- September 4, 2016
मन की बात- 4 : अस्पताल में गरीबों का इलाज:- शैलेश कुमार
इस सप्ताह हमारा केन्द्र विंदू सबसे मूलभूत समस्या स्वास्थ्य पर हैै। मैं गरिबों के इलाज के बारें में कुछ मन की बात कहना चाहता हॅू जो की आपसेे संबंधित है।
2012 के हिंदी क्षेत्र में जो चुनाव हुआ। चुनावी मुद्दा में हमे मूलभूत मुद्दा गायब मिला । उत्तरप्रदेश और हिमाचल तथा राजस्थान छोड़ कर हमने मुख्यमंत्री कोे अपने समाचार साईट और उनके ई- पता से -शिक्षा,सुरक्षा,चिकित्सा और शराब पर एक वैकल्पिक सुझाव भेजा था जिसका समाधान मिल के पत्थर के समान है और इसी में आपकी जीत है।
आप अपने राज्य की मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं मगर आपको उक्त विंदुओं पर पहल करना अति आवश्यक है क्योंकि यह देश की रीढ़ है साथ ही -मूल समस्याऐें भी हैं।
मुझेे पता नहीं किन-किन राज्यों नेेे पहल की मगर देश के कोने- कोने से जो घटनाओं की सूचनाऐं आ रही है उस राज्य के प्रशासन से लेकर मुख्यमंत्री तक निंदनीय है।
इलाज के क्षेत्र में मानवताहीन व्यवस्था चर्चित हैै । आखिर सरकार इस व्यवस्था को सुधार लाने में लाचार क्यों है ? इस लाचारी के कारण ही अस्पताल से गरीब अपने बेटे को, पत्नी को ,मां को बोरे में ठूंस कर कंधे पर लाद कर, घर पहुंचते हैं। क्या करोंडो रुप्ये सरकार इसलिये वहन कर रही है।
गरीब ! जिसके पास डाॅक्टरोें और दवाई दुकानदारों को देने के लिए कुछ नहीं है, वह जिंदा होते हुए भी एक लाश है। ऐसेे व्यक्ति उस समाज में निंदनीय होते है। लोग हास- उपहास करते दिखते हैं। इलाज के लिये रुप्येवाले ब्याज पर रुप्ये देते हैं साथ ही उसका कर्जदार भी ।
उपहास के कारण लोगों के दिलों में एक भय व्याप्त हो जाता है। जिस देश में सरकार 30 रूप्यें में भरपेट भोजन देने का मिथक स्वांग करती है। क्या उस देश में दर्द नाशक टैबलेेट 50 पैसे में बिकता है ?
जिस देश की सरकार द्वारा इलाज के लिए एक डाॅक्टर को औसतन 50 हजार रूप्येे मासिक वेतन दी जाती रही है। क्या उस अस्पताल में उन मरीजो को 1 रूप्ये की दवा सहयोग में मिलता है।
अगर हम प्राईवेट सेे एक चिकित्सक केे वेतन की तुलना करेगें तो वह बहुत ही कम है क्योंकि सरकार ने इसे “सेवा” संस्थान घोषित किया है। वही प्राईवेट संस्थान व्यापार। एक सुपर स्पेेशलिटी संस्थान एक एमबीबीएस को प्रतिदिन 2- 3 लाख भुगतान करती है। एक काॅरपोरेट हाॅस्पीटल एआइआइएमएस के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर को प्रतिदिन औसतन 3 लाख रूप्या भुगतान करती हैै।
पाॅच वर्षाें की प्रशिक्षण की अवधि में एक एमबीबीएस को 10000-30000 रूप्येें,एमडी0/एम0एस0 को 9-12 वर्षों की अवधि में 30000-200000 रूप्यें और 12-15 वर्षों की प्रशिक्षण अवधि में 50000-300000 रूप्येे दी जाती है। किसलिए ! इसलिए न की यह प्रशिक्षित होेकर गरीबों का सहयोगरूपी इलाज करे। मगर येे डाॅक्टर न सरकार का और न मरीजोें का होता हैै।
अगर सरकार मरीजों के लिए दवा आपूर्ति करती है तो वह दवा मरीजों कोे उपलब्ध नही हो पा रहा है। दवा, उपकरण अस्पताल से गायब। एक्सरे मशीन खराब। लेबोरेटरी में खिड़कियाॅ टूटी- फुटी। बेेसिन में कचरा भरा हुआ।
चदरा की बेड, उस पर मैले -कुचैलेे चादर। फूटा हुआ शौचालय का ढक्कन। ऐसा इसलिए है की यहाॅ सिर्फ गरीब आते हैं । सुबह में आतेे हैं और मृत्यु के खौफ से शाम तक भाग जाते हैं।
डाॅक्टर बेेफिक्र । अस्पताल केे निरीक्षक दारू पीकर मस्त। गरीबों के लिए आपूर्ति की गई दवा बाजार में बेखौफ आपूर्ति। निरीक्षकों और डाॅक्टरोें की अपनी दवा दुकान या संबंधितों की दवा दुकान में सरकारी दवा धडेेल्ले से बिक्री।
इस मौलिक समस्या का निदान तब तक नही होगा जब तक सूरज – चांद रहेगा ?
अस्पताल के ब्लड बैंक में ब्लड नहीं। अस्पताल में मरीजों के लिए एबुलेंस नही। अस्पताल में जांच के लिए डाॅक्टर नहीं। डाॅक्टर कहाॅ ! अपने निजी क्लीनिक में । डाॅक्टर कहाॅ तो प्राईवट अस्पताल में आॅवर टाइम पर। जैसे लगता है कि अस्पताल एक स्वायतशासी संस्था है जिसके लिए सिर्फ सिस्टर ही जिम्मेदार है।
विकल्पहीन मरीज फर्श पर सोया हुआ रहता है, उसे इंजेक्शन देनेे वालेे को ढॅूढ़ना पड़ता हैै। वार्ड में मरीज अंतिम साॅस लेे रहा होता है और आपरेशन के लिए डाक्टर गायब, उसे सलाह दी जाती है की अमूक जगह पर इसका बढ़िया इलाज है , चले जाओ। बेचारे भाग कर उस नर्सिंग होम में जाता है । इलाज के बाद कर्ज में डूब जाता है।
कई ऐसे डाॅक्टर एक शब्द में मरीजों को कहते हैं – यहाॅ मरनेे के सिवाय कोेई उपाय नहीं हैै। अगर जिंदगी चाहते हो तो चले जाओ प्राईवेट में।
बहादुरगढ़ अस्पताल सेे 12 बजे रात में एक फोेन आता है। डाॅक्टर के लापरवाही से उसके बहन की मौत हो जाती है। वहाॅं हंगामा होता हैै। लेेकिन हंगामा सेे क्या फायदा ? जाने वाले तो लौट के नहीं आयेेगा।
सरकार भी उतने ही दोषी है जितने डाॅक्टर, अब देखिए।
मैैं बहादुरढ़ अस्पताल में आॅख जंचवाने के लिए 10 बजे सुबह गया था। वहाॅ सिर्फ दोे डाॅक्टर थे। कतारें लंबी थी। मैने पूरेे समय दिया । मेरा नाम ठीक बारह बजे आया। मैनेे देखा की एक मरीज पर डाॅक्टर सिर्फ दो मिनट सेे ज्यादा समय नहीं देे पा रहें हैं।
यहाॅ प्रश्न यह है कि दोे डाॅक्टर और मरीज की भारी तदाद । समय सिर्फ दोे बजे तक। अब सोच सकते है की इलाज क्या हुआ होगा। उस डाॅक्टर की चश्में और दवा की दुकान ठीक अस्पताल के बगल में है।
यह सिर्फ बहादुरगढ़ अस्पताल की ही स्थिति नहीं है देश में तमाम अस्पतालों की यही राम कहानी है।
ग्रामीण क्षेत्रों केे अस्पताल तो भूतालय ही है। न बिजली , न पंखा । डाॅक्टर जोे रहते भी हैं। वह शहर में किराये पर मकान लेकर रहते हैं। दाई – नर्स बेचारी उस भूतालय के प्रांगण में जिंदा प्रेत की तरह रहते हैं । इस आशा में कि सुबह होते ही लोगों का दर्शन होगा।
बिना पैरवी के मरीज को कोई पूछनेे वाला नहीं है। लेेकिन जब उपर से फोन आता है या मरीज के परिचायक अपना परिचय किसी दंबग से करवाता है तो उसके लिए सारी व्यवस्थाऐं तत्क्षण उपलब्ध होता है। अर्थात कहावत सही है कि लात के देेवता बात से नहीं मानते । तो क्या सभी मरीजों के पास “लातें ” हैै ! नहीं । सभी मरीजों के पास लातें नहीं हैैं।
कालेज-अस्पताल की तोे बातें जुदा है। वहाॅं हर मरीजों पर अध्ययन किया जाता है। अध्ययन करते-करते लाशें शवगृह में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
एक डाॅक्टर सही कहा था – यहाॅ से सिर्फ स्वर्ग के लिये ही द्वार खुलता हैै।
एक डाॅक्टर ग्राहकों के लिए एक निश्चित अवधि के लिए धर्मार्थ सेवा केन्द्र शुरू करता है और बाद में उसका रूतबा लुटेेरेे डाॅक्टरों में बदल जाता हैै।
गरीबों के इलाज के लिए सरकार से नर्सिग होम “एड”लेता है। उस अस्पताल में जितनेे भी गरीबों का इलाज होता है बाद में सरकार उसेे भुगतान करती है। सरकार से पैसा तो ऐंठ लिया जाता है। मगर गरीबों का इलाज नही हो पाता है।
एक निर्सिग होम में मैैं गया। वहाॅ हर मरीजों के बाॅंह में पानी का बोतल लटक रहा था। मैनेे उसके परिचर्याक से पूछा – क्या – क्या दवा दिया है तो उसने कहा कुछ नही सिर्फ पानी चढ़ा रहा है।
दिल्ली केे एक सरकारी अस्पताल में ओपीडी पर मैं खड़ा था। एक मरीज कई प्रमाण पत्र ले रखा था। मैंने पूछा-ये क्या है ? उसने कहा-ये दिल्ली निवासी होने का प्रमाण पत्र है। ये राशन कार्ड हैै। ये वोेटर कार्ड है। ये आधारकार्ड है। ये पीला कार्ड है। इतने कार्ड के बावजूद भी डाॅक्टर ने कहा ये सब दवाऐं बाजार से खरीदकर लाओ।
गरीब होने के पचास लफड़ेबाज प्रमाण-पत्र देने पड़़ते हैं। ये करके लाओ ! वो करकेे लाओ!! उससे लिखवाकर लाओ। बेेचारे परेेेशान हो जाता है क्योेंकि देेश में कोेई एक प्रमाणपत्र नही है। सरकारी सहयोग लेने के लिए अंट-संट प्रमाण पत्रों की मांग किया जाता है।
हतोेत्साह मरीज जब किसी पैैरवीकार का सहयोग लेता है तो मांग की गई सभी नियम- कानून को ताक पर रख दिया जाता हैै।