प्रधानमंत्री के गोद में जयापुर गांव : मानवी कपूर

प्रधानमंत्री  के गोद में जयापुर गांव : मानवी कपूर

प्रधानमंत्री   जयापुर गांव को गोद लिया था और अब इस गांव को मोदी का नाम जुडऩे का फायदा मिल रहा है, जिससे आसपास के गांवों में रहने वालों को जलन होने लगी है। बता रही हैं मानवी कपूर

करीब एक वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के जयापुर गांव में एक हाई टेंशन बिजली का तार गिर गया था और इस घटना में चार लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। यह वही समय था, जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में प्रचार में जुटे हुए थे और जयापुर भी वाराणसी संसदीय क्षेत्र में ही आता है।

गांव के ‘नेता’ नारायण पटेल के मोबाइल पर फोन आया, लाइन पर दूसरी तरफ थे नरेंद्र मोदी, जिन्होंने पूछा कि स्थिति का जायजा लेने के लिए कोई सरकारी अधिकारी गांव पहुंचा है या नहीं। जाहिर है, कोई नहीं आया था। पटेल के अनुसार यह सुनने के बाद मोदी ने अपने पसंदीदा सोशल मीडिया नेटवर्क ट्विटर पर इस हादसे को लेकर चिंता जताई। 2

प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद मोदी ने जयापुर गांव को सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत ‘गोद’ ले लिया। इस घटना को अब एक वर्ष बीत चुका है और गांव की स्थिति देखकर तो यही लगता है कि यह दुर्घटना जयापुर गांव के 4200 निवासियों के लिए एक वरदान ही साबित हुई है।

वाराणसी से महज 25 किलोमीटर दूर जयापुर के साथ मोदी का नाम जुड़ते ही यह आदर्श गांव विकास का पर्याय बन चुका है। कंक्रीट से बने प्रवेश द्वार पर गांव की सीमाओं का उल्लेख किया गया है। यहां एक बड़ा सा शामियाना लगा हुआ है, जिसके प्रवेश द्वार के बाईं ओर पुलिस के वाहन खड़े हुए हैं।

एक पुलिसवाले ने बताया कि यहां आयोजित कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक आने वाले हैं। शामियाने के भीतर एक मंच पर लाल रंग के कपड़े से सजी कुर्सियां रखी हुई हैं। यूं तो समारोह शाम को 7 बजे शुरू होना था लेकिन दोपहर तक ही इसकी तैयारी लगभग मुकम्मल हो चुकी थी। इस पूरे इंतजाम की निगरानी कर रहे पटेल खादी का कुर्ता-पायजामा और भगवा रंग का साफा पहनकर मंच पर बैठे हुए हैं, जहां से वह लोगों को देख सकते हैं और लोग उनको।

पान चबाते हुए पटेल बताते हैं, ‘मैं पिछले साल आम चुनाव के दौरान जयापुर में सुनील ओझा, सुनील देवदार और मनोहर लाल खट्टïर (अब हरियाणा के मुख्यमंत्री) के साथ मोदी जी के लिए प्रचार कर रहा था। जब मोदी जी लोकसभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने, तब मैंने उन्हें चिट्ठी लिखकर हमारा गांव गोद लेने का आग्रह किया।’ जाहिर है, सफलता में सभी अपना हिस्सा मांगते हैं। पटेल आयोजन का बंदोबस्त और अतिविशिष्टï मेहमानों की आवाजाही पर नजर रखे हुए हैं।

मुझे दिखाए गए एक पर्चे के अनुसार यहां एक धार्मिक आयोजन होना है, जिसे नागपुर का थिएटर समूह राधिकाक्रिएशंस आयोजित कर रहा है। यह थिएटर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्श स्वामी विवेकानंद पर कई नाटक प्रस्तुत कर चुका है। जब हमारी बातचीत हो रही थी ठीक उसी समय शामियाने में एक युवती ने प्रवेश किया और सभी पुलिसवाले सतर्क हो गए। पटेल ने एक नजर पीछे मुड़कर देखा और उस महिला को नजरअंदाज कर मुझे बताने लगे, ‘वह सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट हैं।’ मोदी के करीबी को भला किसी से क्या डर?

गांव में प्रवेश करते ही थोड़ी-थोड़ी दूर पर सौर स्ट्रीट लाइटें दिखने लगती हैं। गेहूं के खेतों में लगी स्ट्रीट लाइटें काफी हद तक सरकारी विज्ञापनों में दिखाए गए विकास से मिलती-जुलती हैं। यहां गली के दोनों ओर हर 100 मीटर की दूरी पर लाल रंग की बेंच लगी है।

इन बेंचों पर हिंदी में मोदी का नाम और उनकी महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं- स्वच्छ भारत और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे लिखे हैं। हरियाणा और राजस्थान के गांवों के घरों की तरह यहां कार नहीं दिखाई देती है और जब भी इस सड़क से कोई कार गुजरती है तो इन बेंचों पर बैठा हरेक व्यक्ति यह देखने के लिए उत्सुकता में खड़ा हो जाता है कि कहीं गांव में कोई प्रभावशाली नेता का आगमन तो नहीं हो रहा है। विकास ने इस गांव में भले ही कदम रख दिए हों लेकिन समृद्घि को यहां पहुंचने अभी काफी समय लगेगा।

जयापुर के निवासी रवींद्र कुमार मेरे सवाल पूछने से पहले ही कहना शुरू कर देते हैं, ‘हम बहुत खुश हैं। हमारे घरों में शौचालय हैं। हमारे पास सौर ऊर्जा से चलने वाली लाइट हैं। हमें और क्या चाहिए?’ जब मैंने उनसे पूछा कि उनके घर में शौचालय कब और कैसे बना तो वह झिझकते हुए बताते हैं, ‘हमारे घर में तो कुछ साल पहले ही शौचालय बन गया था।’

यानी जयापुर मोदी के यहां आने से पहले ही आदर्श गांव बनने की राह पर चल चुका था। रवींद्र की मां धनिसरा देवी मोदी द्वारा किए गए कार्यों से खुश हैं, लेकिन उनकी उम्मीदें कुछ ज्यादा हैं। वह कहती हैं, ‘सबसे महत्त्वपूर्ण है रोजगार सृजन।’ हालांकि सप्ताह के पहले दिन की दोपहरी में परिवार के ज्यादातर पुरुष सदस्य घर पर ही हैं। निजी स्कूल में शिक्षक राधेश्याम से मैंने पूछा कि क्या उन्हें यहां के विकास के खाके के बारे में कुछ जानकारी है, तो वह कहते हैं कि सिर्फ पटेल ही इससे संबंधित जानकारी दे सकते हैं, हालांकि वह यह कहना नहीं भूले कि वह भी इस ‘समारोह’ में उपस्थित होंगे। लेकिन क्या वह जानते हैं कि समारोह किसलिए किया जा रहा है?

वह बताते हैं, ‘शायद उन 14 मकानों का उद्घाटन हो रहा होगा, जिन्हें वनवासियों के लिए निर्मित किया गया है।’ हालांकि यह बताते हुए उनके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव साफ दिख रहे हैं, जिससे यही लगता है कि वह ‘बाहरी लोगों’ के साथ गांव का विकास साझा करने से खुश नहीं हैं।

धनिसरा देवी बताती हैं, ‘इन मकानों में वीआईपी सुविधाएं हैं, जिनमें घर के बाहर बगीचा भी शामिल है।’ जब मैंने पूछा कि ये वनवासी कौन हैं, तो एक बच्चा धीरे से फुसफुसाकर दलित कहता  है। जाहिर है कि विकास की लहर भी जातिगत भेदभाव की मानसिकता को दूर नहीं कर पाई है।

करीब दो किलोमीटर की दूरी पर सफेद और नीले रंग के ये मकान दोपहर की धूप में दूर से ही दिखाई देते हैं। राजमिस्री इस मोहल्ले के लिए दरवाजे का निर्माण करने में व्यस्त हैं। एक छोटे से हिस्से में कई मौसमी पौधों पर फूल खिलने लगे हैं और मैदान में भी घास आने लगी हैं। मन्नी ईंटों के बने अपने घर के बाहर झाड़ू-बुहार कर रही हैं और उससे सटा हुआ ही उनका नया मकान है।

वह मुझे इस नए मकान को दिखाने लगती हैं। नीले रंग का लोहे का दरवाजा बरामदे में खुलता है। इस मकान में एक ही कतार में शौचालय, स्नानघर और रसोई है, जबकि अंत में जाकर 36 वर्ग फुट का एक छोटा सा कमरा है। उनके और उनके पति के पास कोई जमीन नहीं है और इसलिए फिलहाल वह निर्माण स्थलों पर ठेके पर मजदूरी करते हैं।

जाहिर तौर पर वे इस मकान के लिए मोदी के शुक्रगुजार रहेंगे। मन्नी की सास कहती हैं, ‘ठाकुरों ने हमारा जीना दूभर कर रखा था। अगर मोदी नहीं होते तो हमें कभी यह विकास देखना भी नसीब नहीं होता।’ दिलचस्प है कि जिन परिवारों के लिए ये मकान बनाए जा रहे हैं, उनमें से किसी को भी इनके कागजात और मालिकाना हक के बारे में जानकारी नहीं है। उनके यहां विकास बिना उनकी जानकारी, पसंद और सहभागिता के हो रहा है। मन्नी बताती हैं, ‘जब ये मकान बनने शुरू हुए, तभी हमें इनके बारे में पता चला।’

इस परियोजना की ठेकेदार दिल्ली की अन्ना एसोसिएट्स के दयानंद मणि त्रिपाठी बताते हैं कि इन मकानों का निर्माण कार्य दिसंबर 2014 में महाराष्ट्र की कंपनी एलनसंस कर रही है, जो प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का निर्यात करती है।

त्रिपाठी बताते हैं, ‘एक तरीके से कंपनी ने गांव के इस हिस्से को अपने आप गोद लिया है। इसकी मुख्य वजह है कि इस हिस्से में गांव के सबसे गरीब लोग रहते हैं।’ हालांकि मुझे बाद में पता चला कि यह बात काफी हद तक सोलर लाइटों और जैव-शौचालयों के लिए भी सही है।

गांव में कुछ सोलर लाइटें यूनियन बैंक ने लगाई हैं, जबकि बाकी सूरत की एक ग्रीन इन्फ्रा कंपनी गोल्डी ग्रीन ने लगाई हैं। कारोबारी दिग्गज फिर चाहे निजी क्षेत्र के हों या सार्वजनिक क्षेत्र के, इस बात की अहमियत अच्छी तरह समझते हैं कि मोदी की नजरों में अच्छा बनना कितना फायदेमंद हो सकता है।

मोदी ने इस आदर्श गांव में विकास कार्यों के लिए अपनी 5 करोड़ रुपये की सांसद निधि में से महज 40 लाख रुपये ही खर्च किए हैं लेकिन उनके समर्थन से इस गांव में खासा निवेश हो चुका है। एक बेंच पर बड़े काव्यात्मक ढंग से समावेशी विकास के लिए मोदी का मंत्र ‘सबका साथ, सबका विकास’ लिखा हुआ है। पटेल का खुद का परिवार भी बड़ी ठसक के साथ जीवन व्यतीत करता है।

एक बड़े बरामदे के बाहर प्लास्टिक की कुर्सी पर जयापुर की सरपंच दुर्गावती देवी बैठी हुई हैं। दुर्गावती को यह पद पति की मृत्यु के बाद मिला था, हालांकि उनका प्रतिनिधित्व उनके देवर पटेल ही करते हैं। वह मुस्कराते हुए बताती हैं, ‘हमारे गांव की 87 फीसदी आबादी ने मोदी के लिए मतदान किया था।’ जब उनसे गांव में रहने वाले समुदायों के बारे में पूछा गया तो वह बिना किसी झिझक के बताती हैं, ‘हमारे गांव में सभी हिंदू हैं। मुसलमानों की बस्ती पड़ोस के चांदपुर  गांव में है।’

चांदपुर जयापुर का जुड़वा गांव हो सकता था, बशर्ते यहां की सड़कें अच्छी होतीं। यह गांव भी प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में है और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार द्वारा गांवों के विकास के लिए चलाई जा रही लोहिया ग्रामीण आवास योजना के दायरे में भी आता है।

यहां विकास की छाप उतनी गहरी नहीं दिखाई देती है। चांदपुर के जोगिंदर पाल कहते हैं, ‘हमारा गांव अछूत है। इसकी वजह हमारी जाति नहीं बल्कि इसलिए कि विकास में हमारी कोई सहभागिता नहीं है।’ अपनी पत्नी और बहू के साथ चारपाई पर बैठे पाल उदासीन आंखों से अपने बरामदे में खड़े मवेशियों को देखते हुए कहते हैं, ‘हमने भी मोदी के लिए ही मतदान किया था, लेकिन हमें अभी तक इसका फायदा नहीं मिला है।’ उनके घर में कोई शौचालय नहीं है और न ही बिजली।

घर के कामकाज के लिए उनका परिवार प्राकृतिक रोशनी पर ही निर्भर है। पाल बताते हैं कि उनकी पत्नी के हृदय में नया वाल्व लगना है। वह मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं मोदी तक पहुंचने में उनकी मदद कर सकती हूं? वह उम्मीद के साथ मुझसे पूछते हैं, ‘क्या आप हमारी बातचीत अखबार में छापेंगी और हमारी आवाज मोदी तक पहुंचाएंगी?’ ऐसा लगता है कि उनके लिए दिल्ली दूर ही है।

जब मैंने उनसे चांदपुर में रहने वाले मुसलमान समुदाय के बारे में पूछताछ की तो इतनी मुश्किल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करने के बावजूद उनकी आवाज में उच्चता का भाव आ जाता है। वह मुझे बताते हैं, ‘इस सड़क के आखिरी छोर से मुसलमानों की बस्ती शुरू हो जाती है।’

घुमावदार सड़क पर करीब दो किलोमीटर तक गाड़ी चलाने के बाद मुझे पाल की बात का मतलब समझ आने लगता है। मुसलमानों की बस्ती तक आते-आते पक्की सड़क गायब हो चुकी है और उसकी जगह पतली-पतली गलियों ने ले ली हैं, जिनमें बारिश के बाद का कीचड़ फैला हुआ है। यानी विकास सिर्फ यही तक हुआ है।

 चांदपुर मस्जिद के इमाम मोहम्मद यासीन कहते हैं, ‘हम पेशे से बुनकर हैं और काम की तलाश में कभी बाहर नहीं गए थे। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और हमारे पास रोजगार नहीं है।’ अब यह समुदाय आजीविका के लिए पूरी तरह खेती पर निर्भर है।

हालांकि यासीन बताते हैं कि उन्हें हाल में बुनकर कार्ड प्रदान किया गया है, जो बुनकरों को प्रमाणित करता है और उन्हें रोजगार उपलब्ध कराता है। वह बड़े निराशाजनक लहजे में बताते हैं, ‘हमने जयापुर के प्रधान से वहां का विकास हमारे साथ साझा करने की गुजारिश की थी, लेकिन हमारे हिस्से में वहां हो रही विकास की बारिश में से कुछ बूंदे ही आ पाई हैं।’ वह निराश होकर कहते हैं, ‘बिजली के तार तो यहां भी टूटकर गिरते हैं, लेकिन शायद कुछ तारों की किस्मत ज्यादा अच्छी होती है।’

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