- April 22, 2016
आसान हो गया है सबको राजी रखना – डॉ. दीपक आचार्य
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अद्भुत संचार क्रान्ति के मौजूदा दौर में सब कुछ है लेकिन समय नहीं है किसी के पास। समय कम है और काम इतने अधिक कि आदमी क्या करे, कितना कुछ करे। समय की इसी कमी को देखते हुए अब नए-नए माध्यम निकल आए हैं जिनसे प्रत्यक्ष मुलाकात भले न हो, इस जैसा सुकून और सुख तो मिल ही जाता है, भले ही वह आभासी ही क्यों न हो।
फिर आजकल सब कुछ आभासी ही आभासी होता जा रहा है, वास्तविकता से हम सभी लोग जी चुरा रहे हैं। चुराएं भी क्यों न। जब नए-नए आविष्कारों ने हमारी जिन्दगी को इतना अधिक आसान बना डाला है कि हम ही महाभारत के संजय हो गए हैं, हम ही कृष्ण, अर्जुन, पाण्डवों और कौरवों की भूमिका में।
और बहुत से चतुर लोगों का समूह अपने आपको बर्बरीक बनाए किसी अट्टालिका या कोने में चुपचाप बैठा हुआ सब कुछ देख रहा है मगर बोल नहीं पा रहा है। बोले भी तो कैसे, किस पक्ष में बोले। उसके लिए पाण्डवों की भी जय, और कौरवों की भी जय बराबर है।
जब मौका आता है कृष्ण की जय बोलता हुआ माखन चाटने लगता है, कभी कंस की जय बोलता हुआ बकासुर की तरह आ धमकता है। सारे के सारे किसी न किसी महासंग्राम में नायक-महानायक और खलनायक और विदूषकों की भूमिका में आ गए हैं।
किसी को किसी काम से कोई परहेज नहीं। काम काम है, और काम से कैसा परहेज। हम पैदा ही हुए हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह के लिए। अब न उत्सव रहे, न मेले-ठेले। न सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामुदायिक आयोजनों में हमारी रुचि रही है, न पारिवारिक कार्यक्रमों में।
जब एक कोने में बैठे-बैठे ही सब कुछ दिखता रहे, दिखाया जाता रहे तो इस दुर्लभ काया को कष्ट क्यों ? एक कोना ही काफी है हमारे लिए। शोक मग्न विधुर या विधवाओं की तरह मुँह लटकाए बैठे रहो और घुस जाओ मोबाइल की दुनिया में। किसी तरह का कोई झंझट नहीं, जहाँ बैठ जाओ वहाँ शुरू, जहाँ चलते रहो, वहाँ चलाते रहो। सब एक-दूसरे को चला रहे हैं और खुश हो रहे हैं।
धर्म से जुड़ा कोई उत्सव- आयोजन आ जाए तो भगवान और मन्दिरों के फोटो, स्लोगन और श्रद्धा की बरसात करते जाओ। किसी की बर्थ डे, मैरिज एनिवर्सरी या और कुछ शुभ प्रसंग आ जाए तो धड़ाधड़ मैसेज करते जाओ। किसी की मौत पर आरआईपी और हार्दिक श्रद्धान्जलि की श्रृंखला चलाते जाओ।
कोई सा मौका सामने आ जाए, एक शुरूआत कर देता है फिर हम सभी मेंढ़कों की तरह लगातार टर्र-टर्र अपनी आभासी सदाशयता, श्रद्धा, बधाई, शुभकामनाएं और संवेदनाएं व्यक्त करते चले जाते हैं।
एक भेड़ कहीं से चिल्लाती हुई आगे बढ़ गई कि हम सारे के सारे इसलिए धड़ाधड़ मैसेज डालते चले जाते हैं कि इसमें हमारा क्या जाता है। न मन लगाना है, न शरीर को कोई परिश्रम, न दिमाग पर ज्यादा जोर।
जो कुछ दूसरे करते जाते हैं उसी का अनुसरण करते चले जाते हैं। हम उन लोगों को भी मैसेज से बधाई व्यक्त करते हैं, उनके प्रति भी श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं जिन्हें हम जानते तक नहीं, लेकिन चूंकि मुफ्त की सुविधा है, अंगुलियां चलाने भर से किसी को बधाई या शुभकामना संदेश देकर खुशी दे सकते हैं या किसी की मृत्यु पर शोक संवेदना अथवा श्रद्धान्जलि अर्पित करते हुए यदि लोगों को खुश किया और रखा जा सकता है तो हमारा क्या बिगड़ता है।
बहुत सारे लोग इसलिए लाईक, शेयर और कमेंट करते हैं ताकि न करने का उलाहना न मिले, लोग बुरा न मान जाएं अथवा हमारी पोस्ट्स को भी बराबर सम्मान मिले। कुल मिलाकर हम सभी लोग मानवीय संवेदनाओं, रिश्ते-नातों की गहराई और आत्मीयता से मुँह मोड़ते जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि हमें मानवीय मूल्यों से विहीन होना पड़ रहा है।
कितने लोग हैं जो शोक संवेदना या श्रद्धान्जलि अर्पित करने अपने ईष्ट मित्रों-परिचितों या सगे-संबंधियों के घर बैठने जाते हैं और प्रत्यक्षतः संवेदना व्यक्त करते हैं। कितने हैं जो जन्म दिन और किसी भी मांगलिक अवसर पर व्यक्तिशः बधाई देकर प्रसन्न होते हैं।
फेसबुक, व्हाट्सएप और एसएमएस जैसे माध्यमों ने हमारी सारी समस्याएं हल कर दी हैं। मैसेज कर दो और संबंधों के ऋण से मुक्त हो जाओ। और तो और हम अस्पतालों में भर्ती बीमार लोगों को भी संदेश भेज कर उनके आरोग्य की कामना कर डालते हैं।
इससे भी सौ कदम आगे बढ़कर हम भगवान को भी नहीं छोड़ते। कोई पूजा-पाठ-अनुष्ठान, जप-तप, दैव दर्शनादि से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है हमें भगवान के फोटो आयात-निर्यात करते हुए भक्ति दर्शाना।
कई लोग तो केवल नाम और फोटो से ही परिचय पाने लगे हैं। और फोटो भी खुद की बजाय औरों के। भगवान ने इंसान को जिस पहचान के साथ धरा पर भेजा है उस शाश्वत पहचान को भी हम छिपाने लगे हैं, यह कितने दुर्भाग्य और शर्म की बात है। इन सभी के बावजूद आत्ममुग्धता के जंगल में भटकते हम सभी लोगों के लिए ये सम सामयिक माध्यम सुकून के ज्वार में हमें नहला रहे हैं, यह इस सदी की स्वर्णिम सौगात ही कही जा सकती है।