- January 30, 2019
गिरगिटिया मजदूरों की चीत्कार— शैलेश कुमार
बिहार के शिक्षित और मूर्ख युवाओं को गिरगिटिया मजदूर बनाने वाले लालू प्रसाद यादव को बिहार के मतदाता ने जब गद्दी से उताड़ फेंका तो जेडीयू नीतीश कुमार में समर्पित क्यों हुआ ?
क्या कभी सरकार या पार्टी ने मंथन किया ?
कुछ महीने पहले पटना में गिरमिटिया(जाबा,सुमात्रा, मालद्विप, मारिशस, ट्रिनिडाड, टोबैको, द्वीप समूह) मजदूर सम्मेलन हुआ था। प्रवासियों को धुप- आरती दिखाने में बिहार सरकार अग्रिम पंक्ति में रही.
मैं स्पष्ट कर देता हूँ की गिरमिटया मजदूर उनलोगो को बनाये गये जो गुलामी के जंजीरों से बंधे थे और देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ थे उन्हें अंग्रेजों ने द्विपीय प्रदेशों में जहाज में ठूंस -ठूंस कर भेज दिया। बोलने पर कोड़े बरसाये जाते और खाना मांगने पर लात और घूंसे मिलता।
अपने पूर्वजों के बारे में कल्पना कीजिये ? क्या स्थिति रही होगी ?
गिरगिटिया मजदूर —क्या है ?
वर्तमान में बिहार और उत्तरप्रदेश में गिरगिटिया मजदूर है। ये लोग प्रदेश से भाग -भाग कर दूसरे प्रदेशों में काम करने जाते हैं। बिहार से बाहर इनलोगो को प्रवासी कहा जाता है.
प्रवासी किसे कहते है और ये लोग किस मानसिक्ता के है, आप समझ गए होंगे, भारत के लोगो में दूषित डीएनए है,संकीर्ण मानसिक्ता है, उसे मात्र यही पता है की हमारे राज्य से दूसरे राज्य के लोग विदेशी होते हैं। ये भावना किसने उत्पन्न की है? उत्तर है सिर्फ नेताओं ने, सिर्फ अपने वोट के लिये.
ये गिरगिटिया मजदूर एक फैक्ट्री में काम करते हैं, फैक्ट्री वाले महीने दो महीने काम करवाता है और वेतन मांगने पर भगा देता है, बेचारे ये मजदूर गिरगिट की तरह दर-दर भटकते रहते हैं।
इस गिरगिटिया का सुनने वाला कोई नहीं है — अमुक राज्य के पुलिस , श्रम आयुक्त, श्रम न्यायलय,श्रम कार्यालय के दरवाजे पर गिरगिराते रहते हैं और ये लोग उसे धक्के देकर भगा देते हैं।
फैक्ट्री के मालिकों में , पुलिस की दिलों में , श्रम अधिकारियों में कोई मानवीयता नहीं है अगर आप उद्योग क्षेत्र में , मजदूरों के साथ रहेंगे तो स्वतः स्पष्ट हो जाएगा की बिहार और उत्तरप्रदेश के पलायित मजदूरों के साथ हकीकत क्या है.
प्रश्न :
ऐसा क्यों करता है सरकारी विभाग –पुलिस , श्रम विभाग
उत्तर — उद्योगपति वार्ड सदस्यों से लेकर सभी सरकारी विभागों को समय -समय पर भेंट चढ़ाता है, खरीदने का तरीका —— हर नये अधिकारीयों को लांच पर बुलाकर भाई चारा कायम करना , राजनीतिक पार्टी (पक्ष -विपक्ष ) को सलामी देना।
इस अवस्था में अफसर अगर उद्योगपतियों को साथ नहीं देगा, ऐसा ईमान नहीं कहता है। ईमान यही कहता है की जिसका नमक खाओ,उसका सरियत दो न की सरिया घुसाओ। सरकारी विभाग सरकार के बजाय उक्त लोगों का नमक खाता है, सरकार सिर्फ अपने कार्यों के लिये वेतन देती है न कि नागरिकों के काम के लिये. स्वभाविक है नागरिक तो उसका पालन- पोषण नही करता है तो उसका काम क्यों करेगा ?
मैंने उत्तरप्रदेश और बिहार के मुख़्यमंत्री को कई बार आधिकारिक ईमेल से आगाह किया की — प्रदेश की सबसे मूल समस्या है –पलायनवाद , आप , इसे रोकने के लिए कारगर कदम उठायें।
2015 – बिहार में अन्य मुद्दा के साथ – साथ हर मंच से पलायन रोकने पर बल दिया गया, मुझे यह लग रहा था की आने वाली सरकार पलायन पर काम करने जा रही है, बिहार में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा और इस परिवर्तन से अन्य राज्यों में दुर्दशा हो रही है, पर लगाम लगेगी , लेकिन जब मेरी नजरें दिल्ली , पटना , मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पड़ी तो मुझे पून:मुसको भव: की कहानी स्मरण पटल पर दौड़ने लगी.
अर्थात बिहार में पलायनवाद पर कोई कारगर नीतियां नहीं बनाई गई है। हालांकि अन्य क्षेत्रों में नीतीश सरकार सफल नहीं है तो असफल भी नहीं है।
बिहार या उत्तरप्रदेश से जो युवा जितने हौसले से घर से बाहर निकलते हैं उतने ही घरों पानी गिर जाता है। घर से निकले तंदुरुस्त युवा तंदूरी रोटी की तरह लहरते दीखते है। सड़क से फैक्ट्री तक गिरगिराते रहते हैं।
2005 -2018 के मध्य बिहार सरकार ने पलायनवाद को रोकने के लिए कौन -कौन से कारगर कदम उठाने की कोशिश की है। क्या सरकार के पास मजदूर युवाओं का कोई निश्चित आंकड़ा है ? किस तरह के मजदूर पलायन कर रहा है और उसे किस तरह का काम उपलब्ध कराया जाय तो वह अपने ही प्रदेश में श्रम शक्ति का उपयोग करें –नहीं.
लालू प्रसाद यादव के करतूतों के कारण बिहार के औद्योगिक क्षेत्र पर जो काला धब्बा लगा उस स्याह को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने धोने की कोशिश की —!
एशिया में ढाका मलमल के नाम से विख्यात मधुबनी सप्ता के खादीग्राम उद्योग के बिखड़े ईंटे–रोडे पर कभी प्लास्टर की जरूरत नहीं समझी गई। गाँधी के नाम पर गाँधी के प्रतिमा के नीचे नाक रगडने और मंच पर सिर्फ गाँधी– गाँधी भोमियाने से समस्या समाधान नहीं होगा।
चीनी मिल से लेकर उर्वरक फैक्ट्री पर कभी ध्यान नहीं दिया गया , पुराने फैक्ट्री को छोड़िये, नए फैक्ट्री की संख्या कितनी है और उसमे रोजगारों की स्थिति क्या है ?
फैक्ट्री छोडिये , सरकर की जो अपनी प्रतिष्ठान है, उसमें ठीकेदारी प्रथा शुरू है , शिक्षक मित्र , पंचायत -मित्र , सखी-मित्र – ई -मित्र , उ -मित्र , आ -मित्र से रुपयों की बर्बादी ही है। मित्र शब्द — से समस्या समाधान नहीं होता , शिक्षकों को वेतन नहीं , बेरोजगारों को रोजगार नहीं, पलायनवाद से मुक्ति नहीं — मंच से जिस योजना का उद्घोषण किया जाता है उसे लिखित रूप से सचिवालय आदेश पत्र निर्गत नहीं करता है और अगर करता भी है तो प्रशासकों के चंगुल में फंस जाता है, लोगों को पता ही नही हो पाता है कि सरकार ने कौन -कौन सी जन उपयोगी योजनाऐं लाई है या लाने वाली है ———- फिर किस बात की नीतीश सरकार ! ———-
छोटे -मियाँ , छोटे -मियाँ , बड़े मियाँ सुभहान अल्लाह।
प्रखंड लिपिक से लेकर जिला अधिकारी तक, ग्रांव के चौकीदार से लेकर जिला पुलिस अधीक्षक तक केवल पार्टी राम -सलाम में गले हुए हैं , जनता के काम में कोई रुचि ही नहीं है।
20 किलोमीटर प्रखंड या अनुमंडल जायें और वहां प्रखंड पदाधिकारी या संबंधित कर्मचारी नही मिलते, एक आवासीय प्रमाण पत्र के लिये ,एक बुढिया पेंशन के लिये — कार्यालय दौड,टेम्पों, ट्रैकरों का भाडा वहन करना आम बात है. इंदिरा आवास योजना या प्रधानमंत्री आवास योजना या मनरेगा भुगतान, बैंक खाता में आने से पहले ही दलाल घुस ले लेता है फिर बैंक में पैसा भेजता है.
यह जेडीयू या नीतिश सरकार के तंत्र की सरल विशेषता है.
हम बहुचर्चित कानून -शराब बंदी को ही लें—
सवाल है , पुलिस प्रशासन चौकन्ना है तो फिर शराब कहाँ से बिकती है , पुलिस और चौकीदार शराब कहाँ से पीता है।
यह साफ़ झलकता है की शराब पकड़ने की ढोंगबाजी की जाती है , पेपरबाजी की जाती है , कई पत्रकार शराब पीते है , कहाँ से , मालगोदाम में शराब का भण्डारण क्यों ?
बिहार सरकार अगर पियक्क्ड़ को जेल में ठूँसती है तो उसके परिवार के बारे में क्या योजना बनाई हुई है ?
अगर हम गौर करते हैं तो हर नीतियां तो समझ में आती है लेकिन पालन करवाने की जो विधियां है वह समझ में नहीं आती है क्योंकि बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान के मुख्यमंत्री तथा राजनीतिक दल, मतदाताओं को गिरगिटिया मजदूर के चंगुल से बाहर नहीं निकालना चाहती है.
” मैंने भारत की कोने -कोने की यात्रा की । मैंने कही नहीं भिखारी जैसे लोगों को देखा,चोरों को देखा , लेकिन मैंने उच्च नैतिक मूल्यों के क्षमता वाले लोगों को देखा। हमने आध्यात्म और सांस्कृतिक परम्परा जैसे बहुमूल्य सम्पति को देखा जिस पर विजय पाने की कल्पना नहीं कर सकते , भारत की यही रीढ़ है जब तक हम राष्ट्र के इस रीढ़ को नहीं तोड़ेगें तब तक जीतने की कल्पना नहीं कर सकते हैं” —लार्ड मेकाले 1835 ब्रिटिश पार्लियामेंट
लेकिन आज देश और प्रदेश के नेताओं,मुख्यमंत्रियों और राजनीतिक दलों ने आध्यात्म और सांस्कृतिक परम्परा तथा अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ को तोड़ दी है जिस पर कभी मेकाले ने गर्व किया था.
अर्थहीन प्रदेश, उपायहीन सरकार — नहीं सुनते –गिरगिटिया मजदूरों की चीत्कार।