• April 8, 2016

जब खीज आए खुद पर – डॉ. दीपक आचार्य

जब खीज आए खुद पर  – डॉ. दीपक आचार्य

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इंसान के जीवन में परेशानियां आना स्वाभाविक है। किसी की जिन्दगी में अधिक आती हैं और किसी के जीवन में कम। लेकिन कोई बन्दा ऎसा नहीं मिल सकता जिसके जीवन में परेशानियों से साक्षात हुआ ही न हो।

अधिकांश लोग गुस्से में आपा खो देते हैं लेकिन धीर-गंभीर लोग शांतचित्त रहा करते हैं। अक्सर अधिकांश लोेगों की मनःस्थिति छोटे-मोटे कामों के न होने अथवा अपने मन के विपरीत होने मात्र से बिगड़ जाती है। मन में सोचे हुए संकल्पों के पूरा न होने से अधिकांश लोगों के चित्त की स्थितियों का बिगड़ जाना स्वाभाविक है लेकिन थोड़े समय बाद स्थिति ठीक हो जाती है।

बहुत से लोगों के साथ इससे भी बढ़कर विषम स्थिति सामने आती है। ये लोग बात-बात में गुस्सा होने लगते हैं, चिड़चिड़ा स्वभाव इतना अधिक खतरनाक हो जाता है कि लोग हमेशा नाक पर गुस्सा चढ़ाये रहते हैं। दिन हो या रात, कोई सा कारण हो या न हो, इनकी उद्विग्नता, अशांति और विचलन हमेशा हावी रहता है।

कई बार लोगों की स्थिति यह हो जाती है कि उन्हें अपने पहने हुए कपड़ों से नफरत होने लगती है, हमेशा दाँत किटकिटाने की आदत हो जाती है, हर काम के वक्त लगता है कि जैसे मन मार कर इसे कर रहे हों, हर पल भारी लगता है और अपनी जिन्दगी ऎसे लगती है जैसे कि घसीटने की स्थिति सामने हो। अपने आप से खीज होने लगती है और हर मामले में निराशा ही हाथ लगती है।

जिस समय अपना शरीर खुद को प्रिय नहीं लगे, पहने हुए कपड़े ऎसे लगें जैसे कि काटने दौड़ रहे हों, बिना बात के गुस्सा बना रहे, शरीर में बिना किसी बीमारी के कोई न कोई हरारत रहने लगे, मन में विचलन हो तथा उद्विग्नता के कारण किसी काम में मन न लगे।

यह स्थिति तब आती है जब धर्म हमारा साथ छोड़ देता है। जब तक हमारे साथ धर्म रहता है तब तक शरीर उत्साही, आनंददायी और सुकून का अहसास कराने वाला रहता है लेकिन जैसे ही अपना शरीर खुद को ही खराब लगने लगे, तब समझ लेना चाहिए कि धर्म हमसे विमुख हो गया है और जो कुछ नकारात्मक हो रहा है वह इसी वजह से हो रहा है।

इस स्थिति में हम चाहें कितने अनुष्ठान करें, पूजा-पाठ करें इसका कोई फल प्राप्त नहीं होता। और हमारी जिन्दगी व्यर्थ होती जाती है। इस अवस्था में चाहिए कि शरीर के शुद्धिकरण के लिए गौमूत्र पान, तुलसीदल और उपवास के साथ शरीर को तप में लगाएं। अधर्माचरण की सारी प्रवृृत्तियां त्यागें और अपने आपको शुद्ध बनाएं तभी धर्म को वापस अपने भीतर प्रतिष्ठित किया जा सकता है।

धर्म का आश्रय किए बिना हमारा कोई सा पुरुषार्थ प्राप्त नहीं किया जा सकता।  इस लिए पहले धर्म की रक्षा करें ताकि धर्म हमारी रक्षा कर सके।

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