• February 9, 2016

हमारा संघर्ष है अपने आप से – डॉ. दीपक आचार्य

हमारा संघर्ष है  अपने आप से  – डॉ. दीपक आचार्य

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सृष्टि में संघर्ष हर क्षण होता रहता है। यह किसी को अपने हित में लगता है किसी को अपने लिए बुरा। संघर्ष की यही परिणति होती है। उसका एक पलड़ा किसी के लिए हितकारी होता है और दूसरा किसी  के लिए नुकसानदेह।

पर प्रकृति अपनी जगह समत्व बनाए हुए होती है। उसे इस बात से कोई फरक नहीं पड़ता कि कौन दुःखी हो रहा है और कौन सुख  प्राप्त कर रहा है। वह अपने काम यों ही करती रहती है।

संसार में सर्वाधिक संघर्ष या तो विचारधारा को लेकर होता है अथवा साम्राज्यवाद को लेकर। दोनों ही में अपने आप को स्थापित करने के लिए बहुत कुछ किया जाता है और जो कुछ होता है उसका संबंध दोनों पक्षों को प्रभावित करता ही है।

एक जमाना था जब सत और असत में संघर्ष होता था, बुराई और अच्छाई में मुकाबला होता था और न्याय एवं अन्याय,धर्म और अधर्म में संघर्ष होता था और इसी वजह से उन लोगों का सीधा धु्रवीकरण हो जाता था जो किसी न किसी पक्ष से जुड़े होते थे।

दोनों धु्रवों पर समूहों का जमावड़ा होता था जो अपनी बात मनवाने या अपना आधिपत्य जमाने के लिए हर दम संघर्षशील रहता था। कभी किसी का पलड़ा भारी रहता तो कभी किसी दूसरे का।

संतुलन और असंतुलन का यह दौर हमेशा बना रहा करता था और इस स्थिति में कभी स्थिरता रहती, कभी अस्थिरता का माहौल बना रहता। पर यह सब उस दौर की बातें थीं जहां सिद्धान्तों, मूल्यों और विचारधाराओं या अपने अभियान तथा लक्ष्यों के प्रति लोग समर्पित हुआ करते थे।

अब ध्रुवीकरण तो है लेकिन अच्छाई और बुराई का समर्थन करने वाले लोगों के बीच इतना अधिक असंतुलन पैदा हो गया है कि बहुत कम लोग ही एक धड़े में बचे रह गए हैं जो सिद्धान्तों पर रहकर स्वाभिमान के साथ जीते हैं लेकिन उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है।

फिर इसी धड़े में वे लोग भी हैं जो विषम परिस्थितियों में अपने आपको कछुवा बनाए हुए चुपचाप हैं। इन्हें तटस्थ या विवश कुछ भी कहा जा सकता है।  इन हालातों में कटु यथार्थ यह है कि अब कुछ नगण्य लोगों को छोड़कर सभी का संघर्ष न विचारधारा से है, न सिद्धान्तों से।

 अब जो भी संघर्ष है वह अंधेरों का अंधेरों से हैं, रोशनी के लिए न कोई स्थान बचा है, न कोई चाहता है कि रोशनी उसके आँगन में झाँकें। रोशनी के कतरों के आने के तमाम रास्तों पर हमने पहरे बिठा दिए हैं।

इस हिसाब से एक तरफ के तट पर ही भारी भीड़ जमा है और लगता है कि रोजाना कुंभ उमड़ा हुआ है। इस एकतरफा माहौल का ही परिणाम है हम अपने आप से उलझे हुए हैं, अपने ही लोगों से संघर्ष कर रहे हैं।

 हर वस्तु, संसाधन और सम्पदा को पाने के लिए हम सारी मर्यादाओं, संस्कारों और सीमाओं को तिलांजलि देकर पूरी तरह फ्री स्टाईल अपनाए हुए हैं। कोई दलाल बना हुआ मुनाफा खा रहा है, कोई सैटिंग में मस्त है, कोई इश्क की बदचलन हवाओं का शिकार है,  कोई छीना-झपटी की संस्कृति को अंगीकार कर चुका है और कोई अपनी पूरी की पूरी मानवता, लाज और शरम को छोड़ कर अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए भिड़ा हुआ है।

हर तरफ संघर्ष ही संघर्ष का दौर है जिसमें हमारे लिए हर आदमी अपने स्वार्थ पूरे करने का माध्यम  है। कोई दुकान है,कोई कियोस्क और कोई मण्डी वाला।  खरीदने वाले भी हैं और बिकने वाले भी।

जो जिसे भरमा कर कीमत लगा लेता है वह उसका अपना हो जाता है। जो किसी को भड़का कर कीमत बढ़वा देता है वह दूसरों के पाले में चला जाता है।

कुल मिलाकर सब तरफ संघर्ष अपने आप से ही है। इन सारे गोरखधंधों के बावजूद हमारी आत्मा कभी हमारे कर्मों, व्यवहार,चरित्र, स्वभाव और व्यवहार को स्वीकार नहीं कर पाती, विरोधी बनी रहती है और अपनी विवशता सदैव व्यक्त करती रहती है।

मस्तिष्क व शरीर की आत्मा से दूरियां अधिक बढ़ती जा रही हैं। कोई सा कर्म हो, हम अपने स्वाथोर्ं में मर्यादाहीनता,स्व्च्छन्दता और उन्मुक्तता को महत्व देते हैं, आत्मा इसे स्वीकार नहीं करती।

यही कारण है कि हमारा संघर्ष अब दूसरे पक्ष से नहीं बल्कि एक तो हमारी आत्मा से है और दूसरा उन लोगों से है जो हमारी ही तरह के हैं। मौजूदा युग का यही यथार्थ है जहां हमें संघर्ष की शुरूआत खुद को ही करनी है और खुद से  ही लड़ना है।  और साक्षी भी या तो हम खुद हैं अथवा हमारे अपने जैसे लोग।

एकतरफा विचारधारा होते हुए भी अब पारस्परिक संघर्ष हमारे खेमे वालों से ही है, किसी और से नहीं। और जब संघर्ष अपने ही खेमों में अपने ही लोगों से होता है, अपने ही लोगों के हितों पर प्रहार करता है, स्वजनों व अपने ही समाज और देशवासियों के साथ कुटिलताका भाव अपनाता है तब साफ-साफ मान लेना चाहिए कि धरती अपने बोझ को कम करने के लिए अब तैयारी कर चुकी है। सावधान रहें।

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