- April 5, 2016
कुछ न छिपाएं … – डॉ. दीपक आचार्य
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आनंद पाने के लिए सभी लोग उतावले रहते हैं। सभी को आनंद पसंद है और इसके लिए सभी उस हर रास्ते, सूत्र, इंसान और संसाधनों को पकड़ने के लिए हरचन्द कोशिश करते हैं जहां से आनंद प्राप्ति की गुंजाइश हो।
क्षणिक और आयातित आनंद का वजूद अधिक देर तक नहीं रहता। न इंसानों से प्राप्त आनंद स्थायी रह पाता है, न संसाधनों से, चाहे वे भोग-विलास की चरमावस्था का अनुभव कराने वाले ही क्यों न हों।
हम सभी लोग आनंद की प्राप्ति का लक्ष्य तो रखते हैं लेकिन आनंद भाव की प्राप्ति के लिए जरूरी कारकों और आवश्यकताओं की उपेक्षा करते रहते हैं। यही कारण है कि हमारा आनंद भाव स्थायी नहीं रह पाता और बार-बार खण्डित होता चला जाता है।
जब तक आनंद के स्थायी भाव को निरन्तर बनाए रखने वाली बुनियाद मजबूत नहीं होगी तब तक हमें शाश्वत आनंद और जीवन-तृप्ति की अनुभूति होना संभव नहीं है। अभी हम सभी लोग आनंद पाने के जतन करते हैं और रोज कूआ खोद कर पानी निकालने की स्थितियां व्याप्त हैं।
इस बुनियाद को मजबूत करने के लिए सबसे पहली शर्त है पारदर्शिता, फिर खुलापन, सत्य का आश्रय और निरपेक्षता एवं निष्काम भाव को अंगीकार करना। इससे हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में महा आनंद का सहज-स्वाभाविक अनुभव किया जा सकता है।
मन-मस्तिष्क के सारे व्यवहारों में इतनी पारदर्शिता होनी चाहिए कि कुछ भी सायास न छिपाया जाए। जो दिमाग और मन में होता है उसका प्रकटीकरण व्यवहार और कर्म में पूरी शुद्धता एवं मौलिकता के साथ होना चाहिए।
जीवन के हर कर्म में पूरा खुलापन होना चाहिए। अपनी कोई सी छोटी या बड़ी बात या कर्म ऎसा न हो कि जिसे छिपाने के लिए लाख जतन करने पड़ें, कुछ छिपाना पड़े। जीवन की जो कोई घटना, विचार या प्रतिक्रिया है उसे भीतर छिपाए न रखें, पूर्ण अभिव्यक्ति कर डालें।
मन-मस्तिष्क पूरी तरह खाली होना चाहिए। यह खालीपन और खुलापन होगा तभी ईश्वरीय सत्ता अपने भीतर उन विचारों, ऊर्जाओं और संकेतों से भरी तरंगों को हमारे भीतर भर पाने में सफल होगी जो हमारे जीवन निर्माण और प्रगति के लिए नितान्त जरूरी हैं।
सर्वांग व्यक्तित्व से लेकर चेहरे तक की चमक-दमक और शरीर के ओज-तेज के लिए जरूरी है कि हमारे दिल और दिमाग में ऎसी कोई बात रहे ही नहीं, जिसे कि छिपाए रखने के लिए हमें हर क्षण सोचना और प्रयास करना पड़े।
यह स्वाभाविक ही है कि हर इंसान के जीवन में कई बातें ऎसी होती हैं जिसे वह नकारात्मक, अपयश और प्रतिष्ठा हानि करने वाली मानता रहता है और कई बातें अच्छी भी होती हैं जिन्हें वह सायास दबाए रखता है और समुचित समय की प्रतीक्षा करता रहता है।
दोनों ही स्थितियों में कोई सी बात अपने मन में नहीं रखें चाहे उसके कितने ही घातक परिणाम सामने क्यों न आएं। हम सभी इंसान ईश्वर के प्रति जवाबदेह हैं इसलिए किसी भी स्तर पर दूसरे इंसानों से भय खाने, प्रतिष्ठा हानि या दुःख प्राप्त होने तथा अपयश की आशंका नहीं रखनी चाहिए। लाभ-हानि देना ईश्वर का अधिकार है।
जो मन में दफन है उसका प्रकटीकरण कहीं न कहीं बाहर हो जाना चाहिए ताकि मन साफ रहे और इसका कोना-कोना स्वच्छ बना रहे। अपने किसी खराब कर्म की जानकारी बाहर आने पर यदि कोई इसके मजे लेता है, दुरुपयोग करता है अथवा इन बातों को आधार मानकर हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है, तब यह समझ लेना चाहिए कि इन बातों का पाप वह अपने सर पर ले रहा है और इससे अपनी बुरी बातों और इससे उत्पन्न पापों का क्षय हो जाता है।
जितने अधिक लोगों तक हमारे मन की बात निकल कर पहुंच जाएगी, जितने लोग सुनते हैं, मजे लेते हैं और दुरुपयोग करते हैं उन सभी तक पहुंचते-पहुंचते एक स्थिति यह आ जाती है कि उस विषय विशेष से संबंधित हमारे संचित पाप अपने आप नष्ट हो जाते हैं व उन लोगों के खाते अंकित हो जाते हैं जो लोग चटखारे ले लेकर या शिकायतें कर कर के इनके मजे लेते हैं और अपने आपको हमारे पापों से लिप्त कर डालते हैंं। इस वजह से अन्ततोगत्वा हमारे लिए ये पाप ज्यादा प्रभावी नहीं रहते।
इसके साथ ही दूसरा फायदा यह हो जाता है कि दूसरे के दिमाग और दिल में अपनी नकारात्मक बातों, कुकर्म और पापों का कचरा डाल दिए जाने से हम कचरे से मुक्त होकर साफ-सफाई का अनुभव करने लगते हैं।
जिस अनुपात में हम खाली, साफ और पूर्ण स्वच्छता के साथ पारदर्शी होते जाते हैं उस खाली स्थान को भरने का काम ईश्वरीय दिव्य शक्तियां करती हैं। वस्तुतः यही हमारे जीवन की आशातीत सफलता के आधारों को मजबूती देती हैं।
हर क्षण बिन्दास और मस्त रहने का यही एकमात्र मूलमंत्र है, जो इसे अपना लेता है वह निहाल हो जाता है। जो छिपाता है उसे जीवन में किसी न किसी समय छिपने को विवश होना पड़ता है। कितना अच्छा हो कि हम अपने भीतर ऎसा कुछ रखे ही नहीं कि जिसे छिपाए रखने के लिए हमें अपने जीवन के बहुमूल्य क्षणों को खर्च करना पड़े, और इसका कोई फायदा भी न हो।