• March 2, 2016

जरा परखें पाँव छूने वालों को – डॉ. दीपक आचार्य

जरा परखें  पाँव छूने वालों को  – डॉ. दीपक आचार्य

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 ज्यों-ज्यों आदमी के भीतर से आदमियत और मौलिक  इंसानी क्षमताएं खत्म  होती जा रही हैं वह औरों की शरण में पहुंच कर अपने आदमी होने के वजूद को जिन्दा रखने की हरचन्द कोशिशें करना चाहता  चाहता है और इसलिए वह उन सभी प्रकार की आदतों को अपनाने लगता है जो आदमी को सहारा देने के लिए बैसाखियों का काम करती हैं और जिन्दगी में हर मोड़ पर सहारा देती हुई आदमी के अस्तित्व को बरकरार रखने की कोशिशें करती हैं।

भारतीय संस्कृति और परंपराओं में माता-पिता, गुरु, बुजुर्गों और शुद्ध चित्त पवित्र आत्माओं, संत-महात्माओं और विद्वजनों को अभिवादन एवं चरण स्पर्श करना संस्कारों का प्रमुख अंग रहा है और हर अच्छे इंसान का कर्तव्य भी है कि वह इन मर्यादाओं का पालन करें।

पर आजकल अभिवादन और चरण स्पर्श के मामले में कई विचित्रताएं हमारे सामने हैं। बहुत कम लोग होंंगे जिन्हें नमस्कार और चरण स्पर्श करने की विनम्र विधि का ज्ञान हो अन्यथा अधिकांश लोग तो अभिवादन और चरणस्पर्श के नाम पर सिर्फ औपचारिकता ही पूरी करते रहे हैं।

इन लोगों की इन भावमुद्राआंंे में न श्रद्धा होती है, न आदर-सम्मान या कोई अच्छी भावना। ये लोग केवल अपने काम निकलवाने, स्वार्थ पूरा करने और सामने वालों को उल्लू बनाने भर के लिए ही झुक-झुक कर अभिवादन करते हैं, दिखावटी एवं मिथ्या श्रद्धा का परिचय देते हुए इस तरह पाँव छूएंगे कि जैसे पूरी दुनिया में ये ही वे लोग हैं जो असली श्रद्धालु, मोहग्रस्त या अंध भक्त होें।

पारिवारिक संबंध हों या किसी प्रकार के आत्मीय संबंध, इनमें यह सब सच्चाई के करीब लगता है लेकिन नब्बे फीसदी मामलों में साफ कहा जा सकता है कि लोग ऊपर से श्रद्धा या आदर-सम्मान दिखाते हैं , उनके मन में सामने वालों के प्रति किंचित मात्र भी अपनेपन का कोई भाव नहीं होता।

या तो ये लोग किसी आशंका या भय से पाँव छूते हैं और दिखावटी श्रद्धा दर्शाते हैं अथवा अपने किसी न किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर भावी कामों की पूर्णता के लिए पाँव छूते हैं। बहुत सारे ऎसे महान लोग भी हैं जो कि सार्वजनिक तौर पर पाँव छूकर श्रद्धा दिखाते हैं और मौका मिलने पर ठोकर मारते भी देर नहीं करते।

हमारे आस-पास और हमारे जीवन में ऎसे अनगिनत लोग मिल जाएंगे जो कि मौका पड़ने पर पाँव छूते रहते हैं और पॉवर चले जाने पर देखते तक नहीं। ढेरों लोगों के लिए पाँव छूना जीवन भर के लिए परंपरा या आदत बन जाती है। जो कोई नया पॉवर वाला या प्रभावशाली आया नहीं कि झट से छू लिए पाँव।

पारिवारिक संबंधों में भी चरण स्पर्श ने स्वार्थ का चौला ओढ़ रखा है। हमारे परिवार या कुटुम्ब अथवा समाज में उन्हीं के पाँव छूने को हम लालायित रहते हैं जो लोग हमारे काम आ सकते हैं, जिनसे हमारे स्वार्थ सधते हैं अथवा जो पैसे वाले हैं।

बेचारे वे लोग हमेशा उपेक्षित रह जाते हैं जो निर्धन हैं चाहे हमसे कितने ही बड़े, स्वजन अथवा विद्वान क्यों न हों। हम पूरी जिन्दगी जिन्दगी दोहरे मापदण्डों और बहुरूपिया परंपरा के आधार पर जीने के आदी हो गए हैं  जहाँ हमें मर्यादाओं, संस्कार या परंपराओं से कोई सरोकार नहीं है, हमारे लिए अपने कामों और स्वार्थों से ही संबंध रह गया है। जो हमारे काम आ सकता है वह पूजनीय है और जो नहीं आ सकता वह उपेक्षा या तिरस्कार के योग्य।

आजकल पाँव छूने वाले हर जगह बहुतायत में मिल जाते हैं जैसे कि प्याज की कोई बड़ी मण्डी हो।  कुछ लोग तो एक-एक दिन में सौ-सौ लोगों के पाँव छूकर अपने आपको धन्य मानते रहते हैं। फिर पाँव छुआने वाले भी कहाँ कम हैं। दुनिया भर में अच्छे लोग जिन्हें नकार दिया करते हैं वे लोग अपने आपको पूज्य और प्रिय मनवाने के लिए पाँव छुआते रहते हैं और इसी से उनकी खुशियां अनन्त आनंद के स्रोत खोलती रहती हैं।

पाँव छूने का सीधा सा अर्थ है कि हम सामने वालों के चरणों के अंगूठों तक को छूए और  समर्पण भाव से पाँव छूएं। ज्यों-ज्यों नई सदियां आती गई त्यों-त्यों हमारा झुकना कम होता गया। हमें अब अधिक झुकने में मौत आती है अथवा हमारा अहंकार इसकी ईजाजत नहीं देता।

अब तो चरण स्पर्श अजीब स्थितियों में पहुँच चुका है। सबने अपने-अपने शोर्ट कट निकाल लिए हैं। पाँव के अंगूठों तक शायद ही कोई स्पर्श करता होगा। बहुत से लोग तो दूर से ही चरणस्पर्श की मुद्रा का दिग्दर्शन कर लिया करते हैं।

 बचे-खुचे लोग टाँगों तक ही पहुंच पाते हैं, इनसे भी आधुनिक लोग घुटनों तक ही पहुंचकर चरणस्पर्श हो जाना मान लिया करते हैं। धीरे-धीरे हम पाँवों से दूरी बढ़ाते जा रहे हैं। पता नहीं यह सब ऎसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में नाम  तो चरण स्पर्श का होगा और हम करते रहेंगे कभी हाथ स्पर्श, बगला स्पर्श,कान स्पर्श, नाक स्पर्श और फिर माथा स्पर्श।

आजकल हम सभी इतने अहंकारी हो गए हैं कि ठूंठ की तरह ठठ के ठठ खड़े और अड़े रहने की आदत पाल लिये हैं, झुकना न हमेें अब आता है,  न किसी के आगे झुकना चाहते हैं। फिर चाहे सामने हमारे माँ-बाप, अग्रज, गुरुजन या आत्मीय बड़े-बुजुर्ग ही क्यों न हों।  हम चाहें तब भी नहीं झुक पाते क्योंकि हम अहंकार के भार से दबे हुए हैं, यह अहंकार हम पर इतना हावी है कि हमें कभी झुकने नहीं देता।

किसी को पद-प्रतिष्ठा और लोकप्रियता का अहंकार है, किसी को हराम की कमाई से पाए वैभव और भोग-विलासी संसाधनों का, और किसी को अपने उन आकाओं के साथ रिश्तों का, जिनके बूते वे बंदरिया उछलकूद करते रहते हैं। बहुत सारे लोगों को किसी न किसी का अहंकार इतना व्याप्त है कि वे चाहते हुए भी न विनम्र हो सकते हैं, न झुक पाते हैं। इनकी अकड़ ही है जो इन्हें आम इंसानों से दूर रखा करती है। और जिनमें अकड़ होती है वे मुर्दों की तरह ही संवेदनहीन होते हैं।

पाँव छूने वालों के चरित्र को देखना हो तो जरा उन सभी लोगों के बारे में जानने की कोशिश करें जो हमारे पाँव छूते हैं। इससे अपने आप इन चरणस्पर्शी सम्प्रदाय के साधकों की भी पोल खुल जाएगी और  चरणस्पर्श से प्रसन्न होने वाले हम सभी चरणस्पर्श सुखी महंतों और मठाधीशों को भी सत्य का भान हो ही जाएगा।

यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि चरणस्पर्श करने वालों की श्रद्धा हम पर नहीं होती बल्कि हमारे पद और प्रतिष्ठा, पॉवर के प्रति होती है और जब तक हमारे पास यह सब कुछ है, तब तक चरणस्पर्श करते रहेंगे, इसके बाद भूल भाल जाएंगे। और बहुत से चरणस्पर्श करने वालों को देख कर लगता है कि जैसे टांग ख्िंाचने के लिए रेकी ही कर रहे हों।

ऎसे बहुत से चरणस्पर्शी लोग कुछ समय बाद टाँग खिंचते या अपने कामों में टाँग फंसाते हुए नज़र आते हैं जो कि हमारे चरणस्पर्श करते हुए थकते नहीं थे। पाँव छूएं मगर तभी जब श्रद्धा हो और वह भी स्थायी भाव लिए हुए।

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