- February 29, 2016
मंगतों को नहीं जरूरतमन्दों को दें – डॉ. दीपक आचार्य
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पूरा संसार लेन-देन पर टिका हुआ है। यों कहा जाए कि सृष्टि में जन्म का आधार ही पूर्वजन्म के हिसाब-किताब का परिणाम है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
संसार चक्र में जो फंसा हुआ है उसके लिए लेना-देना जीवन भर का ऎसा क्रम बना हुआ है कि उससे कोई बच नहीं सकता। राजा और रंक-फकीर, सभी को एक-दूसरों से काम पड़ता ही पड़ता है। इसके बिना इनका जीवन औचित्य खो बैठता है।
अकेले कुछ कर पाने का साहस या तो सर्वशक्तिमान ईश्वर में है अथवा सिद्धों और परमहंसों में। इनके सिवा दुनिया का कोई सा जीव अकेला अपने दम-खम पर कुछ नहीं कर सकता।
दुनिया की इस मायावी भीड़ में हर प्रकार के इंसानों का जमघट है। सबकी अपनी-अपनी इच्छाएं, तृष्णाएं और आशा-आकांक्षाएं हैं। इन सभी में किसी न किसी अंश में भिक्षावृत्ति या छीना-झपटी के भाव विद्यमान हैं जो उनके पूरे जीवन व्यवहार में समय-समय पर परिलक्षित होते रहते हैं।
लोग अपने पास सब कुछ होने के बावजूद यह इच्छा रखते हैं कि उन्हें हर दिन कहीं न कहीं से कुछ न प्राप्त होता रहे। कुछ के लिए यह प्राप्त द्रव्य या और कुछ जो भी हो, काम का हो सकता है, और बहुत से लोगों के लिए केवल दिखावे का।
बहुत से लोग आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद यह अपेक्षा रखते हैं कि उनकी जरूरत की सामग्री कहीं से उपहार में प्राप्त हो जाए या कोई ऎसा मौका आ जाए जहां से इसे हथिया कर अपने कब्जे में ले सकें। इस किस्म के लोग भी खूब मिल जाया करते हैं जो कि जहां जाएंगे वहां इसी लक्ष्य को सामने रखते हैं कि कुछ कुछ पाए बगैर जाना उनकी फितरत का अपमान है।
जहां हम दे पाने की स्थिति में महसूस करते हैं वहां अपने स्तर पर मूल्यांकन करें और उन्हीं को दें जो वाकई जरूरतमन्द हैं, जिन्हें नितान्त आवश्यकता है और इसकी पूर्ति के बिना इनके सामान्य जीवन निर्वाह में बाधा आने की संभावना है।
केवल दूसरों के भोग-विलासी जीवन को तृप्त करने के लिए कुछ न दें। उन्हीं को दें जिन्हें इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। बहुत बड़ी संख्या में लोगों की मनोवृत्ति यह हो गई है कि वे औरों से कुछ न कुछ मांगते रहते हैं और इस याचना को पूर्ण करने के लिए ये अपने आपको विनम्रता और प्रशस्तिगाता से भी ऊपर के दर्जे पर प्रतिष्ठित कर दिया करते हैं, सामने वालों को मिथ्या प्रशंसा से भरमाते रहते हैं और इस तरह लोगों को अपने मोह पाश में बांध कर अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर लिया करते हैं।
बहुत सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें कोई सी वस्तु किसी के पास कहीं भी दिख जाए, वे इसे पाने के लिए ललचा उठेंगे और पूरी बेशर्मी का परिचय देते हुए इसे मांग ही लेंगे, भले ही उनके लिए ये सामग्री किसी भी उपयोग की हो ही नहीं।
जो मांगता है उसकी उपेक्षा करें लेकिन जरूरतमन्दों की कभी अवहेलना न करें, उन्हें अपनी ओर से पहल करते हुए दें। अपनी बुद्धि और विवेक से सोचे तथा जिसे पात्र समझें उसी को उसकी जरूरत की वस्तु, राशि या और कुछ जो भी देने की स्थिति में हों, प्रदान करें, यही समाज की सच्ची सेवा है।