मुद्रा बैंक : यथा ढोल में खोल:: विश्लेषण : देवाशिष बसु

मुद्रा बैंक : यथा ढोल में खोल:: विश्लेषण : देवाशिष बसु

 तकरीबन एक माह पहले बिज़नेस स्टैंडर्ड समाचार पत्र में मुद्रा बैंक की तेज प्रगति की सराहना करता संपादकीय छपा था जो वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा उद्धृत तथ्यों पर आधारित था। वित्त मंत्री का दावा था कि मुद्रा बैंक पहले ही 37 लाख छोटे उद्यमियों को 24,000 करोड़ रुपये का ऋण दे चुका है। उम्मीद जताई गई कि वित्त वर्ष के समापन तक मुद्रा बैंक 1.25 करोड़ लोगों को 1.2 लाख करोड़ रुपये का ऋण दे चुका होगा।

संपादकीय में कहा गया कि बेहतर से बेहतर संस्थान के मानक पर कसा जाए तो यह प्रदर्शन शानदार है। उसमें यह दलील भी दी गई कि देश के सरकारी संस्थानों के मानक के हिसाब से देखा जाए तो यह बेहद विश्वसनीय नजर आता है। इसकी गति की तुलना प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खाता खोलने की गति से की जा सकती है। जैसा कि हम सभी जानते हैं मुद्रा बैंक (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट ऐंड रीफाइनैंस एजेंसी बैंक) की शुरुआत इस वर्ष 8 अप्रैल को की गई थी ताकि छोटे कारोबारियों को ऋण दिया जा सके।

बहरहाल अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में एक और कारोबारी समाचार पत्र ने कहा कि मुद्रा बैंक वर्ष 2015-16 के दौरान अपना लक्ष्य हासिल करने से चूक सकता है। वित्त वर्ष की पहली छमाही में वह अपने सालाना लक्ष्य का बमुश्किल 30 फीसदी ही पूरा कर सका है। इसके लिए ऋण की मांग में कमी जिम्मेदार है। चालू वर्ष के पहले सात महीनों में मुद्रा बैंक ने 60 लाख से अधिक उद्यमियों को 37,000 करोड़ रुपये का ऋण दिया। 25 सितंबर से 2 अक्टूबर के बीच मंत्रीगण मुद्रा बैंक का संदेश देशव्यापी स्तर पर फैलाने की कोशिश में लगे रहे।

लक्ष्य से पीछे रह जाना अलग बात है लेकिन 37,000 करोड़ रुपये का ऋण वितरण भी कमजोर प्रदर्शन नहीं है। सवाल यह है कि आखिर मुद्रा बैंक अप्रैल में महज 5,000 करोड़ रुपये की पूंजी से शुरू होने के बावजूद इतने कम समय में इतना अधिक ऋण बांटने में कैसे सफल रहा? गौरतलब है कि यह बैंक अभी भी लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) के अनुषंगी के रूप में काम कर रहा है। मुद्रा विधेयक अभी भी पारित होने के लिए लंबित है। दरअसल यह ऋण वितरण भारतीय स्टेट बैंक तथा उसके पांच सहयोगियों (10.32 फीसदी), 21 अन्य सरकारी बैंकों (50 फीसदी), 16 निजी बैंकों (23.91 फीसदी), 56 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (15.15 फीसदी) और दो विदेशी बैंकों से हुआ।

ऐसे में जब कोई यह दावा करता है कि मुद्रा बैंक ने ऋण वितरित किया है तो यह राजनीतिक रूप से आकर्षक वक्तव्य तो है लेकिन यह हकीकत से दूर है। जहां तक मैं देख सकता हूं। पूरा पैसा मौजूदा बैंकिंग व्यवस्था से आएगा। मुद्रा केवल सरकार की मदद से ब्रांडिंग और मार्केटिंग का काम कर रहा है। किसी न किसी स्तर पर वह बैंकों को पुनर्वित्तीकरण में मदद करेगा क्योंकि खुद उसके पास संसाधनों की कमी नहीं है।

ये तमाम बातें कई सवालों को जन्म देती हैं। क्या सरकारी बैंकों ने ऋण सामान्य बैंकिंग गतिविधि के तहत दिए या फिर मुद्रा को सफल बनाने के लिए खासतौर पर ऐसा किया। क्या निजी बैंक अपने सामान्य वाणिज्यिक ऋण को छोटे कारोबारियों के लिए वर्गीकृत कर रहे हैं ताकि मुद्रा का लक्ष्य हासिल किया जा सके? मुद्रा बैंक की इन ऋणों में क्या भूमिका रही? क्या ये ऋण वाणिज्यिक रूप से व्यवहार्य हैं? हम अपने अनुभव से जानते हैं कि जबरन दिए जाने वाले ऋण का क्या हश्र होता है।

ये सारे ऋण 50,000 रुपये से 10 लाख रुपये की राशि के हैं। मुद्रा बैंक के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि कुल ऋण का 60 फीसदी ऐसे शिशु उद्यमों को दिया जाए जिन्हें 50,000 रुपये से एक लाख रुपये तक का ही कर्ज चाहिए हो। उसके बाद किशोर और तरुण उद्यमों का नंबर आता है जो एक लाख से 10 लाख रुपये तक के कर्ज के लिए अधिकृत हैं।
बैंकों ने यह ऋण देने के पहले कोई आकलन किया था या नहीं? मुद्रा की वेबसाइट से यही जानकारी मिलती है कि ऋण आधारित नकदी प्रवाह पर जोर दिया जाना चाहिए, न कि सुरक्षा आधारित ऋण पर। जमानत से बचा जाना चाहिए। पुनर्भुगतान की शर्तें सहज होनी चाहिए और उन्हें उद्यमी को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। जाहिर है अगर ऋण के साथ जमानत नहीं होगी तो ऋण लेने वाले को लगेगा कि बैंक उसे ऋण चुकाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

मुद्रा ने योजना को सफल बनाने के लिए कई प्रमुख ऋणदाता संस्थानों से समझौते किए हैं। उम्मीद के मुताबिक ही सरकारी बैंक जहां मुद्रा के सहयोग को उत्सुक नजर आ रहे हैं लेकिन 36 सूक्ष्म वित्त संस्थान और मुद्रा के साथ हस्ताक्षर करने वाले 25 गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान गायब नजर आ रहे हैं। यह भी सच है कि सबसे बड़े एमएफआई में से कुछ मसलन स्पंदन, शेयर माइक्रोफिन, अस्मिता, श्री क्षेत्र धर्मस्थल और भारतीय समृद्घि फाइनैंस आदि ने तो मुद्रा बैंक के साथ साझेदार संस्थान की तरह हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। एमएफआई और एनबीएफसी के मुद्रा के प्रति ठंडे रुख की एक वजह रेलिगेयर सिक्युरिटीज की एक शोध रिपोर्ट में सामने आती है।

रिपोर्ट कहती है कि आरबीआई ने कहा है कि बैंकों को मुद्रा फंड का इस्तेमाल आधार दर पर ऋण देने में करना है और एनबीएफसी तथा एमएफआई को अपना विस्तार 6 से 10 फीसदी के बीच रखना है। उच्च परिचालन लागत तथा ऋण की लागत सूक्ष्म वित्त ऋण के लिहाज से इसे अव्यवहार्य बनाती हैं। बैंकों के लिए पुनर्वित्तीकरण फंड की लागत के अलावा 0.75 फीसदी, सहकारी और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिए फंड की लागत और 3.5 फीसदी जबकि एनबीएफसी और एमएफआई के लिए फंड की लागत और चार से छह फीसदी होगी। इसके अलावा एनबीएफसी की ऋण दर 16-18 फीसदी जबकि एमएफआई की 20-22 फीसदी है। यह पूरी बात मुद्रा के पुनर्वित्तीकरण को अनाकर्षक बना देती है।

उपरोक्त तमाम कारक मुद्रा की कमजोर अर्थव्यवस्था में ही योगदान करते हैं। जब मुद्रा की घोषणा की गई थी तब मैंने कहा था कि केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसी तमाम योजनाएं और संस्थान हैं जो छोटे कारोबारियों, विनिर्माताओं और किसानों को मदद देने के लिए बने हैं। ऐसे में सवाल यह था कि उनमें बिना किसी सुधार या पुनर्गठन के मुद्रा की घोषणा क्यों की गई? संभवत: इसका जवाब मुझे मुंबई में एक राजनीतिक दल द्वारा जगह-जगह रखे गए ब्लैक बोर्डों से मिला। ब्लैकबोर्ड पर लिखी सूचना के जरिये बेरोजगार युवाओं का आह्वान किया गया था कि वे पार्टी कार्यालय आकर मुद्रा ऋण का फॉर्म लें। यह भी उल्लेख था कि ऋण लेने के लिए किसी तरह की जमानत की आवश्यकता नहीं। अब तक के घटनाक्रम पर नजर डाली जाए तो मुद्रा बैंक राजनीतिक अधिक और आर्थिक कम नजर आ रहा है।

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