- January 5, 2016
यह बोझिल परंपरा त्यागें – डॉ. दीपक आचार्य
संपर्क – 9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
हर अदद आदमी अब और किसी काम से खुश हो न हो, अपना नाम सुनकर बेहद खुश हो जाता है। हर किसी को अपना नाम सुनने मात्र से अपार खुशी प्राप्त होने लगती है।
इंसान की पूरी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा सूत्र अब यही हो गया है। जहां नाम आता है वहाँ दौड़ कर, लपक कर पहुंच जाता है, जहां नाम नहीं आ पाता, वहां से खिन्न हो जाता है, गांठ बांध लेता है और उनके पीछे पड़ जाता है जो उनका नाम लेने से कतराते हैं या परहेज रखते हैं।
अब जमाना केवल नामों और तस्वीरों का ही आ गया है। ये नाम और तस्वीरें किसी भी कैनवास पर हो सकती हैं। औरों के हृदय में हमारी छवि और नाम अंकित भले न हो पाएं, परिवेश में हमारे नामों और तस्वीरों का डंका जरूर बजना चाहिए। मनोहारी फोटो और अपना नाम जो सुन लेता है वो निहाल हो जाता है।
हम लोग आजकल नामों और फोटो के इतने अधिक दीवाने हो गए हैं कि इनके आगे भगवान भी फीके हैं। इस मामले में हमारी तलाश तेज रफ्तार होती जा रही है, नॉन स्टॉप भाग रहे हैं अपने नामों और तस्वीरों की झलक पाने।
आजकल दुनिया भर में किसी को सर्वाधिक भूख और प्यास ने सता रखा है तो वह है नामों को सुनने-देखने और रंगीन तस्वीराें को अपनी आँखों से देखने का सुकून पाने। जहां नाम है वहां हम हैं, जहां तस्वीरें हैं वहां हम हैं। और ऎसा न हो तो हम आयोजकों और संबंधितों पर पैंथरों की तरह टूट पड़ कर पूरा का पूरा फाड़ खाएं।
गांव-शहरों-कस्बों और महानगरों तक में और कुछ भी नज़र आए न आए, बहुत सारे स्वनामधन्य लोगों के नामों की सूचियां और बड़ी-बड़ी रंगीन मोहक तस्वीरों का नेटवर्क सर्वत्र पसरा हुआ नज़र आता है।
लगता है कि जैसे इन बस्तियों के यही राजकुमार हैं, इनके अलावा और किन्हीं लोगों का कोई वजूद है ही नहीं। फिर तस्वीरें भी ऎसी पुरानी से पुरानी कि जिनसे जवानी और जोश झलकता दिखाई दे, भले ही इनका वर्तमान बुढ़ापे और झुर्रियों से भरा हुआ क्यों न हो।
लोगों को भरमाने के लिए हमने हर तरफ खूब सारे जतन कर रखे हैं, कहीं कुछ भी बाकी नहीं रखा। धर्म, सत्य, ईमान,वर्तमान आदि से हमारा कोई रिश्ता भले न हो, औरों को भ्रमित करते हुए दुनिया को अपने कब्जे में लाने और नचाने के तमाम गुर हम पूरे उत्साह और चालाकियों से आजमा रहे हैं।
बात नामों की चली है तो आजकल तकरीबन हर कार्यक्रम में दर्जन से अधिक अतिथियों और ढेरों विशिष्टजनों की भागीदारी रहने लगी है, फिर आयोजन से जुड़े लोगों की लम्बी लिस्ट। आखिर सभी को राजी रखना और करना है तो नामों के उच्चारण का आरंभिक अनुष्ठान हर किसी के लिए जरूरी है।
फिर आजकल मुख्य अतिथि और अध्यक्ष के अलावा कई सारे नए पदनाम जुड़ते जा रहे हैं। आदमी के अहंकार को तुष्ट करने के लिए हमने कई सारे विलक्षण पदनामों का आविष्कार कर दिया है। मसलन विशिष्ट अतिथि, अति विशिष्ट अतिथि, सम्मानित अतिथि, महा अतिथि, मुख्य वक्ता, सान्निध्य आदि-आदि।
फिर अतिथियों की संख्या भी इतनी अधिक की कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर मंच के सामने आगे ही आगे बैठक में जमा विशिष्टजनों की लम्बी कतार भी कोई कम नहीं। हर वक्ता की मजबूरी होती है कि एक-एक अतिथि, सामने बैठे तमाम विशिष्टजनों और आयोजकों की लम्बी सूची में से किसका नाम न ले।
नाम न लो तो इंसान तत्काल नाखुश हो जाता है, वह समझता है कि इतना बड़ा आदमी होने के बावजूद उसके नाम का उच्चारण न होना उसका घोर अपमान है। आतिथ्य और आदर पाने वालों की अंधी भीड़ में शामिल हर इंसान की यही पहली तमन्ना होती है कि हर वक्ता उसका नाम आदर के साथ पुकारे, और नाम के साथ उसके बारे में कुछ अच्छा ही अच्छा बखान भी करे ताकि उसकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाए।
जितना नाम ले लिए जाने से इंसान खुश हो जाता है उतना ही नाम न लिए जाने पर सौ गुना रुष्ट हो जाता है। गिनती के ही लोग अब देखने में आते हैं जो इतने अधिक भारी, धीर-गंभीर और शालीन होते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उनका नाम ले रहा है अथवा नहीं। ये लोग अपने आप में इतने प्रतिभाशाली और विराट व्यक्तित्व के प्रतीक होते हैं इन्हंंे न नामोच्चारण से खुश किया जा सकता है, न नाम न लेने से नाराज।
आज भी धरती बीज नहीं खा गई है। कई लोग आज भी ऎसे हैं जिन्हें नामों और तस्वीरों से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, न ये नाम और तस्वीर इन्हें पर््रभावित कर पाते हैं। मगर अधिकांश लोगों के लिए जिन्दगी के महानतम और अनिवार्य सुखों का यही एकमेव मानदण्ड और मूलाधार है।
अधिकांश समारोहों में यदि सबसे ज्यादा निराशा के क्षण कोई होते हैं तो वे संबोधन के आरंभिक चरण। हर वक्ता सभी के नाम लेता है, कुछ वक्ता नामों के साथ-साथ उनकी प्रतिभाओं और विलक्षणताओं का जिक्र भी करते हैं, और कुछ तो चापलुसी की सारी हदें ही पार कर दिया करते हैं। फिर जैसे वक्ता और आयोजक, वैसे ही मंच संचालक। मंच संचालक भी आयोजन का आधे से अधिक समय अपने ओजस्वी और स्वनामधन्य मंच संचालन को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए ढेरों लोगों की मान बड़ाई, मिथ्या बड़ाई करते हुए तारीफों के पुल बांधते रहते हैं।
कुछ वक्ताओं के लिए मेजबानों और आयोजकों के नाम लेना मजबूरी होती हैं क्याेंकि वे ही हैं जिनकी वजह से ये मंच पर फब रहे होते हैं। और इनका नाम न लें तो दूसरी बार मंच से विमुख हो जाने का भय सताता रहता है।
अधिकांश समारोहों का आधे से अधिक समय मंचस्थ अतिथियों, विशिष्टजनों और आयोजकों के नामों की पुकार और सूची पठन में ही गुजर जाता है। आजकल समय किसके पास है। जो लोग समय निकाल कर हमारे कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं वे धन्य हैं। तिस पर हम नामों की दीर्घसूत्री सूची का बार-बार पठन कर इन आगंतुकों के साथ कितना अधिक कुठाराघात करते हुए अन्याय ढाते हैं, इसकी कल्पना वे ही कर सकते हैं जो आयोजनों का हिस्सा होने आते हैं।
निरपेक्ष विवचेन और विश्लेषण किया जाए तो किसी को यह पसंद नहीं आता। क्यों न हम अपने अतिथि वक्ताओं को समझाएं कि वे सभी का नाम पुकार कर खुश करने की बजाय ‘सम्मानित मंच’ शब्द का प्रयोग करें ताकि समय भी बचे, कार्यक्रम बोझिल भी न हो और जो लोग संभागी हैं उन्हें भी आनंद का बोध हो, अतिथियों के प्रति भी दिली सम्मान बचा और बना रह सके।
आईये नई पहल करें, पुराने जुमलों और खुश करने के लिए नामोच्चारण की बजाय समय को आदर देते हुए संक्षिप्तीकरण की ओर जाएं। कितना अच्छा हो भीड़ में शामिल लोगों के नामों की सूची का पठन करने की बजाय ‘सम्मानित मंच’ शब्द को प्रयोग में लाएं।
यह समय की मांग है, अभी हमने इसे स्वीकार नहीं किया तो आने वाले समय में मंच के सामने बैठे लोग सहनशीलता,सहानुभूति, शालीनता और सहृदयता छोड़ कर जो कुछ कर सकते हैं, कर डालेंगे, इसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते।
कुछ नया करें, ऎसा करें कि हमारे कर्म से सर्वजन को सुकून प्राप्त हो, किसी को कुछ भी झेलने की विवशता न रहे। जीवन और परिवेश, समारोहाेंं और आयोजनों में आनंद प्राप्ति के लिए नई पहल करें।