अमेरिका, रूस के साथ रिश्तों में संतुलन जरूरी

अमेरिका, रूस के साथ रिश्तों में संतुलन जरूरी

प्रेमवीर दास (बिजनेस स्टैंडर्ड) —- भारत और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच संवाद हाल ही में समाप्त हुआ। इस दौरान बुनियादी आदान-प्रदान एवं सहयोग समझौता शीर्षक वाले चौथे और आखिरी बुनियादी समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। समझौते में वादा किया गया है कि भारत को उन अत्याधुनिक तकनीकों तक पहुंच और बिना किसी देर के (रियल टाइम) भौगोलिक आंकड़े तथा सूचना मिल सकेंगी, जो अब तक अमेरिका के नाटो सहयोगियों को ही उपलब्ध हैं।

भारत के सामरिक रिश्ते अब नई ऊंचाई पर हैं, जिससे अन्य मामलों के अलावा हमें चीन से निपटने में भी मदद मिलेगी। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के बारे में बार-बार कहा गया है कि इस क्षेत्र में सुरक्षित परिवहन और स्वतंत्र आवाजाही सुनिश्चित करना हमारा साझा हित है। संक्षेप में कहें तो यह बैठक बताती है कि दोनों देश घोषित भले ही न करें लेकिन वे साझेदार हैं। इस रिश्ते को कुछ संदर्भ प्रदान करना आवश्यक है।

भारत के लिए रक्षा सहयोग नया नहीं है। 1960 के दशक के मध्य तक यह पूरी तरह ब्रिटेन के साथ हमारे रिश्तों पर केंद्रित था। हमारी सेना का पूरा असबाब और सैन्य बलों के तमाम सिद्धांतों की बुनियाद ब्रिटेन से प्रेरित थी। समुद्र में ‘त्रिणकोमाली में संयुक्त अभ्यास’ के नाम से हर साल समुद्र में बहुपक्षीय कवायद होती थी, जिसमें भारत और पाकिस्तान समेत छह राष्ट्रमंडल देशों की नौसेनाएं हिस्सा लेती थीं। वह भी तब, जबकि 1948 में भारत और पाकिस्तान की सेनाएं आपस में लड़ चुकी थीं।

मगर 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के बाद तस्वीर बदलने लगी। ब्रिटेन हमारी जरूरतों खासकर आधुनिक पनडुब्बियों की हमारी जरूरत को लेकर बहुत उत्सुक नहीं था। इन्हें अमेरिका से हासिल करने की कोशिश में भी नाकामी हाथ लगी क्योंकि उसने भारत से कहा कि हम अपनी मांग ब्रिटेन के जरिये आगे बढ़ाएं। तब तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई बी चव्हाण ने तत्कालीन सोवियत संघ का रुख किया और कुछ ही वर्ष में भारत की जरूरतें पूरी होनी शुरू हो गईं। यह काम आसान शर्तों पर मिले ऋण के माध्यम से हो रहा था। इन उपकरणों की कीमत केवल दो प्रतिशत ब्याज दर पर 15 वर्ष में चुकानी थी।

सन 1971 यानी पाकिस्तान के साथ हमारी अगली लड़ाई छिडऩे तक भारत के पास मिसाइल बोट और एफ श्रेणी की पनडुब्बियां आ गई थीं। मिसाइल बोट ने कराची में शत्रु के ठिकानों का क्या हश्र किया यह तो अब दुनिया जानती है। इसके बाद के तमाम वर्षों में देश की तीनों सेनाओं को बेहतर गुणवत्ता वाली अन्य सामग्री हासिल हुई। सन 1990 तक भारत की सेना 1970 के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में आ चुकी थी।

सन 1988 में हमें परमाणु हथियार की क्षमता वाली पनडुब्बियां भी मिल गईं। इसी अवधि में हमें युद्धपोत और विमान, हथियार, संवेदी उपकरण और मशीनरी आदि बनाने की तकनीक भी उपलब्ध कराई गई। इसके बाद ही भारत में बीएमपी, टी72, टी90 हथियारबंद वाहन, मिग-21 लड़ाकू विमान और बाद में सुखोई 30 एमकेआई विमान, मिसाइल क्षमता युक्त पोत और इन सबसे बढ़कर अरिहंत श्रेणी की परमाणु क्षमतासंपन्न पनडुब्बी और उनके रिएक्टर बनाना संभव हुआ। इसके बाद नंबर आया ब्रह्मोस मिसाइल का।

हमें सन 1971 की भारत और सोवियत संघ की संधि को भूलना नहीं चाहिए। उसके चलते ही चीन ने तत्कालीन विवाद में कूदने से परहेज किया। भले ही थोड़ी कमजोरी आई हो लेकिन वह रिश्ता अब भी जारी है। नए सिरे से परमाणु क्षमता युक्त पनडुब्बियों और एस-400 मिसाइल सिस्टम की खेप मिलना इसकी बानगी है।

यहां बात आती है भारत और अमेरिका के रक्षा रिश्तों की। सन 1971 में अमेरिका का रुख शत्रुतापूर्ण था और इसलिए जो थोड़े बहुत सैन्य संबंध थे वे और कमजोर पड़े तथा 1990 में तत्कालीन सोवियत संघ के पतन तक हालात ऐसे ही रहे। इसके बाद नाटकीय रूप से बदले परिदृश्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने रिश्तों में सुधार की अहमियत को समझा। अमेरिका को भी यह बात समझ में आई। जनवरी 1995 में अमेरिकी रक्षा मंत्री विलियम पेरी भारत की यात्रा पर आए। इस अवसर पर दो पृष्ठों के एक सहयोग समझौता ज्ञापन पर भी हस्ताक्षर किए गए। हालांकि सन 1998 में भारत के परमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगा दिए जिसके कारण सन 2005 तक दोनों के रिश्तों में प्रगति ढीली रही। परंतु उसी वर्ष हुए समझौते के बाद रिश्तों में एक बार फिर गति आई। उसके बाद से हमने अमेरिका से उन्नत सैन्य उपकरण, खासतौर पर विमानों का आयात किया है। करीब 20 अरब डॉलर के इन सौदों की बदौलत अमेरिका, रूस को पीछे छोड़कर हमारा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया। हालांकि इनमें से कुछ भी भारत में नहीं बना।

भारत की पनडुब्बी निर्माण योजना जर्मनी के सहयोग से आरंभ हुई और अब यह फ्रांस की मदद से जारी है। भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग मोटे तौर पर खरीद आधारित है। दोनों सेनाओं खासकर नौसेनाओं के बीच मलाबार संयुक्त अभ्यास भी अहम गतिविधि है। लेकिन यह गतिविधि अब द्विपक्षीय नहीं रही। इसमें चार देश हिस्सा लेते हैं और मोटे तौर पर यह पेशेवर गतिविधि बन गई है, जिसमें सामरिक अर्थ निकालना ज्यादाती होगी।

भविष्य में कोई अमेरिकी सैन्य प्लेटफॉर्म बनाने की संभावना इस बात पर निर्भर है कि हम उससे एफ-18 लड़ाकू विमान खरीदते हैं या नहीं। जब अमेरिकी संवाददाताओं ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से पूछा कि क्या ऐसा होगा तो वह स्पष्ट जवाब नहीं दे सके। यानी अहम अमेरिकी हथियारों का भारत में निर्माण निकट भविष्य में तो संभव नहीं लगता।

मौजूदा माहौल और चीन की गतिविधियों के बीच स्पष्ट है कि अमेरिका के साथ करीबी रिश्तों में भारत का लाभ है। परंतु हमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ चार देशों का समूह विकसित करने को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए क्योंकि वे सैन्य सहयोगी हैं। अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत करने के साथ हमें यह भी देखना चाहिए कि हम रूस के जरिये चीन से क्या रियायत हासिल कर सकते हैं। भले ही आज नहीं तो भविष्य में कभी।

हमें यह भी देखना होगा कि रूस के साथ कमजोर होते रिश्तों का हमारी रक्षा तैयारी पर क्या असर होगा? रूस के पास बड़ा ऊर्जा भंडार भी है। भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग का असर रूस के साथ रिश्तों पर नहीं पडऩा चाहिए। उसका अलग सामरिक महत्त्व है। अमेरिका बयानबाजी तो करेगा मगर चीन के साथ हमारे किसी सैन्य टकराव में शामिल नहीं होगा। शामिल तो रूस भी नहीं होगा लेकिन वह पाकिस्तान को हथियार आपूर्ति कर हमारी मुश्किल बढ़ा सकता है। वह अब तक ऐसा करने से बचता रहा है। दोनों रिश्तों को समांतर जारी रखना आसान नहीं है। खासकर रूस और अमेरिका के आपसी तनाव को देखते हुए। भारत के लिए यह कठिन समय है। बेहतर होगा कि जल्दबाजी नहीं की जाए और सोच-समझकर कदम उठाया जाए।

(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं)

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