- April 8, 2016
सार्क बैठक : श्री राधा मोहन सिंह
पेसूका —–(कृषि मंत्रालय )————— “मैं, सार्क देशों के कृषि मंत्रियों की तीसरी बैठक के अवसर पर भारत सरकार और अपने देशवासियों की ओर से आप सभी का हार्दिक अभिनंदन करता हूं और इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिए बांग्लादेश सरकार का आभार व्यक्त करता हूं। सार्क देशों के कृषि मंत्रियों की उपस्थिति कृषि को आर्थिक एवं सामाजिक विकास का एक प्रमुख चालक बनाए जाने की दिशा में सार्क देशों की सरकारों की रूचि और मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति को दर्शाती है।
संदर्भ
दक्षिण एशिया में विश्व के मात्र 3.95 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर विश्व के लगभग 1.5 बिलियन लोग अर्थात 23.7 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। जमीन पर अधिक जनसंख्या दबाव होने के कारण कुल क्षेत्रफल में कृषि योग्य भूमि का अनुपात वैश्विक औसत से बहुत ज्यादा है। विश्व भर के कृषि क्षेत्रफल का 14 प्रतिशत हिस्सा सार्क देशों में आता है।
विश्व में खाद्य सुरक्षा की स्थिति पर विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट-2015 के अनुसार हालांकि वैश्विक रूप से भूख के मामलों में लगातार कमी आने के बावजूद कुल 795 मिलियन जनसंख्या अथवा 9 में से 1 व्यक्ति विश्वमें अभी भी अल्प-पोषित बना हुआ है। इस क्षेत्र के साथ तुलना करते हुए यह बताया गया है कि दक्षिण एशिया में भूख का अनुपात सबसे अधिक है जहां लगभग 281 मिलियन जनसंख्या के अल्प-पोषित होने का अनुमान है।
इस क्षेत्र में अधिकांश खेती छोटी कृषिजोत में की जाती है जिसके तहत 1 हेक्टेयर क्षेत्रफल से कम वाली कृषिजोत कुल कृषि जोतों का 60 प्रतिशत से भी अधिक हैं जिनमें कम उत्पादकता और कम खेत आमदनी देखी जाती है। इसके परिणाम स्वरूप कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि भी गैर-कृषि क्षेत्रों से कम बनी हुई है। इसके अलावा कृषि से गैर-कृषि क्षेत्रों की ओर कार्यबल का स्थानान्तरण भी अपेक्षित स्थिति से कम बना हुआ है।
इससे आने वाले वर्षों में गरीबी, भूखमरी का उन्मूलन करने, आजीविका सुरक्षा बनाए रखने और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था की सम्यक प्रगति के लिए कृषि क्षेत्र की वृद्धि का उल्लेखनीय महत्व बना रहेगा। हमें किसान समुदाय द्वारा महसूस की जा रही आर्थिक असमानता और अस्थिरता जैसे मुद्दों का समाधान खोजने की जरूरत है। इस प्रयास में हमें अपनी कृषि को कहीं अधिक इनोवेटिव, आर्थिक रूप से लाभप्रद तथा बौद्धिक रूप से उत्प्रेरक बनाए जाने की जरूरत होगी विशेषकर यदि हम युवाओं को खेतीबाड़ी का कार्य एक व्यवसाय के रूप में अपनाते हुए देखना चाहते हैं।
साझा विकास के लिए आपसी सहयोग जरूरी
हमारे सार्क देशों में कृषि का विकास हमारी सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ हुआ है इसलिए खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा का स्रोत होने के साथ-साथ यह हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक अभिन्न अंग भी बनी हुई है। अपने दैनिक जीवन में कृषि को महत्व देते हुए हमें इससे कहीं अधिक मजबूत बनाने और आर्थिक समृद्धि का प्रमुख औजार बनाने की ओर निरन्तर प्रयास करना चाहिए। वर्ष 1960 के दशक में हरित क्रांतिकी नई प्रौद्योगिकियों की सफलता से हमारे खाद्य उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई लेकिन साथ ही इस क्षेत्र की कृषि के सामने अनेक चुनौतियां भी मौजूद हैं जैसेकि मृदा की जैविक सामग्री में नुकसान; मृदा के पोषक तत्वों में कमी; खरपतवारों, रोगों और नाशीजीवों में बढ़ोतरी; लवणीय एवं सोडियम युक्त मृदा; भूजल स्तर में कमी और जल भराव जैसी समस्या। इनसे न केवल स्थानीय रूप से कृषि प्रभावित होती है लेकिन इसका जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा, नाशीजीवों व रोगों की गतिशीलता जैसे ट्रांस-बाउंडरी प्रभाव भी पड़ते हैं जिनमें सामूहिक रूप से सुधारात्मक कार्रवाई करने की जरूरत है।
इस क्षेत्र में विकास के लिए अनुसंधान एवं इनोवेशन सम्बंधी कृषि फोकस को अब शीघ्र ही खाद्य को कहीं अधिक पहुंच योग्य बनाने (Accessible), वहनीय (Affordable),सुरक्षित, स्वस्थ, पौष्टिक बनाए जाने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य गुणवत्ता मानकों के अनुरूप बनाने की दिशा में बदलने की जरूरत है। कुछ मामलों में प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेप जानकारी एवं पूंजीगत सघनता वाले होते हैं और प्राय: ऐसी परिस्थितियों को संभालना राष्ट्रीय क्षमता से बाहर की बात होती है। इस संबंध में मेरा यह मानना है कि सार्क देशों को आपस में सूचना, प्रौद्योगिकी, जानकारी एवं संसाधनों में भागीदारी करके आपस में सहयोग बनाना चाहिए जोकि मूल्यवान राष्ट्रीय संसाधनों और समय की बचत करते हुए आपसी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन अब एक वास्तविकता है और कुछ मामलों में इससे क्षेत्र में भारी नुकसान होने का अनुमान है। दक्षिण एशिया, जलवायु परिवर्तन के संबंध में प्राकृतिक आपदाओं के प्रति विश्व के सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के प्रमुख दो आयामों में तापमान में बढ़ोतरी और वर्षा पैटर्न में बदलाव होना शामिल है जिनका असर हमारी कृषि पर पड़ेगा। वैश्विक स्तर पर इन परिवर्तनों के कारण हमारी स्थानीय कृषि प्रभावित होगी और इससे स्थानीय तथा ग्लोबल खाद्य आपूर्ति प्रभावित होगी। भारत ने अभी हाल ही में देश में 600 जिलों के लिए जिला स्तरीय आकस्मिकता योजनाएं तैयार की हैं जिनमें किसानों को प्राकृतिक आपदा विशेषकर बाढ़ आने एवं सूखा पड़ने की स्थिति में प्रौद्योगिकी उपयोग पर जरूरी जानकारी के साथ-साथ क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, से संबंधित जानकारी प्रदान की गई है।
फसलों और पशुओं को प्रभावित करने वाले नाशीजीवों तथा रोगों की गतिशीलता का पता लगाना एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसमें हम सबको सामूहिक कार्रवाई करने की जरूरत है। हालिया अतीत में हमने ऐसी अनेक घटनाओं की प्रभावी ढ़ंग से रोकथाम की है। उदाहरण के लिए गेहूं में गेहूं उत्पादक देशों के साथ सहयोग करके हमनें ऐसी किस्में विकसित कीं जोकि रतुआ स्ट्रेन Ug99 की प्रतिरोधी थीं। नई कृषि प्रौद्योगिकी, उत्पादों, कार्यविधि तथा संबंधित सेवाओं की जानकारी की आपूर्ति को बढ़ावा देने वाली व्यापक सूचना प्रदान करने के लिए सूचना नेटवर्क/टूल्स विकसित करने की जरूरत है ताकि किसानों को निकट भविष्य में कृषि वातावरण को नियंत्रित करने में समर्थ बनाया जा सके।
यहां मैं एक सफल कार्यक्रम भारत में गंगा के मैदानों के लिए चावल-गेहूं कंसोर्शियम की चर्चा करना चाहूंगा। यह सीजीआईएआर तथा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के एनएआरएस का एक कार्यक्रम था। इसके तहत चारों देशों के चावल-गेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में दस मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक में खेती करने वाले किसान हैं। इस प्रयास से सहयोगी संस्थानों के बीच प्रणालीगत अनुसंधान करने और संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों (आरसीटी) को विकसित करने और उसमें सुधार करने में क्षमता सुधार हुआ है। यह पानी, उर्जा की बचत करने, लागत को घटाने और किसानों की आमदनी को बढाने में अत्यधिक मददगार बन सकते हैं। हमें ऐसे सहयोगी, कॉपरेटिव अनुसंधान व विकास कार्यक्रमों को जारी रखना चाहिए।
सार्क देशों में पौधा एवं पशुधन के मामले में समृद्ध जैव विविधता है। भारत, जैव विविधता के 12 मेगा केन्द्रों में से एक है और उत्तर-पूर्वी राज्यों में आकिर्डस की लगभग 700 प्रजातियां हैं जो कि स्थानीय हैं। इसमें भावी कमर्शियल उपयोग की उल्लेखनीय क्षमता है। हालांकि, जैव विविधता के नुकसान का खतरा बना हुआ है। प्रत्येक देश को जल्दी ही विभिन्न जैव इकोलॉजी स्तर पर हर प्रकार के जैव विविधता संसाधनों को प्रामाणिक दस्तावेजी रूप देने और जैव विविधता को बचाने के लिए आवश्यक उपाय उठाने की जरूरत है। कृषि एवं पशुपालन से जुडी बौद्धिक सम्पदा एवं पारम्परिक जानकारी के प्रलेखन और पेटेन्टिंग पर पर्याप्त ध्यान देने की भी जरूरत है। चूंकि जैव विविधता और बौद्धिक सम्पदा में प्रत्येक देश के लिए प्रगति की अपार क्षमताएं हैं, इसलिए प्रो – एक्टिव आधार पर इसमें निवेश बढाये जाने की जरूरत है। हमने एक स्टेट ऑफ दि आर्ट सुविधा राष्ट्रीय पौधा जीन बैंक स्थापित की है और हम आपसी सहमति से आनुवंशिक सामग्री को भण्डारित करने की अतिरिक्त क्षमता को आपस में बांट सकते हैं।
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) तथा दूरसंचार नेटवर्क के त्वरित विकास ने नई कृषि प्रौद्योगिकी, उत्पादों और उत्पादों की मार्केटिंग पर सूचना नेटवर्क, जानकारी पूल और सेवाओं का सृजन करने का रास्ता तैयार किया है। प्रौद्योगिकी प्रसार की प्रकि्रया को सुधारने में तथा साथ ही किसानों का जानकारी के स्तर पर सशक्तीकरण करने में आईसीटी का उपयोग अति महत्वपूर्ण है। यह जरूरी है कि नई कृषि तकनीकों, उत्पादों, कार्यविधियों और संबंधित सेवाओं की जानकारी देने में अग्रणी सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने के लिए एक किसान मित्रवत सूचना नेटवर्क विकसित करना जरूरी है ताकि निकट भविष्य में पर्यावरण के अनुकूल अपनी खेती बाडी को नियंत्रित करने में किसानों को समर्थ बनाया जा सके।
इस क्षेत्र में फसलोत्तर एवं अपशिष्ट प्रबंधन में अपेक्षाकृत कम विकास हुआ है जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में फार्म उत्पाद विशेषकर बागवानी एवं पशु उत्पादों में नुकसान उठाना पड़ता है। उत्पादन स्थल के नजदीक ही फसलोत्तर प्रसंस्करण, मूल्य संवर्धन एवं उत्पाद विकास के लिए प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप किए जाने की जरूरत है। इससे न केवल फार्म उत्पाद सुरक्षित होंगे बल्कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण परिणामों के रूप में इनसे रोजगार पैदा होगा और किसानों की आमदनी बढ़ेगी। हमें असंगठित खाद्य क्षेत्र को संगठित खाद्य क्षेत्र में रूपान्तरित करने की दिशा में आगे आना होगा लेकिन हमें अभी भी इस दिशा में काफी कार्य करने की जरूरत है।
सक्षम एवं कुशल मानव संसाधन – विकास प्रयासों की वास्तविक ताकत होते हैं। राष्ट्र को मजबूती प्रदान करना देशवासियों की सक्षमता के स्तर पर निर्भर करेगा। आज भारत में लगभग 73 विश्वविद्यालय हैं जिनमें पशुचिकित्सा एवं मात्स्यिकी विज्ञान सहित कृषि में उच्चतर शिक्षा प्रदान की जाती है। हम अन्य देशों विशेषकर सार्क राष्ट्रों के छात्रों को भी अपने विश्वविद्यालयों में प्रवेश देते हैं। आज वर्तमान में कुल 119 छात्र हमारे कृषि विश्वविद्यालयों में अध्ययन प्राप्त कर रहे हैं जिनमें से 65 प्रतिशत छात्र सार्क देशों के हैं और इस व्यवस्था को बढ़ाने के लिए हम अपने प्रयास जारी रखेंगे।
क्षेत्र में सहयोग के माध्यम से कृषि के टिकाऊ अनुसंधान एवं विकास के लिए यह उचित होगा कि हम कार्यक्रमों को तैयार करने और उन्हें लागू करने के लिए क्षेत्रीय प्राथमिकता सेटिंग की एक क्रियाविधि तैयार करें। जैसाकि मैं देखता हूं, जल, आनुवंशिक संसाधन, जननद्रव्य विनिमय तथा ऊर्जा, कृषि विकास के महत्वपूर्ण कारक बन रहे हैं और ऐसे अधिक क्षेत्र भी हो सकते हैं। इस दिशा में हमारे प्रयासों की सफलता के लिए समर्थ बनाने वाली नीति, नियामक क्रियाविधि और संस्थागत प्रबंधों पर विचार किया जाना जरूरी है। वर्तमान सार्क व्यवस्था के भीतर कृषि क्षेत्र में सहयोग एवं कार्रवाई के लिए कंक्रीट क्षेत्रों को फोक्सड रणनीति के साथ रखा जाना चाहिए।
अंत में यह बताना चाहूंगा कि हमें कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने के लिए सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और प्रदाता एजेंसियों को जागरूक करने की जरूरत है। ऐसे देश अथवा क्षेत्र जहां पर कृषि क्षेत्र में पर्याप्त निवेश हुआ है, आज खाद्य और पोषणिक सुरक्षा के मामले में कहीं बेहतर स्थिति में हैं। भावी खाद्य सुरक्षा के लिए वर्तमान में कृषि अनुसंधान में निवेश करना एक जरूरी शर्त है। क्षेत्र में कृषि के अति आवश्यक टिकाऊपन के लिए विज्ञान के समुचित प्रयोग, तकनीकों के प्रयोग तथा इनोवेटिव रीतियों के माध्यम से इन्हें व्यापक स्तर पर अपनाकर आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय प्रगति में संतुलन बनाए रखने की जरूरत होगी। चलिए, हम सब क्षेत्र में कृषि, किसान व खाद्य, पोषणिक,आजीविका और पर्यावरणीय सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए एक दूसरे के साथ मदद करते हुए सहयोगी रीति में एक साथ कार्य करने की एक बार पुन: शपथ लें।”