- February 28, 2015
बच्चों का गलत इलाज से हर दिन 2,000 शिशुओं की मौत : ड्यूक यूनिवर्सिटी, अमेरिका
भारत : डॉक्टर गैरजरूरी एंटीबायोटिक्स : 13 लाख बच्चे जिंदगी के पांच साल भी नहीं देख पाते.
भारत के ग्रामीण इलाकों में डायरिया और निमोनिया से पीड़ित बच्चों का गलत इलाज किया जाता है. आखिर भारतीय चिकित्सा तंत्र अपने बच्चों को बचाने में क्यों नाकाम हो रहा है.
डायरिया और निमोनिया से पीड़ित बच्चों का इलाज आम तौर पर बहुत आसान है. मसलन उन्हें जीवन रक्षक ओआरएस (ओरल रिहाइड्रेशन साल्ट्स) पिला दिया जाए. लेकिन ऐसा करने के बजाए भारत के ग्रामीण इलाकों में डॉक्टर गैरजरूरी एंटीबायोटिक्स देते हैं. कई बार कुछ ऐसी दवाएं दे दी जाती हैं जो इन बीमारियों को और घातक बना देती है. अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक शोध में यह बात सामने आई है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में हर साल 13 लाख बच्चे जिंदगी के पांच साल भी नहीं देख पाते. इनमें से करीब आधे शिशु तो एक महीने की उम्र में ही दम तोड़ देते हैं. देश में हर दिन 2,000 शिशुओं की मौत होती है.
कई राज्य इन मौतों को रोकना चाहते हैं. उत्तर भारत में तो खासकर प्रसव के दौरान मां या बच्चे की मृत्यु रोकने के लिए कई अभियान भी चलाए जा रहे हैं. लेकिन गांवों में हालात खराब हैं. सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. ऐसे में भारत के स्वास्थ्य विशेषज्ञ आखिर क्या सोचते हैं.
कैसे स्वस्थ रहें मां और बच्चा
कुशल स्वास्थ्यकर्मियों की कमी
ड्यूक यूनिवर्सिटी के शोध में पता चला कि ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले 80 फीसदी तथाकथित “डॉक्टरों” के पास आधिकारिक मेडिकल डिग्री तक नहीं है. साफ तौर पर कहा जा सकता है कि गांवों में चिकित्सा सुविधाओं की कमी है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में काम चलाने के लिए सरकार दाइयों पर निर्भर है.
बाल विशेषज्ञ प्रोमिला भूटानी मानती है कि ज्यादा डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मियों को अच्छी ट्रेनिंग देना, एक अच्छी शुरुआत हो सकती है, “स्वास्थ्यकर्मियों को खुद ही स्वास्थ्य और साफ सफाई की जानकारी नहीं है. अगर हाथ धोने, पोषण और इम्यूनाजेशन पर ध्यान दिया जाए तो बाकी चीजें खुद ही होने लगेंगी.”
भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में 1.21 अरब लोगों के लिए मात्र 9,20,000 डॉक्टर हैं. इनमें से ज्यादातर शहरों में काम करना पसंद करते हैं. सिर्फ 33 फीसदी सरकारी डॉक्टर ही गांवों में हैं, जबकि वहां भारत की 70 फीसदी आबादी रहती है.
एंटीबायोटिक्स की भरमार
स्वास्थ्य सेवाएं में निवेश
महाराज कुमार भान जैसे स्वास्थ्य विशेषज्ञों को लगता है कि ज्यादातर बच्चों की मौत डायरिया से होती है. डायरिया के लिए जिम्मेदार रोटावायरस के खिलाफ टीके का भारतीय संस्करण बनाने वाले भान कहते हैं, “संस्थानों तक हमारा दवा सप्लाई करने का तंत्र बेहतर हुआ है लेकिन जब दवाओं को संस्थाओं से निकालकर मौके पर मौजूद कर्मचारियों तक पहुंचाने की बात आती है तो मुश्किलों से सामना होता है.” ग्रामीण इलाकों तक जिंक साल्ट जैसी आम जीवनरक्षक दवा पहुंचाना मुश्किल होता है.
प्रसूति विज्ञानी और गायनोकोलॉजिस्ट पुनीत बेदी कहते हैं कि सेहत के मामले में भारत को आधारभूत बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. ग्रामीण इलाकों में भी अच्छे प्राथमिक उपचार केंद्र, उच्च और गंभीर उपचार केंद्र बनाने चाहिए, “हमें हेल्थकेयर सिस्टम को पूरी तरह उलटने की जरूरत है और इसे लोगों पर आधारित बनाने की जरूरत है. मुख्य चुनौती यह है कि असली डॉक्टरों को वहां पहुंचाया जाए, जहां लोग हैं.”
डायग्नोसिस प्रोसिजर को स्टैंडर्डाइज करना, ग्रामीण इलाकों में क्लीनिक बनाना और स्वास्थ्य व सूचना तकनीक को मिलाकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. बेदी को लगता है कि इसकी शुरुआत राजनीतिक इच्छाशक्ति से होनी चाहिए. वह कहते हैं, “सरकार सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी से भी कम सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करती है. यह बेहद बुरी बात है. हमें इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर पहचानना होगा.”
(श्रोत – ड्यू डी .काम)