिये फ़िलहाल योजना को नकारने वाले उन उद्देश्यों को छोड़कर योजना को सही कदम साबित करने वाले इन दो वास्तव में ठोस व वाजिब उद्देश्यों का ही यहाँ उल्लेख करना काफी होगा |
1) देश के विकास को गति देने के लिए देशी एवं विदेशी पूंजी निवेश बहुत आवश्यक है और उसके लिये, देश में कई शहरों में आधुनिकतम संसाधन/ सुविधाये, स्मार्ट प्रशासन व स्मार्ट प्रक्रियाएं होना भी जरुरी है | प्रतिस्पर्धी देशों की तरह हमारे पास भी स्मार्ट शहरों के होने से ‘देश में व देश के प्रति’ सकारात्मक माहौल बनेगा और हममें भी विकसित देशों की बराबरी करने का उत्साह आयेगा | इसके साथ ही, इतने शहरों के स्मार्ट बनने से पर्यटन को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिससे भी देश समृद्ध बनेगा | इस तरह ये 100 शहर देश के विकास में ग्रोथ इंजिन्स की भूमिका निभायेंगे |
2) इन शहरों के देश के विभिन्न राज्यों में यानि सभी दिशाओं में फैले होने से उनके आसपास के क्षेत्र सहित पुरे प्रदेश के विकास को गति मिलेगी | इसलिए सोचा गया था कि विकास के सन्दर्भ में राज्यों के बीच जो असंतुलन है उसे शहरों के सही चयन के द्वारा कम किया जा सकेगा (परन्तु, अब गलत चयन के कारण, कहना पड़ रहा है कि “किया जा सकता था”) |
केंद्र सरकार ने कंसेप्ट पेपर व गाइडलाइन में इन उद्देश्यों का भी प्रकारांतर से उल्लेख तो किया है, किन्तु विचारों में स्पष्टता नहीं है | योजना के क्रियान्वयन में तो लगता है इन्हें भुला ही दिया गया और इस अच्छी योजना को ‘सस्ती लोकप्रियता वाली स्पर्धा की लटकेबाजी’ में उलझा दिया गया | यदि यह स्पर्धा वास्तव में संभावित दावेदार शहरों के बीच होती तो निश्चित ही सही होती | लेकिन स्पर्धा को ‘दावेदार शहरों के बीच की स्पर्धा’ तो तभी कहा जा सकता था जबकि वह उन शहरों की विशेषताओ व गुण-दोषों के आधार पर होती |
असल में या स्पर्धा तो उनकी स्वशाशन संस्थाओं (नगर निगमों) के आयुक्तों की कप्तानी में ठेके से जोड़े गये तकनिकी सलाहकारों की टीमों के बीच हुई | यह तो ऐसा ही हुआ जैसे किसी कॉलेज में कोई नए आकर्षक कोर्स में प्रवेश के लिए छात्रों की प्रतिभा को नहीं बल्कि उनके पालकों की कार्यक्षमता को आधार बनाया जाये | जिसमें यह भुला ही दिया जाए कि ‘नया कोर्स किस प्रकार के छात्रों के लिए अनुकूल व उपयोगी होगा?’ |
इसी रूपक को शहरों के चयन के सन्दर्भ में देखे | “विभिन्न राज्यों के कौनसे शहर अधिक अच्छे ग्रोथ इंजिन्स बन सकते है ?” इस निर्णय में स्पर्धा का क्या काम है ? यह तो विभिन्न शहरों की आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का मूल्यांकन करके ही तय होना चाहिए ना ? यानि, इस स्पर्धा के तरीके का योजना के उक्त वाजिब उद्देश्यों से कोई मेल नहीं है, तो क्यों नहीं उसे ‘तुगलकी’ ही कहा जाये |
इतना ही नहीं, स्पर्धा की इस पूरी प्रक्रिया को ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि गड़बड़ी इससे भी अधिक है |”100 शहरों का चयन स्पर्धा के आधार पर हुआ” यह कहना ही गलत है; शहरों के नाम तय हो जाने तक तो ‘किसी के बीच भी कोई स्पर्धा’ हुई ही नहीं है, अफसरों व तकनीशियनों के बीच की स्पर्धा से केवल यह तय हो रहा है कि “किस चयनित शहर को योजना की किस किश्त में लाभ मिलेगा?” |
आइये इस चयन प्रक्रिया को पूरा समझकर गड़बड़ियों को भी समझें | चयन प्रक्रिया के तीन चरण रहे | पहले चरण में तो राज्यवार शहरों की संख्या का कोटा तय कर लिया गया | इस बहुत महत्वपूर्ण चरण में कोई स्पर्धा का तरीका इस्तेमाल नहीं हुआ (होना भी नहीं चाहिए था) | इसीलिए स्पर्धा को दो चरणो का बताया गया | कोटा वितरण के लिए अजीब-सा फार्मूला बनाया गया | वेबसाइट पर बताया गया है कि इसके लिए प्रत्येक राज्य की कुल शहरी आबादी और राज्य में स्थित शहरों की कुल संख्या को बराबरी का महत्व दिया गया है |
‘अमृत योजना’ के लिए भी यही फार्मूला अपनाया गया है | अब बताइये कि इन दोनों आंकड़ों का उपरोक्त वाजिब उद्देश्यों से कोई सीधा सम्बन्ध है क्या ? किसी राज्य में ज्यादा शहरी आबादी है और ज्यादा शहर है; तो इससे केवल यही साबित होता है कि उस राज्य में अधिक शहरीकरण हो चुका है | यदि इस फार्मूले का कुछ औचित्य है भी तो इसे तो उलटकर अपनाना चाहिए था; यानि जिन राज्यों में कम शहरीकरण हुआ है उन्हें ज्यादा स्मार्ट व ज्यादा ‘अमृत’ के शहर मिलना चाहिए थे | लेकिन स्पष्ट रूप से बताये बिना अधिक शहरीकरण वाले राज्यों को ही इन ‘बेहतर शहरीकरण’ की दोनों योजनाओं का अधिक लाभ दिया गया |
इसीके चलते अगड़े राज्यों महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं गुजरात को उनकी आबादी के सापेक्ष में अधिक शहरों का कोटा मिल गया जबकि पिछड़े और विकास के लिए अधिक तसरने वाले राज्यों, जैसे बिहार, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल को अपेक्षाकृत कम संख्या का कोटा मिला | नए बने पिछड़े राज्यों जैसे झारखण्ड, उत्तराखंड व छत्तीसगढ़ के साथ भी बहुत अन्याय हुआ |
करीब 20 करोड़ की जनसंख्या वाले यूपी को सबसे अधिक 13 शहरों का कोटा मिला; उसे 14 मिलते तो भी ठीक होता | परन्तु, जहाँ सवा सात करोड़ की जनसंख्या वाले तमिलनाडु को 12 और 6 करोड़ की जनसंख्या वाले गुजरात को 6 शहरों के कोटे का तोहफा दे दिया गया; वहींं 11 करोड़ की आबादी वाले बिहार को मात्र 3 एवं सवा नौ करोड़ आबादी वाले पश्चिम बंगाल को केवल 4 ही स्मार्ट शहर मिलें |
झारखण्ड व उत्तराखंड को मात्र 1-1 व छत्तीसगढ़ व उड़ीसा को मात्र 2-2 शहरो का ही कोटा मिला | यानि पिछड़े राज्यों को जहाँ अधिक स्थान मिलना चाहिए थे, उन्हें उल्टा उनके हक़ से भी कम मिले, फिर भी इन राज्यों की सभी पार्टियां व सभी नेता बिलकुल चुप रहे | क्या सभी विकास के बजाय भावनात्मक मुद्दो की ही तलाश में रहते हैं ?
इससे भी अधिक अजीब बात यह है कि इन 98 शहरों कि सूची में बंगलुरु, कोलकाता, हावड़ा, श्रीनगर, पटना, धनबाद, शिमला, त्रिवेन्द्रम, विजयवाड़ा, गया, ईटानगर व गंगटोक जैसे शहर भी शामिल नहीं है; इसके बावजूद कि कंसेप्ट पेपर में कहा गया था कि सभी राज्यों की राजधानियाँ तो अवश्य ही इस योजना में शामिल होंगी | जबकि कई अल्प-संभावनाओं वाले शहरों जैसे डिंडीगुल, तिरुनेलवेली, तंजावुर, नामची, ओल्गारेट, रामपुर और दाहोद को चुन लिया गया | समझ में नहीं आता कि इतनी अजीब सूची पर किसी ने अबतक सवाल भी क्यों नहीं किया ? क्या इस मामले में स्पर्धा की जो ड्रामेबाजी रची गई, उससे सभी भ्रमित हो गए हैं |
आगे भी देखिये, इस कथित स्पर्धा के अगले चरण में क्या हुआ ? कोटे की संख्या मिलने के बाद अब राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई हाई पॉवर्ड स्क्रीनिंग कमिटी (HPSC) ने शहरों में अब तक कुछ खास मामलो में हुए कामों व वर्तमान स्थितियों सम्बन्धी कुछ बिन्दुओ पर संभावित शहरों का मूल्यांकन करके शहरों का चयन कर लिया | अर्थात कथित स्पर्धा के इस चरण में भी शहरों में विकास, रोजगार, निवेश, पर्यटन आदि की सम्भावनाओ को कोई महत्त्व नहीं मिला |
असंगत आधारो पर व पारदर्शिता के बिना, अपने-अपने ढंग से सब राज्यों ने अपने चुने हुए शहरों के नाम भेज दिए और असल में 98 शहरों का चयन तो यही पूरा हो गया | अब अगले अंतिम चरण में जो स्पर्धा हो रही है वह केवल यह तय करने के लिए है कि स्मार्ट सिटी बनने की कतार में आगे कौन लगेगा ? किन्तु इस गौण महत्त्व के निर्णय के लिए सबसे अधिक ताम-झाम और पैंतरेबाजी दिख रही है | लोगों की सहभागिता का दिखावा तो बहुत हद तक प्रायोजित कार्यक्रम ही है |
कुल मिलाकर, दोनो ही चरणो के जो पैमाने तय किये गए हैं, वे अधिकांशतः ऐसे हैं, जिनसे उन शहरो के अब तक के निगमों के प्रशाशको, नेताओं व तकनिकी सलाहकारों की कार्यक्षमताओं या स्मार्टनेस को नापा जा रहा है | इसे किस तरह शहरों के बीच की स्पर्धा माना जाये | उदहारण पेश है, “किसी शहर में 20 दिसंबर 2015 तक कितने शौचालय बन चुके थे ? यह शहर को नंबर देने का एक बड़ा आधार है | क्या इस बात से शहर में विकास की सम्भावनाओ को समझा जा सकता है ?
यह भी बहुत संदेहास्पद है कि कथित हाई पॉवर्ड स्क्रीनिंग कमिटी ने एक जैसे मापदंडो या सामान दृष्टिकोणों से शहरों का चयन किया है | यदि ऐसा होता तो, जब अधिकांश राज्यों ने अपनी राजधानियों को चुना है (जिन्हे चुनना ही चाहिए था), तो फिर, बिहार, बंगाल, कर्नाटक व केरल ने अपनी राजधानियों को ही क्यों छोड़ दिया ? इस प्रकार तो पटना, कोलकाता, बैंगलोर व त्रिवेंद्रम जैसे शहर भी छूट गये, जो कि पहले ही ग्रोथ इंजिन्स के रूप में अपनी सार्थकता सिद्ध कर चुके हैं |
यदि ये स्मार्ट बनते तो अपनी यह भूमिका और भी अच्छी तरह निभाते | यदि पहले ही बड़े या सघन बन चुके शहरों को स्मार्ट नहीं बनाने का सोच ठीक होता, तो यह सोच अन्य सभी बड़े शहरों पर भी लागु होना चाहिए था | परन्तु जब सही सोच यह है कि, बड़े बन चुके शहरों को भी ‘रि-डेवलपमेंट व रेट्रोफिटिंग’ के जरिये पुरानी बसाहट सहित स्मार्ट बनाना है; तो विकास में योगदान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण, इन शहरों को क्यों छोड़ा गया ?
अब बहु-प्रचारित तीसरे चरण की बात लें, जिसमें 98 में से 20 शहर पहली किश्त में स्मार्ट बनाने के लिए चुने गये | यहाँ भी, यदि विकास की गति बढ़ाने के लिए, अधिक सशक्त ग्रोथ इंजिन्स बनाने की दृष्टि होती तो क्या ये शहर पहले हक़दार बनते ? पहली किश्त में तो देश की राजधानी- दिल्ली, मुख्य बंदरगाह शहर (पोर्ट सिटीज जैसे- कांडला, विशाखापत्तनम, पारादीप, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, मंगलोर व कोचीन), मुख्य पर्यटन स्थल (आगरा, गोवा+मार्मुगोवा, श्रीनगर व बोधगया) तथा आई.टी. के बड़े केंद्र (बैंगलोर, हैदराबाद व पुणे) को ही अधिक स्मार्ट बनाना उपयोगी होता | इनमें से जो 1 करोड़ की आबादी के करीब या उससे अधिक बड़े महानगर हो चुके है उनके साथ-साथ उनके आसपास एक या दो शहरों को सेटलाइट सिटी के नाते चुनकर, उन्हें भी स्मार्ट बनाना बहुत अच्छा होता |
जिस तरह किसी आम मध्यमवर्गीय परिवार के किचन में बर्तन व बैडरूम में बिस्तर भले ही कम हो पर वह मेहमानों के लिए बैठक के कमरे को जरूर सबसे पहले, यथासंभव सजाकर रखता है; उसी तरह हमें भी अपनी पोर्ट सिटीज सहित ऊपर जिन शहरों के नाम लिखे गए है उन्हें तो इस योजना में बगैर अधिक वाद-विवाद या सोच-विचार के पहली ही किश्त में स्मार्ट बनाने के लिए चुन लेना चाहिए था | लेकिन,इस अंतिम चरण में जब प्रथम किश्त के 20 शहरों को चुना गया तो ज्यादातर चयन गलत हुए, क्योंकि असली वाजिब उद्देश्यों को भुलाकर ये शहर स्पर्धा की नाटकबाजी से चुने गए |
यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरुरी लगता है कि, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि इस चयन प्रक्रिया से पूरी सूची ही गलत बनी है | बल्कि मैं मानता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक-भौगोलिक आदि मूल्यांकन के आधार पर, यानि सही तरीके से भी यदि शहरों का चयन होता तो लगभग 80 नाम तो ये ही रहते; केवल करीब 20-22 नाम ही बदलते | परन्तु, उससे पूरी सरकारी मशीनरी व जनता का भी दृष्टिकोण इस योजना के प्रति सही और साफ़ होता और तब यह योजना सबको पुरे देश के हित की व समृद्धि की यानि सभी के विकास में सहायक योजना लगती तथा इससे इसका क्रियान्वयन भी बहुत बेहतर होता |
इन गलतियों के बावजूद, यह समझना अब भी जरुरी है कि “विकास की संभावनाओं एवं क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने के सार्थक उद्देश्यों को ध्यान में रखने का नजरिया आगे भी, इस योजना को देश के संतुलित विकास में (अभी की तुलना में) बहुत अधिक उपयोगी बना सकता है” | इसलिए सरकार अब भी अपने नजरिये को सुधार ले तो बहुत अच्छा होगा |
संपर्क — लेखक, चिंतक, ब्लॉगर