डिजिटल मीडिया की दुनिया : 31.9 करोड़ लोगों तक इंटरनेट का पहुंच

डिजिटल मीडिया की दुनिया : 31.9 करोड़ लोगों तक इंटरनेट का पहुंच

वनिता कोहली-खांडेकर——————–हाल ही मैंने कास्बा इंडिया फोरम में डिजिटल विज्ञापन पर चर्चा का संचालन किया था। कास्बा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में टीवी और वीडियो कंपनियों का संगठन है। इस सप्ताह मैं सालाना फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री या फिक्की फ्रेम्स कॉन्फ्रेंस के लिए मुंबई में थी।

यह भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग का सबसे बड़ा कार्यक्रम था और इस साल इसका विषय था डिजिटल। हाल में आयोजित इस उद्योग के बहुत से कार्यक्रम काफी हद तक डिजिटल विषय पर केंद्रित थे। इस बात को लेकर लगातार चर्चाएं हो रही हैं कि यह मीडिया उपभोक्ता के रूप में हमारी जिंदगी और इस पूरे उद्योग में कैसे बदलाव लाएगा। यह कुछ हद तक बदलाव लाया भी है। लेकिन इन चर्चाओं के बीच डिजिटल और डिजिटाइजेशन का मतलब ही कहीं गुम हो गया है। download

जब डिजिटल शब्द बोला जाता है तो आपके दिमाग में फोन, आईपैड, गूगल होम पेज या आपके पसंदीदा ऐप के आइकॉन की तस्वीरें उभरती हैं। लेकिन ये ही नहीं बल्कि टीवी भी डिजिटल है, जिसका ट्रांसमिशन और रिसेप्शन काफी हद तक डिजिटल है। लगभग हर सप्ताह वीडियो ऐप्स पेश किए जा रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर बड़े प्रसारकों के हैं या उनकी सामग्री से सुसज्जित हैं।

फिल्म क्षेत्र की वृद्धि में डिजिटल सिनेमाघरों की अहम भूमिका रही है। आप अपने मोबाइल फोन या लैपटॉप पर रेडियो या एक पॉडकास्ट डिजिटल सुन सकते हैं। समाचार-पत्रों में खबरें जुटाने, पृष्ठ तैयार करने और छापने सहित ज्यादातर गतिविधियां अब डिजिटल हैं।

ज्यादातर समाचार-पत्र ऐप्स या खुद की वेबसाइटों के जरिये ऑनलाइन उपलब्ध हैं। कुल मिलाकर अब ज्यादातर मीडिया डिजिटल हैं। इस आलेख का यह पहला बिंदु भी यही है कि डिजिटल मीडिया केवल इंटरनेट तक ही सीमित नहीं है।

दूसरा बिंदु यह है कि अगर भविष्य में डिजिटल तकनीक को नीचे तक पहुंचने दिया गया तो यह किसी भी उद्योग का स्वरूप बदल सकती है। फिल्म उद्योग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मृतप्राय फिल्म सिनेमाघरों के डिजिटलीकरण की शुरुआत 2005 में हुई और इसने 2008 से रफ्तार पकड़ी।

भारत में करीब 10,000 सिनेमाघर स्क्रीन हैं, जिनमें से 70 फीसदी से अधिक डिजिटल हैं। इस तकनीक से प्रिंट लागत घटती है और ज्यादा स्क्रीनों पर फिल्म को रिलीज किया जा सकता है। इससे फिल्म उद्योग मुनाफा कमाने में सक्षम बना है और यह इस तकनीक की बदौलत ही पाइरेसी पर अंकुश लगाने में सफल हुआ है।

फिल्म उद्योग पिछले दशक में तेजी से बढ़ा है और ऊंची कीमत पर टिकटों की बिक्री से प्राप्त होने वाला पैसा इस उद्योग में निवेश हुआ है, जिससे वित्तीय रूप से मजबूत और रचनात्मक रूप से समृद्ध भारतीय फिल्म उद्योग खड़ा करने में मदद मिली है। जब डिजिटल तकनीक से होने वाले लाभ को उद्योग पर खर्च नहीं किया जाता है तो इससे दिक्कतें पैदा होती हैं जैसी हम टीवी में देख रहे हैं।

पूरी तरह डिजिटल होने से करीब 12,000 करोड़ रुपये की अघोषित नकदी टीवी कारोबार में आ सकती है और इससे कार्यक्रम की गुणवत्ता सुधर सकती है। हालांकि यह कई वजहों जैसे डेडलाइन को आगे बढ़ाने, न्यायिक मामलों और कड़े नियमन से नहीं हो पाया है।

तीसरा बिंदु यह है कि पहुंच, राजस्व और प्रभाव को लेकर माध्यमों के बीच सीमाएं वास्तविक होने के बजाय विश्लेषण की सहूलियत के लिए हैं। इसके बारे में जरा विचार करें। इंटरनेट 31.9 करोड़ लोगों तक पहुंच रखता है, जबकि टीवी की पहुंच 84 करोड़ और समाचार-पत्रों की 30 करोड़ लोगों तक है। इसलिए पहुंच के हिसाब से इंटरनेट अच्छी स्थिति में है, लेकिन यह राजस्व में पिछड़ रहा है। हालांकि मास मीडिया की शुरुआत और सभी प्रमुख वेबसाइटों की सामग्री के बिना डिजिटल मीडिया संभव नहीं हो पाता।

उदाहरण के लिए मुख्यधारा के स्टूडियो और लिनियर टीवी सामग्री के बिना यूट्यूब कैसा होगा ? यूट्यूब पर आने वाले उपभोक्ताओं में इस सामग्री को देखने वालों की दो-तिहाई तादाद होती है। सबसे अच्छे वीडियो ऐप वे हैं, जिन्हें सबसे अच्छी सामग्री मिलती है। इनमें स्टार टीवी का हॉटस्टार और इरोस नाऊ भारत के सबसे बड़े फिल्म स्टूडियो का वीडियो ऐप है।

भले ही यह स्टार टीवी, इरोस, हूक या अन्य कोई ब्रांड हो, वे लोगों को अच्छी कहानियां बताकर ही दर्शकों को जोड़ सकते हैं। हममें से ज्यादातर लोग इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि हमने कहां एक अच्छा शो, फिल्म या एक अच्छी पुस्तक पढ़ी थी। हम यह याद रखते हैं कि यह बहुत अच्छी कहानी थी।

सभी मीडिया एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, कुछ ज्यादा कुछ कम। यह काम इंटरनेट बिना भौगोलिक बाधाओं के और संवाद की सुविधा देकर करता है। जब टीवी आया था तो हर कोई रेडियो या प्रिंट के खत्म होने की बात कर रहा था और जब इंटरनेट आया तो सभी मीडिया के खत्म होने की बातें होने लगीं। लेकिन कुछ भी खत्म नहीं हुआ  है, केवल उनका स्वरूप बदला है।

इसलिए समाचार-पत्र मल्टीमीडिया ऐप बन रहे हैं और टेलीविजन ‘ऑन डिमांड’ बन रहा है। समाचार पत्र पढऩे वाले लोगों और टीवी व फिल्म देखने वाले लोगों की तादाद में इजाफा हो रहा है। केवल इन बदलावों से पैसा कमाने वाली कंपनियां बदल रही हैं।

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