- February 20, 2016
बेणेश्वर में छलकता है महारास का मधु – डॉ. दीपक आचार्य
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रास का नाम लेते ही तन-मन आह्लाद और प्रेम रस से आप्लावित हो उठता है। और सहज ही स्मरण हो आता है द्वापरयुगीन की रासलीला का, जिनमें गोपियाें व कान्हा की ठिठोलियाँ, उन्मुक्त प्रेमधाराएँ, जिनमें समाए होते हैं अध्यात्म के गूढ़ रहस्य। शाश्वत आनंद वृष्टि असीम आत्मतोष का ज्वार उमड़ाती है। इस लीला का स्मरण भी आह्लाद में नहला देनेे वाला है।
वाग्वर अँचल में मेलों, पर्वों, विशिष्ट अवसरों पर होने वाले रास नृत्यों एवं लीलाओं को उसी परंपराओं का अंग माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अँचल में इस प्रकार की रास लीलाएँ लोक नृत्यों एवं लोक लहरियों में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
प्राचीनता के साथ-साथ ये स्वस्थ मनोरंजन और धार्मिक आस्थाओं का बोध कराती हैं। रस नाम से ही स्पष्ट हैं– रसधार बहाकर आनंद उमड़ाने वाला। इसीलिये कहा गया है-‘‘रसानां समूह इति रासः।’’
रासों में रास – बेणेश्वर का महारास
राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के सरहदी पहाड़ी वाग्वर अँचल के बाँसवाड़ा एवं डूँगरपुर जिले जहाँ वनवासी संस्कृति की विलक्षण परंपराओं,नैसर्गिक सौन्दर्य और धार्मिक श्रद्धा भावनाओं के कारण विख्यात हैं वहीं मेलों, पवारें उत्सवों के साथ-साथ लोक नृत्यों एवं लोक परंपराओं की दृष्टि से भी अहम् स्थान रखते हैं। आनंद के साथ जीवनयापन यहाँ की विशिष्ट पारंपरिक शैली है जो यहाँ फक्कड़ी स्वभाव का दरिया बहाती रही है।
मंत्रमुग्ध हो उठते हैं रसिक
धार्मिक आस्थाओं और भक्ति मार्ग की धाराओं से जुड़ा रास यहाँ का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रचलित लोक रंग रहा है जो बहुत पुराने समय से श्रीकृष्ण भक्ति की पुरातन परिपाटियों को बरकरार रखे हुए है।
आज भी साल भर जहाँ-तहाँ लगने वाले मेलों आदि अवसराें पर रास नृत्य की मनोहारी रंगीन फिज़ाँ हजारों- हजार लोगो को मंत्र मुग्ध किए रखती है। वनवासी अँचल का मेला या धार्मिक उत्सव हो और रास न हो तो फिर वहाँ आनंद ही कैसा?
वार्षिक महारास होता है बेणेश्वर धाम पर
संसार भर में वनवासियों के महाकुंभ के रूप में विख्यात बेणेश्वर मेला रास लीला का वार्षिक पर्व होता है जब वाग्वर अँचल के कोने-कोने से आये रास कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर संत मावजी महाराज के प्रति श्रद्धावनत् होते हैं व युगों से चली आ रही इस दैवीय लोक परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। मेले में मावजी महाराज के अनुयायी इस रासलीला के माध्यम से भक्ति रस का सागर उमड़ाते रहते हैं।
द्वापर का रास यहीु हुआ पूर्ण
जन मान्यता के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का रास द्वापर युग में खण्डित हो गया था (अर्थात् रास लीला बीच में ही भंग हो गई थी ) तब भगवान श्रीकृष्ण ने रासलीला को समाप्त कर दिया।
उस समय गोपियों द्वारा काफी अनुनय-विनय किये जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने यह वचन दिया कि कलियुग में माही-सोम और जाखम नदियों के संगम पर तीनों के बीच बने टापू ‘‘बेणेश्वर वेण‘‘ जिसे वेण वृंदावन भी कहते हैं, पर वे उनसे मिलेंगे और वहाँ रासलीला पूरी करेंगे। भगवान का कथन था – बेणेश्वर को बेणको, सोम-मही को घाट, आदुदरो आद को त्यां जो जो म्हारी वाट।’
मावजी ने दी पूर्णता
कलियुग में अवतरित मावजी को भक्त गण भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं एवं उन्हें निष्कलंक देव के रूप में पूजते हैं। मावजी महाराज ने ही द्वापर के अधूरे रह गए रास को बेणेश्वर धाम पर पूरा किया। यहाँ मावजी के प्राकट्य से ही रासलीला की शुरुआत हुई। बेणेश्वर धाम के आद्य पीठाधीश्वर मावजी महाराज का प्राकट्य संवत् 1771 में माघ शुक्ल ग्यारस सोमवार को औदिच्य ऋषि डालम के घर साबला गांव में हुआ।
चोपड़ों में अंकित हैं रास के बिम्ब
संत मावजी के बहुख्यात चोपड़ों में रासलीला का रंगीन एवं मनोरम चित्रों के साथ सुंदर वर्णन मिलता है। इन चित्रों में कृष्ण अर्थात् मावजी को लाल वस्त्र के लम्बे-लम्बे चोगे पहने, लाल रंग की ही पछेड़ी तथा विविध आभूषणों के साथ श्रृंगारित दिखाया गया है। वहीं गोपियाँ, राधा एवं कुब्जा को रंग-बिरंगी छींट की चटक-मटक भरेे परिधानों व आभूषणों से लक-दक हो रास रत दर्शाया गया है।
पूरी दुनिया का दर्शन है रास
रास चित्रों की पृष्ठ भूमि का भी मनोरम अंकन हुआ हैं, इनमें खासकर प्रकृति चित्रण, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, लतादिक, बेणेश्वर मन्दिर, नदी तट,आदि की नयनाभिराम झाँकिया हैं। मावजी के रास में कुँजगली रास, फूदरड़ी रास, गूँथमली रास, भूलमणी रास, महारास आदि का समावेश है।
संगीत और चित्रकला में सिद्ध थे मावजी
संत मावजी ने अपनी वाणी में भाषा की अपेक्षा भावाभिव्यक्ति पर ज्यादा जोर दिया है। इसमें वागड़ी के साथ-साथ गुजराती का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। मेवाड़ी शब्द भी कहीं-कहीं हैंं। मावजी संगीत के विलक्षण ज्ञाता होने के साथ ही अद्भुत चित्रकार भी थे। उनके सभी पदों पर रागों के नाम, नाद सौन्दर्य बोध, नृत्य लावण्य आदि वर्णित है जिससे यह साफ पता चलता है कि उन्हें राग-रागिनी, लय-ताल-स्वर आदि का विलक्षण शास्त्रीय ज्ञान था।
आज भी शौख चटक हैं मावजी के हाथों बने चित्र
मावजी के चोपड़ों में उन्हीं के हाथों बनाए गये रंगीन चित्र ढाई सौ वर्ष से भी ज्यादा अंतराल गुजर जाने के बाद ज्यों के त्याें हैं। इनका रंग तनिक भी फीका तक नहीं पड़ा है। मावजी की चित्रकारिता और इनमें प्रयुक्त रंग आज भी हर देखने वाले को आश्चर्यान्वित कर देते हैं।
हर चित्र में छिपा है तात्विक संदेश
भागवत् कथा- मृतपान और दैवीय उद्धरणाें को चित्रों के जरिये प्रकटा कर मावजी ने आम आदमी की सुबोधगम्यता को सहज बनाया है। चीर हरण और अन्यान्य प्रसंगों का मावजी ने जिस सुबोध शैली में वर्णन किया है उसमें श्रृंगार एवं रतिजन्य भावों के बाद भी वासना हीन प्रेम उमड़ता है-
बेण वनरान उतरी, ठाडी घाट
सोहाय चीर उतारी वातो झीलण पेठी माँह
गमच्यु बाधी गांठडी मने विस्यारी वेद
गोपत कदम पर सड्यया कोई न जाणे भेद॥
अपनी सखी के सम्मुख नायिका इस तरह आह्लाददायक रति भावभूमि को प्रकटाती है
सईधर पगे भरावी आंटी, मुझने मुख तांबोले चाटी
पल्लव मारो दृढकर पकड्या, सिर पर चोड्यो ताए रे
अंग्य आलिंगन सब लु दीनुं, सन्मुख्या चाती भीची रे
उदर उदर करी मुझने जोली, स्तनमर्दन करी पीची रे
मारो चेडयो ए नव जाए, मैकेम जाऊ अलगी रे
के‘त राधा सामलिया सेज्यां, अश्स्थ परस्य वही वल्गी रे….।‘‘
मावजी के चोपड़ों में आह्लादिनी शक्ति राधा, गोपियों से प्रेम और श्रृंगार के भावों की अन्यतम अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
दुनिया भर में अद्वितीय है महारास मंचन
इसी परंपरा में बेणेश्वर धाम पर लगभग तीन सौ वर्ष होती रही रासलीला सारे विश्व में अपनी तरह की अन्यतम एवं अद्भुत शास्त्रीय लोक प्रस्तुति है। हर वर्ष बेणेश्वर महामेले में माघ पूर्णिमा की रात संपूर्ण यौवन छलकाते चाँद की दूधिया रोशनी तले पर्वत-नदियाँ, संगम, रेतीले तटों एवं विस्तृत जलराशि का समन्वय और मदमाती हवाओं के झोंके बेणेश्वर टापू को धरती के स्वर्ग में परिणित कर देते हैं।
लौकिक और अलौकिक आनंद काउ समन्वय
मेले में पूनम की रात एक ओर जहाँ मेला बाजारोंं की विद्युत चकाचौंध में नहाते हुए मेलार्थी पूरी रात जी-भर कर मेले का लुत्फ उठाते हैं वहीं दूसरी ओर बेणेश्वर धाम के मुख्य मन्दिर राधा-कृष्ण देवालय परिसर में होने वाले रासलीला के भावपूर्ण एवं मनोहारी वार्षिक कार्यक्रमों को देखने-सुनने हजाराें मेलार्थियों का विराट समूह टकटकी लगाये हुए उल्लास की सरिता में गोते लगाता रहता है। यह केवल रास ही नहीं अपितु रासोत्सव होता है।
महंत की आज्ञा से होती है शुरूआत
रासलीला की शुरुआत बेणेश्वर धाम के पीठाधीश्वर महंत गोस्वामी अच्युतानंद महाराज की आज्ञा से होती है। रास करने वाले कलाकार वहाँं बिराजे हुए पीठाधीश्वर के पास जाकर अनुमति चाहते हैं। महंत द्वारा छड़ी उठाकर शुभारंभ स्वीकृति दी जाती है।
रासोत्सव देखने उमड़ता है जनज्वार
ताल-मँजीरें, ढोलक, तानपूरे, करताल, हारमोनियम, कोण्डियाँ, थाली आदि वाद्य यंत्र लिए कलाकारों के साथ मंच पर विविध आकर्षक परिधानों एवं आभूषणो में मुख्य नायक मावजी ‘‘कृष्ण‘‘ के अलावा गोपियाँ, राधा एवं कुब्जा जमे रहते हैंं।
परिसर खचाखच भरा होता है और आस-पास तिल धरने की जगह भी नहीं होती। यहाँ तक कि आस-पास के मन्दिरों की छतों, परिसरों,धर्मशाला की छत-मुण्डरों, रास्तों पर खचाखच भीड़ छायी रहती है।
मोह लेता है जीवन्त अभिनय
हजारों दर्शक मंत्र मुग्ध होकर सर्द रात में भी परस्पर सटकर जमे हुए असीम आनन्द प्राप्त करते रहते हैं। रासलीला में सभी पात्र पुरुष ही होते हैं। महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष पात्रों द्वारा की जाती है और इनका स्त्रीवेश धारण किए इन पुरुषों का श्रृंगार ही ऎसा होता है कि इन्हें देख कहीं नहीं लग पाता कि ये पात्र पुरुष ही हैं।
सारे पौराणिक पात्रों की प्रस्तुत
लोकवाद्यों की समधुर धुनों के साथ मावजी ‘‘कृष्ण‘‘ की स्तुति एवं प्रार्थना के साथ वागड़ी लहजे में रास के आरंभिक कार्यक्रम होते हैं। बेणेश्वर धाम की शोभा को पद्यमय गा-गाकर निराले अंदाज में वर्णन किया जाता हैं।
रासलीला शुरू करने के लिये वीणा बजाते हुए देवर्षि नारद मावजी को रास में भाग लेने के लिये आमंत्रित करते हैं। कृष्ण अर्थात् मावजी के आते ही रासलीला के एक के बाद एक चितहारी कार्यक्रम रंग जमाना शुरू करते हैं।
श्रीकृष्ण लीलाओं का आकर्षण
श्री कृष्ण एवं गोपियों की लीलाओं को पद्यमय गाते हुए बालकृष्ण, माखनचोरी, चीरहरण, स्नान, गोवद्र्धनधारण, दामोदर लीला आदि का मंचन किया जाता है। स्थानीय सहजगम्य बोली में होने से इस मनोरंजन प्रधान धार्मिक कार्यक्रम में रास लीला के रोचक एवं दिल को छू लेने वाले प्रसंगों पर संवादों एवं दृश्यों का आनंद लेने मेलार्थियों का विराट समूह आह्लाद सागर में डूब जाता है।
द्वापर युग में खो जाते हैं रसिक
लोग इन प्रसंगाें की निकटता से अपने आपको कृष्णयुग में पाते हैं और लगता है साक्षात् कृष्ण पुनः धरा पर अवतरित होकर गोपियों के साथ रासक्रीड़ा में रमे हुये हों।
साद भगतों के कण्ठ से निःसृत स्वर लहरियाँ समूचे वातावरण में घुलकर आनंद रस का संचार करती रहती हैं और नदी-संगम तटों व पहाड़ियों से रासलीला के बोल रह-रह कर प्रतिध्वनित होते रहते हैं।
पूनम उमड़ाती है उल्लास का समन्दर
विराट जन समूह के बावजूद छायी मंत्रमुग्धता का आलम यह होता है कि जैसे चंदा भी रासलीला को देखने ठहर गया हो। हृदय के हर तंतु को झंकृत कर देने वाली स्वर लहरियों और नयनाभिराम दृश्यों को लिये यह रासोत्सव मेलार्थियों को भीतर तक अहसास करा देता है कि वाग्वर अँचल की लोक परंपराएँ किसी भी मायने में उन्नीस नहीं हैं।
रात भर रास की लोक लहरियाँ मेला स्थल एवं कई-कई किलोमीटर तैरती रहकर सुकून देकर लोगाें को मदमस्त बनाए रखती हैं–
‘‘ ….हो मारे घेर आवो रे मारा वाला रे
वाला रे मारा किशन कनैया रे
मारा घेर आवो रे मारा काना रे…।‘‘
इसमें भगवान श्री कृष्ण को अपने घर आने का न्यौता दिया गया है।
भविष्य के प्रति आशान्वित दृष्टि और मावजी की वाणी के प्रति अगाध आस्था भाव इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैंः
..सतजुग आवेगा, आवेगा, सतजुग आवेगा
हो मारा निकलंग बावसी,
थायेगा थायेगा वाणी हासी रे
मारा मावजी माराज नी
हो मारा निकलंग बावसी….।
भोर तक चलता है रासोत्सव
माघ पूर्णिमा की मध्यरात्रि से शुरू होकर यौवन की तरफ बढ़ती हुई यह रासलीला भोर होने तक चलती रहती है। बीच-बीच में रोचक संवादों एवं अभिनय की सशक्त प्रस्तुति पर जन समूह की करतल ध्वनियाँ गूँजकर दाद देती रहती हैं वहीं हँसी के फव्वारे भी जब-तब छूटते रहते हैं।
कई मेलों में होता है रासोत्सव
वर्ष में अनेक अवसरों पर वागड़ अंचल के विभिन्न स्थानों व मेलोें में रास लीला के आयोजन होते हैं। इनमें विट्ठलदेव, गामड़ी दशहरा, सामरिया आदि स्थानों पर भी इस प्रकार की वार्षिक रासलीलाएँ होती हैं वहीं विशेष धार्मिक समारोहों व उत्सवों पर भी रासलीला के मनोहारी कार्यक्रम हुआ करते हैं लेकिन बेणेश्वर में रासोत्सव का तो कहना ही क्या।
लोकानुरंजन और धार्मिक आस्थाओं के प्रवाह को सनातन बनाए रखने वाली इस विलक्षण कला को प्रोत्साहन दिए जाने को लेकर निरन्तर प्रयास जारी हैं।