- April 9, 2016
बीच में न आए कोई तीसरा – डॉ. दीपक आचार्य
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नवरात्रि हो या और कोई सा पर्व, भक्ति, भगवान और धर्म के नाम पर साल भर कुछ न कुछ होता रहता है फिर भी हम अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं। न आस-पास के लोगों से प्रसन्न हैं, न परिवेश की हलचलों से। रोजाना दीये और अगरबत्ती जलाते हैं, परिक्रमाएं करते हैं, पानी चढ़ाते हैं, पूजा और श्रृंगार के नाम पर क्या-क्या नहीं करते।
जप करते हैं, तालियां बजा-बजा कर कीर्तन करते हैं और हाथ में मालाएं लेकर जप करते हैं, घण्टियां हिलाते हैं, घण्टों मन्दिरों में गुजारते हैं,माईक और स्पीकरों से भजनों, मंत्रों और स्तुतियों की बरसात करते रहते हैं।
देवी-देवताओं के नाम पर पूरा दमखम लगाकर जयकारे लगाते हैं और धर्म एवं भक्ति के नाम पर बहुत कुछ करते हैं। इन सबके बावजूद न हम शांत हैं, न हमारा क्षेत्र या आस-पास के लोग। आनंद फिर भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है। और हम सारे के सारे उद्विग्न, अशांत और मायूस होकर जी रहे हैं।
इतना सब कुछ करने के बावजूद आखिर ऎसा क्या है जिसकी वजह से हमारी भक्ति सफलता प्राप्त नहीं कर पा रही है, हमारा चित्त शांत और स्थिर नहीं हो पा रहा है। बहुत सारा समय भक्ति और धर्म के नाम पर होम देने के बावजूद बदलाव के संकेत प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं।
यह हम सभी भक्तों के लिए गंभीर चिन्तन का विषय है। हम चाहे किसी के भक्त हों, भक्ति के मूल तत्वों को आत्मसात किए बिना न भगवान प्राप्त हो सकता है, न शाश्वत आनंद। आजकल धर्म और भक्ति के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें कुछ फीसदी अपवाद को छोड़कर सब कुछ पाखण्ड के सिवा कुछ नहीं है।
जो कुछ हो रहा है वह भगवान के लिए नहीं, बल्कि लोगों को दिखाने मात्र के लिए हो रहा है। धर्म के नाम पर जितनी फिजूलखर्ची हम करते हैं उतना पैसा अपने ही क्षेत्र के जरूरतमन्दों के काम आने लगे तो हमारा देश स्वर्ग बन जाए। पर ऎसा न हम होने देते हैं, न हमारे जेहन में है। हम अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति और अज्ञात भयों तथा अपराध बोध से इतने अधिक घिरे हुए हैं कि हमें लगता है कि भक्ति के धंधों में पैसा देने से हम बच जाएंगे और कामनाएं पूरी होती रहेंगी। इसी मानसिकता ने हमें सदियों तक गुलाम बनाए रखा, फिर भी हम सुधर नहीं पाए हैं।
भगवान और भक्त के बीच सीधा संबंध स्थापित हुए बगैर भक्ति का कोई मतलब नहीं है। लेकिन आजकल भगवान और भक्त के बीच बहुत सारे लोग आ गए हैं, ढेरों संसाधन आ धमके हैं। पहले इन्हें भक्ति में विघ्न समझा जाता था लेकिन अब ये भक्ति में सहायक बनने लगे हैं।
असली भक्ति वह है जिसमें भक्त का भगवान के प्रति सीधा समर्पण हो, जब भक्ति के नाम पर जप-तप, उपासना और ध्यान हो, उसमें तीसरा कुछ न हो। यही मूल तत्व है जो परम शांति भरे माहौल के साथ एकाग्रता लाकर सीधे तार जोड़ता है और भक्ति का आश्रय ग्रहण कर भक्त भगवान के प्रति इतनी तीव्रता और शिद्दत से लगन लगाता है कि उसे कुछ दूसरा सूझता ही नहीं। तब भगवान को भी लगता है कि यह अन्यतम भाव से पूज रहा है। और तभी भगवान भक्त पर कृपा करते हैं।
आजकल हम सभी लोग बातें तो भगवान की करते हैं, सत्संग की चर्चा करते हैं, धर्म के नाम पर खूब चिल्लाते हैं, झूम-झूम कर भजन गाते हैं,हाथ में माला फिराते हैं और ढेर सारे जतन करते हैं पर इन सबका उद्देश्य अपने आपको भक्त के रूप में स्थापित करना है।
बहुत से लोग इन्हीं आडम्बरों को अपना कर अपने आपको भगवान का दूत, दलाल और अवतार सिद्ध करते हुए लोगों को भ्रमित करते रहते हैं। लोगों को धर्म के नाम पर उल्लू बनाने का धंधा इतना अधिक चल पड़ा है कि इसमें सब कुछ है जो प्राप्त किया जा सकता है, और वह भी पूरे सम्मान,प्रतिष्ठा और तमाम प्रकार के उन भोगों के साथ जो मनुष्य पूरी उन्मुक्तता से भोग सकता है।
असल में हम जो कुछ कर रहे हैं वह दिखावे और चढ़ावे की भूमिका के सिवा कुछ नहीं है। क्या जरूरत है स्पीकरों और माईक की, भगवान को सुना रहे हैं या जनता को। साधना जीवन का ऎकान्तिक पक्ष है, इसमें उन संसाधनों की क्या जरूरत है जो फैशनी संस्कृति के प्रतीक हैं।
धर्म के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह तभी फल देता है जब खुद के पुरुषार्थ का कमाया हो। भ्रष्टाचार और काले धन से किया गया धर्म किसी काम का नहीं होता, उल्टे यह धर्म भ्रष्ट करता है और इसका अनिष्ट देता है। सब तरफ दिखावा ही दिखावा रह गया है।
कोई इन धार्मिकों से पूछे कि धर्म और अपने भगवान के नाम पर जो कुछ ढोंग कर रहे हैं, उस भगवान का एकाध गुण भी उन्होंने अपने जीवन में स्वीकार किया है कभी। भक्ति और धर्म का कोई सा एक लक्षण नहीं दिखता इनमें। असली भक्त एकान्त में भगवान से सीधा संबंध जोड़ते हैं, उन्हें धर्म के नाम पर धींगामस्ती भरे शोरगुल और दिखावों की कोई कामना नहीं होती। जिन महानुभावों को हम धर्मालु या भक्त मानते हैं उनके जीवन चरित्र को ध्यान से देखें तो सब कुछ साफ हो जाएगा।
जीवन में शुचिता, ईमानदारी, पारदर्शिता और दिव्यता न हो तो भक्ति बेकार है। भक्ति वही सफल होती है जिसमें भगवान और भक्त के बीच तीसरा कुछ न हो, न माईक-स्पीकर हों, न कोई धार्मिक दलाल। न मोबाइल, धंधे की बातें, यजमान से इच्छाएं और न और कुछ। गड़बड़ सारी तभी होती है जब कोई तीसरा बीच में आ जाता है, इंसान हो चाहे जमाने से स्वार्थ।