- November 7, 2015
केरल चुनाव : यूडीएफ की सत्ता में वापसी
रविवार को बिहार चुनाव के नतीजे आ जाएंगे। तमाम विश्लेषणों के बीच राजनीतिक दल वर्ष 2016 की राज्य विधानसभाओं की चुनावी दौड़ के लिए तैयार होने लगेंगे। अगली गर्मियों में तमिलनाडु, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल और असम में विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन सबसे पहले केरल में चुनाव होने हैं जिनको मई समाप्त होने के पहले निपटाया जाना है।
केरल चुनाव सभी चुनावों में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके नतीजे ऐतिहासिक हो सकते हैं। वहां कांग्रेसनीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) की सत्ता में वापसी हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो राज्य में पहली बार होगा जब कोई सत्तारूढ़ दल दोबारा सत्ता में वापसी करेगा। इतना ही नहीं विभिन्न गठबंधनों के बीच का संतुलन इतना बारीक है कि मतों में मामूली सा हेरफेर भी चुनावी नतीजों में बड़े बदलाव का सबब बन सकता है।
पहले बात करते हैं केरल से जुड़े कुछ तथ्यों की: राज्य विधानसभा में कुल 140 सीटें हैं जबकि राज्य में लोकसभा की 20 तथा राज्यसभा की महज नौ सीटें हैं। लेकिन राज्य में गठबंधन की राजनीति केवल दलों तक सीमित नहीं है बल्कि दलों के भीतर भी विभिन्न धड़े हैं। राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री उम्मेन चांडी काफी लोकप्रिय हैं, हालांकि महज 72 सीटों के साथ राज्य में यूडीएफ को मामूली बहुमत हासिल है जो इसके उलट है।
हकीकत में उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी रमेश चेन्निथला ने एक अभियान का नेतृत्व कर कहा था कि उनको लोगों से मिलना बंद करके सचिवालय में काम करना चाहिए। चांडी किसी को ना नहीं कह सकते। इस मामले में वह अपने पूर्व मार्गदर्शक ए के एंटनी से अलग हैं।
एंटनी सार्वजनिक रहते हुए भी काफी हद तक अपनी निजता बरकरार रखते हैं। बतौर उत्तराधिकारी चांडी का चयन एंटनी ने ही किया था लेकिन बाद में वह अपने गुरु एंटनी की अलोकप्रिय और विचित्र आदर्शवादी राजनीतिक स्थिति के मूक आलोचक हो गए।
चांडी के साथ काम कर चुके एक पूर्व नौकरशाह ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि चांडी विस्तृत ब्योरों में यकीन रखने वाले व्यक्ति हैं। जब वह वित्त मंत्री थे तब उनको एक ही उड़ान पर साथ में यात्रा करने का अवसर मिला था। उन्होंने कृषि क्षेत्र की फाइनैंसिंग के बारे में चर्चा भी की थी। तीन महीने बाद चांडी ने उक्त नौकरशाह को कुछ और दौर की चर्चा के लिए बुलाया और विस्तार से बात की।
बतौर मुख्यमंत्री चांडी ने कई विवादास्पद कदम भी उठाए। उनकी शराब नीति के कारण 700 से अधिक बार बंद करने पड़े और शराब की बिक्री को केवल पांच सितारा होटलों तक सीमित कर दिया गया। इससे राजस्व का नुकसान हुआ। मुकदमेबाजी हुई और केरल की जीवनरेखा माने जाने वाले पर्यटन उद्योग को भारी नुकसान हुआ।
यहां तक रिश्वत के लेनदेन के गंभीर इल्जाम भी लगे। गठबंधन साझेदार केरल कांग्रेस से ताल्लुक रखने वाले वित्त मंत्री के एम मणि अभी भी भ्रष्टïाचार के इल्जामों से दोचार हैं। कहा जा रहा है कि कथित वित्तीय सहयोग के बदले शराब नीति में बदलाव किया गया। लेकिन चांडी उनके साथ हैं।
उन्होंने यहां तक कह डाला कि अगले 10 सालों में केरल को शराबमुक्त राज्य बना दिया जाएगा। हालांकि उन्होंने माना कि इससे 8,000 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होगा। जाहिर सी बात है कि उन्हें शराब के सबसे बड़े पीडि़तों यानी महिलाओं का भरपूर सहयोग मिला। परंतु एझावा समुदाय के प्रति यूडीएफ की नीति को भी चांडी का उतना ही मजबूत राजनीतिक हस्तक्षेप माना जा सकता है।
यह समुदाय पारंपरिक तौर पर वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) का समर्थक रहा है। बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी बहुत आक्रामक अंदाज में उनको लुभाने की कोशिश की है। वास्तव में वर्ष 2013 में जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो उनकी शुरुआती यात्राओं में से एक एझावा समुदाय के आध्यात्मिक गुरु श्री नारायण गुरु की स्मृति में हुए आयोजन से जुड़ी थी। वरक्कल जिले के शिवगिरि में आयोजित इस समारोह में मोदी ने अस्पृश्यता की त्रासदी के बारे में बात की। इसमें राजनीतिक अस्पृश्यता की बात भी शामिल थी। इस आयोजन ने वाम दलों के मन में खतरे की घंटी बजा दी क्योंकि उनके एक मजबूत आधार को ठीक उनकी नाक के नीचे से छीनने की कोशिश की जा रही थी। मोदी की बैठक में अप्रत्याशित संख्या में लोग आए।
चांडी ने भी यह सब देखा लेकिन उन्होंने अलग ढंग से सोचा। एझावा समुदाय द्वारा वाम दलों को त्यागने का फायदा यूडीएफ को ही मिलना था क्योंकि भाजपा इतनी मजबूत नहीं थी कि वह चुनौती पेश कर सके। केरल की आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 27 फीसदी है जबकि विभिन्न ईसाई पंथ करीब 18 फीसदी हैं। बड़ी संख्या में दोनों धार्मिक समुदायों का समर्थन एलडीएफ के साथ लेकिन बहुमत हमेशा यूडीएफ के साथ रहा। भाजपा तथाकथित हिंदू वोट बैंक में सेंध लगा रही थी जिसका बड़ा हिस्सा एलडीएफ के साथ था।
आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2011 के चुनाव में यूडीएफ को 45.83 फीसदी मत मिले जबकि एलडीएफ को 44.9 फीसदी। यूडीएफ को 72 सीटों पर जीत मिली जबकि एलडीएफ को 68 पर। भाजपा की मत हिस्सेदारी 6.03 फीसदी रही। तकरीबन 35 सीटों पर अंतर 5,000 से कम मतों का रहा। ये सीटें उलटफेर की वजह बन सकती हैं। वर्ष 2006 में महज 6 फीसदी मतों के अंतर के बावजूद एलडीएफ 140 सीटों वाली विधानसभा में 100 सीटें जीतने में कामयाब रही। ये सारी बातें हमें क्या बताती हैं? वाम दलों के दो सबसे बड़े नेताओं अच्युतानंदन और पिनराई विजयन के बीच परस्पर नुकसानदायक झगड़ा है। भाजपा की जमीन मजबूत हो रही है। लेकिन सबसे अधिक लाभ यूडीएफ को होगा। यही वजह है कि वर्ष 2016 के केरल विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक साबित हो सकते हैं।