- April 2, 2016
आम इंसान ही करता है हमारा सच्चा मूल्यांकन – डॉ. दीपक आचार्य
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हमारा कर्मक्षेत्र कोई सा, कहीं भी हम काम करते हों, कोई सा पद हो, सरकारी, अद्र्धसरकारी, गैर सरकारी या निजी संस्थान, सब जगह हर तरह के लोग विद्यमान हैं और सबकी अपनी-अपनी कार्यशैली है जिसके बूते कुछ लोग सकारात्मक और सहयोगी भूमिका भरी पहचान बना लेते हैं और लोक प्रतिष्ठ हो जाते हैं।
बहुत सारे लोग अपने कर्मक्षेत्रों के प्रति वफादार नहीं होते। इनकी आदतें, स्वभाव और काम करने के तौर-तरीके ही ऎसे नकारात्मक, टालू और मायूसी भरे होते हैं कि लोग इनकी शक्ल देखना भी पसंद नहीं करते।
हर किस्म के कर्मयोगियों की अपनी-अपनी विलक्षणताएं होती हैं जिनके आधार पर वे साठ-बासठ साला और पाँच साला बाड़ों और गलियारों में अपना वजूद कायम करते हुए जायज-नाजायज मनोवृत्तियों का खुला प्रदर्शन करते रहते हैं।
अधिकांश लोगों के जेहन में राजधर्म और मानव धर्म की बजाय अपने-पराये, राग-द्वेष और स्वार्थ भरी भावनाएं कूट-कूट कर भरी होती हैं। कुछ लोग जाति और धर्म को अधिक महत्व देते हैं और अधिकतर लोग अपने स्वार्थ या कमाई को।
काफी सारे लोगों के लिए उन हजारों-लाखों इंसानों का कोई मोल नहीं होता जिन पर प्रजातंत्र और देश की अस्मिता टिकी हुई है। ये लोग चंद इंसानों के इर्द-गिर्द ही रहने के आदी हो जाते हैं, उन्हीं को खुश करने की कला आजमा कर जिन्दगी निकाल देते हैं।
इन लोगों को लगता है कि यही वे लोग हैं जिन्हें ईश्वर के रूप में पूजने, चरणस्पर्श करते रहने और इन्हीं के महिमागान में रमे रहने की आदत होती है। फिर जिन लोगों से सीधे स्वार्थ पूरे होने की उम्मीद हो, उन्हें हम अपने कर्मस्थलों से लेकर घरों तक में वीआईपी ट्रीटमेंट देते हैं।
हमारा हर क्षण यही प्रयास रहता है कि हम उन लोगों को खुश रखें जो हमारे काम आते हैं या भविष्य में जिनसे कोई काम निकलने अथवा स्वार्थ पूरा होने की किसी तरह उम्मीद हो। बहुत से लोग ऎसे देखे जाते हैं जो कि अपने कार्यस्थलों पर उन्हीं के तवज्जो देते हैं जो कि या तो उनके रिश्तेदार या आका हों,कोई न कोई स्वार्थ पूरे करने वाले हों या फिर उनके किसी न किसी काम आने वाले।
ये लोग आ जाएं तो उन्हें भरपूर आतिथ्य मिलता है और सारे काम फटाफट हो भी जाते हैं। इंसानी स्वार्थ और खुदगर्जी के मौजूदा दौर में जो लोग राजधर्म के निर्वाह में पक्षपाती व्यवहार बरतते हैं, अपना-पराया करते हैं उनका कर्मयोग अभिशप्त रहता है और ये लोग सभी प्रकार के हथकण्डों और गोरखधंधों के अपनाने के बावजूद खुश नहीं रह सकते।
ये जिन्दगी भर मुर्दानगी और मलीनता के साथ जीते हैं, इनके चेहरे से प्रसन्नता गायब रहती है और कोई न कोई समस्या व बीमारी समानान्तर चलती रहती है जिसकी वजह से ये दिन-रात परेशान रहा करते हैं।
हम चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, यह अहंकार कभी न पालें कि हम सर्वप्रिय, अजातशत्रु और महान हैं। हमारे पास किसी काम से आने वाला या बिना काम के सम्पर्क में आने वाला अपरिचित आम इंसान हमारे कर्म, व्यवहार और व्यक्तित्व का वह आईना होता है जो सौ फीसदी सत्य बोलता है और यही हमारे सर्वांग व्यक्तित्व के मूल्यांकन का सशक्त मूल आधार है।
परिचितों, पूंजीपतियों, पूंजीवादियों, सुविधादाताओं और प्रभावशालियों के काम तो सब करते ही हैं, मजा तो तब है कि जब हम उस इंसान के काम आएं जिनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं होता। न हमारा रिश्तेदार हो, न हमारी अपेक्षा पूरी करने वाला।
नितान्त अपरिचित इंसान यदि हमारे बारे में सकारात्मक धारणा व्यक्त करे, तभी यह माना जाना चाहिए कि हम अच्छे इंसान हैं। आम इंसान यदि हमारे काम-काज, व्यवहार और स्वभाव से खुश नहीं हो तब यह मान लेना चाहिए कि मनुष्य के रूप में हमारा जीना एकदम व्यर्थ है और मनुष्य के रूप में जो दुर्लभ तन मिला है उसे हमने गँवा दिया।
इस स्थिति में हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारा अगला जन्म इंसान के रूप में होना नितान्त असंभव है क्योंकि भगवान ने हमें इंसान बनाकर भेजा है और हम इंसानियत के मामले में हर मामले में फेल हैं।
प्रयास यह करना होगा कि हम अपने दायित्व के प्रति ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ समर्पित रहें, आशा-अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरी तरह त्यागें, पुरुषार्थहीन और नाजायज धन या संसाधन प्राप्ति का मोह त्यागें और सेवा तथा परोपकार की भावना से काम करें।
सच्चा इंसान वही है जो आम इंसान की सेवा सरोकारों से जुड़ी सभी कसौटियों पर खरा उतरे। पैसे की आवक अच्छी लगती है, सुकून देती है लेकिन यह पैसा अपने जाने के सारे रास्ते खुले रखता है। जब निकलने लगता है तब होश उड़ा देता है, यह समय कभी भी आ सकता है।
इसी तरह गरीब की आह दिखती नहीं लेकिन सब कुछ भस्म कर देने के लिए काफी है। आम इंसान के डेरे से निकलने वाली यह आह और बद्दुआओं को सैलाब ही ऎसा है कि जो कुछ भी कर सकता है।