- February 11, 2024
जलवायु परिवर्तन के शोर से सन्नाटे तक : दीपमाला पाण्डेय
(लेखिका बरेली के एक सरकारी विद्यालय में प्रधानाचार्या हैं और दिव्यांग बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा में लाने के अपने प्रयासों के चलते माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम में भी शामिल हो चुकी हैं।)
दीपमाला पाण्डेय——केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने भारत में विभिन्न क्षेत्रों के लिए अनुमेय शोर स्तर निर्धारित किया हुआ है। ध्वनि प्रदूषण नियमों ने दिन और रात, दोनों समय के लिए, विभिन्न क्षेत्रों में शोर के स्वीकार्य स्तर को परिभाषित भी किया है।
जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में, अनुमेय सीमा दिन के लिए 75 डीबी और रात में 70 डीबी है। वहीं व्यावसायिक क्षेत्रों में, यह 65 डीबी और 55 डीबी है, जबकि आवासीय क्षेत्रों में यह दिन और रात के दौरान क्रमशः 55 डीबी और 45 डीबी है।
इसके अतिरिक्त, कई राज्य सरकारों ने ‘साइलेंट ज़ोन’ भी घोषित किए हुए हैं। इनमें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और अदालतों के परिसर के 100 मीटर के दायरे में आने वाले क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र में अनुमेय शोर सीमा दिन के दौरान 50 डीबी और रात के दौरान 40 डीबी है।
लेकिन क्या आपको लगता है हमारे चारों ओर का शोर स्वीकार्य स्तर के अंदर ही है? डाउन तो अर्थ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख की मानें तो साल 2011 में स्थापित राष्ट्रीय परिवेश शोर निगरानी नेटवर्क के अंतर्गत देश के सात शहरों (बैंगलोर, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, लखनऊ और मुंबई) में 70 शोर निगरानी स्टेशन हैं।
इन सात शहरों के परिवेशीय शोर स्तर के आंकड़ों से पता चला कि इनमें से लगभग 90 प्रतिशत स्टेशनों पर दिन और रात दोनों के दौरान शोर का स्तर स्वीकृत सीमा से अधिक पाया गया। कुछ स्टेशनों पर, शोर का स्तर अनुमत मानदंडों से लगभग दोगुना से अधिक दर्ज किया गया।
मुझे ऐसा लगता है आपको इन आंकड़ों की ज़रूरत नहीं होगी और आपको अपने स्वयं के अनुभव से पता होगा कि हमारे चारों ओर शोर बढ़ता ही जा रहा है।
कहानी शुभी की
जहां एक ओर हम और आप अपने चारों ओर बढ़ते इस शोर को सुन सकते हैं और इससे परेशान हो रहे हैं, वहीं दसवीं कि छात्रा शुभी इस शोर को नहीं सुन सकती। दरअसल वो सुन ही नहीं सकती।
शुभी जन्मजात श्रवण बाधित है। साइन लैंग्वेज के माध्यम से वह एक समावेशी विद्यालय में पढ़ती है। लेकिन उसके मन में हमेशा एक मलाल रहता है। वो सोचती है कि यदि समय रहते उसके कॉक्लियर इंप्लांट लगवा दिया गया होता तो वह भी अपनी कक्षा के अन्य बच्चों की तरह सुन और बोल सकती। लेकिन जानकारी और संसाधनों की कमी के चलते ऐसा नहीं हो सका।
लेकिन शुभी अकेली नहीं है। अनभिज्ञता और लापरवाही के कारण, कई बच्चे श्रवण बाधित हो जाते हैं। सरकार की ADIP योजना के तहत निशुल्क इंप्लांट उपलब्ध है, लेकिन जागरूकता की कमी इस योजना का लाभ उठाने में बाधा बनती है। इस क्रम में मैं होपेलाइन (+91-8755-797-633) के माध्यम से ऐसे पात्र बच्चों का निशुल्क कॉक्लियर इंप्लांट लगवाने की कोशिश कर रही हूँ।
यहाँ जो बात मुझे खटकती है वो ये कि शुभी जैसे बच्चों की समस्या का समाधान तो हम निकाल सकते हैं अगर समस्या का पता सही समय पर लग जाये। लेकिन उस समस्या का क्या जिससे हम जूझ रहे हैं और हमें उसका पता भी नहीं चलता?
समस्या को सुनिए
श्रवण हानि सिर्फ जन्मजात नहीं होती। हम दैनिक रूप से श्रवण बाधित हो रहे हैं और हमें पता ही नहीं चल रहा। हम इतने शोर में रहने के आदी होते जा रहे हैं कि स्वीकार्य स्तर की अधिकतम सीमा हमारे लिए सामान्य स्तर होता जा रहा है। ठीक वैसे जैसे एक्यूआई के असामान्य और अस्वीकार्य स्तर हमें सामान्य लगने लगे हैं।
बढ़ता ध्वनि प्रदूषण हमारी सुनने की क्षमता को कम कर रहा है। वयस्कों में लगभग 16% श्रवण हानि कार्यस्थल के शोर से जुड़ी होती है। और इससे जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा भी गंवाना पड़ता है।
भारत में 1.57 मिलियन बच्चे श्रवण बाधित हैं, और प्रति एक लाख जनसंख्या पर लगभग 291 व्यक्ति गंभीर से गहन श्रवण हानि से पीड़ित हैं। डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि भारत में लगभग 63 मिलियन लोग महत्वपूर्ण श्रवण हानि से पीड़ित हैं।
व्यावसायिक श्रवण हानि
व्यावसायिक श्रवण हानि या ऑक्युपेशनल हियरिंग लॉस तब होता है जब हम अपने कार्यस्थल पर होने वाले तेज शोर के चलते अपनी सुनने की क्षमता खोते हैं। धीरे-धीरे होने वाली यह क्षति आंशिक या पूर्ण श्रवण हानि, टिनिटस और मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डाल सकती है।
निर्माण, विनिर्माण और खनन जैसे उद्योगों में श्रमिकों को 85 डेसिबल (डीबी) से अधिक शोर के स्तर का सामना करना पड़ता है, जिससे व्यावसायिक श्रवण हानि का खतरा बढ़ जाता है। खनन, तेल एवं गैस निष्कर्षण और स्वास्थ्य पेशेवरों को भी इस खतरे का सामना करना पड़ता है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ ने श्रमिकों को विभिन्न शोर स्तरों के बीच सुरक्षित रूप से कितने समय तक रखा जा सकता है, इस बारे में दिशानिर्देश जारी किए हैं। लेकिन, भारत में कई उद्योग इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते, जिससे व्यावसायिक श्रवण हानि के मामले बढ़ रहे हैं।
अब बात दूर तक जा चुकी है
पहले ऐसा माना जाता था कि श्रवण हानि या तो जन्मजात होती या फिर किसी दुर्घटना के चलते या फिर व्यावसायिक श्रवण हानि कि शक्ल में। लेकिन अब बात दूर तक जा चुकी है। अब शोर इतना है चारों ओर कि व्यावसायिक श्रवण हानि दैनिक श्रवण हानि बनती जा रही है। अब जिस तीव्रता से शोर चारों ओर बढ़ रहा है, उसी तीव्रता से रोज़ हमारे सुनने की क्षमता घटती जा रही है।
यह एक गंभीर समस्या है, जिसके लिए जागरूकता और सख्त नियमों की आवश्यकता है। सरकार, उद्योगों और नागरिकों को मिलकर इस समस्या का समाधान करना होगा। क्योंकि मैं दिव्यांग बच्चों के साथ काम करती हूँ इसलिए इस समस्या की व्यापकता अपेक्षाकृत अधिक समझती हूँ और इसी वजह से चिंतित महसूस करती हूँ।
क्लाइमेट कनैक्शन
सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन ये सच है कि बदलती जलवायु हमें श्रवण बाधित भी बना रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि बढ़ता शोर सीधे तौर पर बढ़ती मानवीय गतिविधियों का नतीजा है। और बढ़ती मानवीय गतिविधियां बढ़ाती हैं कार्बन एमिशन। और बढ़ते कार्बन एमिशन से मिलती है जलवायु परिवर्तन को गति। और जब जलवायु परिवर्तन को मिलती है तेज़ी तब भुगतने पड़ते हैं हमें नतीजे।
जैसे जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे वैसे उस जनसंख्या की मांग बढ़ रही है, उपभोग बढ़ रहा है। इस बढ़ती हुई मांग और उपभोग को पूरा करने के लिए बढ़ रहा है औद्योगीकरण और बढ़ रही हैं मानवीय गतिविधियां। और इस सब में बढ़ रहा है शोर। लेकिन बात सिर्फ ध्वनि प्रदूषण तक सीमित नहीं है बल्कि यह शोर कार्बन एमिशन का सह-उत्पाद है और एक ही सिक्के का दूसरा पहलू है। मूल रूप से जलवायु परिवर्तन जो कि हमारी दैनिक गतिविधियों और संसाधनों के दोहन का परिणाम है कहीं ना कहीं हमें और आपको धीरे-धीरे बहरा बना रहा है। हमारे ही विद्यालय में पढ़ने वाली अंशु के पिताजी फैक्ट्री में काम करते-करते अपनी श्रवण शक्ति खो चुके हैं।