- February 17, 2023
दाता और पाता, दोनों का अपमान : डॉ. वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवा-निवृत्त जज एस. अब्दुल नज़ीर को सरकार ने आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया है। इस नियुक्ति पर विपक्ष हंगामा कर रहा है। उसका कहना है कि जजों को फुसलाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। पहले उनसे अपने पक्ष में फैसला करवाओ और फिर पुरस्कारस्वरूप उन्हें राज्यपाल, राजदूत या राज्यसभा का सदस्य बनवा दो। जो विपक्ष मोदी पर यह आरोप लगा रहा है, क्या उसने अपने पिछले कारनामों पर नज़र डाली है? इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के ज़माने के कई राज्यपालों, राजदूतों और सांसदों से मेरा परिचय रहा है, जो पहले या तो जज या नौकरशाह या संपादक रहे हैं। उन्होंने जज या संपादक या नौकरशाह के तौर पर सरकार को उपकृत किया है तो सरकार ने उन्हें उक्त पद देकर पुरस्कृत किया है। वे लोग समझते रहे हैं कि वह पुरस्कार पाकर वे सम्मानित हुए हैं लेकिन उनके अपमान का इससे बड़ा प्रमाण-पत्र क्या हो सकता है? यदि उन्होंने अदालत में बिल्कुल ठीक-ठाक फैसला दिया है, यदि उन्होंने निष्पक्ष और निर्भीक संपादकीय लिखे हैं और यदि किसी नौकरशाह ने निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य–कर्म किया है तो भी ये सरकारी पुरस्कार पानेवालों की ईमानदारी पर लोगों को शक होने लगता है। यह शक तब और भी तगड़ा हो जाता है, यदि वह पुरस्कार तुरंत मिला हो। ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों से संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है, क्योंकि, न्यायपालिका और कार्यपालिका को अपनी लक्ष्मण-रेखाओं में ही रहना चाहिए और खबरपालिका को तो अपने प्रति और भी ज्यादा सख्ती बरतना चाहिए। यदि संपादक और पत्रकार इन पदों और सम्मानों के लिए लार टपकाते रहे तो वे पत्रकारिता क्या खाक करेंगे? मेरे कई पत्रकार मित्र विभिन्न सरकारों में मंत्री, राजदूत, और प्रधानमंत्रियों के सरकारी सलाहकार भी बने। उनमें से कइयों ने सराहनीय कार्य भी किए लेकिन इस तरह के कई सरकारी पद विभिन्न प्रधानमंत्रियों द्वारा पिछले 60-65 साल में मुझे कई बार प्रस्तावित किए गए लेकिन मेरा दिल कभी नहीं माना कि मैं हाँ कर दूं। इसका अर्थ यह नहीं है कि संपादकों, जजों और नौकरशाहों की प्रतिभा से सरकारें लाभ न उठाएं। जरूर उठाएं लेकिन उनके सेवा-निवृत्त होते ही उन्हें यदि नियुक्तियां मिलती हैं तो उससे यह साबित होता है कि सरकार उनकी प्रतिभा का लाभ उठाने की बजाय उन्होंने सरकार की जो खुशामद की है, वह उसका लाभ उन्हें दे रही है। इससे दाता और पाता, दोनों की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। तो होना क्या चाहिए? होना यह चाहिए कि अपने पद से सेवा-निवृत्त होने के बाद पांच साल तक किसी भी जज, पत्रकार और नौकरशाह को कोई सरकारी पद या पार्टी-पद नहीं दिया जाना चाहिए। नौकरशाहों पर पहले दो साल की पाबंदी थी लेकिन उसे घटाकर अब एक साल कर दिया गया है। वर्तमान में कितने ही नौकरशाह मंत्री और राज्यपाल बने हुए हैं? यह हमारी पार्टियों और सरकारों के बौद्धिक दिवालिएपन का भी सूचक है।