- October 29, 2015
त्यागें आत्मबंधन – डॉ. दीपक आचार्य
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हम सभी के पैदा होने का उद्देश्य लोक मंगल और विश्वोत्थान के कामों को आगे बढ़ाने में भागीदार बनना और मुक्ति पाने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना है।
जिसे मुक्ति की कामना होती है वह सारे के सारे बंधनों से परे रहता है। जीवन में सारे कर्म अनासक्त होकर करता है और वे ही काम करता है जिससे हमारी जीवन्मुक्ति का दौर बना रहे और जीवन का अंत हो जाने पर शाश्वत गति-मुक्ति हो।
लेकिन यह सब कुछ केवल सोच-विचार तक ही सीमित रहता है। इसके बाद इन बातों का कोई वजूद नहीं रहता। जब तक हम शुद्ध चित्त और निर्मल शरीरी होते हैं तभी तक हमारा मस्तिष्क ऊर्वरा और सकारात्मक वैचारिक भावभूमि से परिपूर्ण बना रहता है।
जैसे ही हमारे दिल और दिमाग में संसार घुसने लगता है तभी से हमारा मन-मस्तिष्क और शरीर संसारी हो जाते हैं और असारी बातों का दामन थाम लिया करते हैं।
हम सभी लोगों ने इस मामले में अपनी मौलिकता को खोकर आडम्बर और बहुविध कृत्रिमता ओढ़ ली है जहाँ हम छोटे-मोटे स्वार्थों और वासनाओं का पल्ला पकड़ कर किसी न किसी विचार, व्यक्ति या संसाधन से बंध जाते हैं। और एक बार जब कोई भी किसी भी प्रकार क बंधन से सायास या अनायास बंध जाता है तब इसके बाद वह निरन्तर बंधता ही चला जाता है।
एक बार बंधन का स्वभाव पा जाने के बाद इंसान हर मामले में बंधता ही चला जाता है और वह भी ऎसा बंधन कि हम चाहे जितना सोचें, करें और प्रयासरत रहे, उन बंधनों को काटना या ढीला कर पाना कभी संभव नहीं होता।
इस मामले में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। स्वार्थ, मोह और आसक्ति के पाशों से जकड़ा रहने वाला इंसान कोई भी हो सकता है। जिसका जितना बड़ा स्वार्थ उतनी अधिक गहरी आसक्ति का भाव। इस मामले में सारे के सारे सरीखे हैं।
हर कोई प्राणी आजादी, मस्ती और आनंद के साथ जीना चाहता है लेकिन वह अपने इन मौलिक गुणों का इस्तेमाल करते हुए जीने तथा जियो और जीने दो के सिद्धान्त का पालन करने की बजाय दूसरों के भरोसे अपने आपको आनंदित और मस्त रखना चाहता है।
कई बार अपने घृणित और तुच्छ स्वार्थ को लेकर वह किसी की भी गुलामी करने लग जाता है, कभी दूसरों के दिखाये प्रलोभन के आगे घुटने टेक देता है, कुछ पाने के लिए वह आपको समर्पित कर देता है, कभी दबावों में झुक जाता है और अधिकांश बार किसी न किसी आकर्षण के मारे किसी न किसी से बंध जाता है। और बंधता भी ऎसा है कि लाख कोशिश कर ले, छूट नहीं पाता।
इंसान अपने आप में संप्रभु और स्वतंत्र अस्तित्व वाला प्राणी है जो सामाजिकता की वजह से समाज के बंधनों को स्वीकार करता है, मर्यादाओं को पालता है । जो अपने आत्म अनुशासन में रहता है वह स्वतंत्रतापूर्वक मस्ती के साथ जीवनयापन का आनंद पा लेता है लेकिन जो अनुशासनहीनता और स्वेच्छाचार अपना लेता है अथवा किसी न किसी नाजायज इच्छा की पूर्ति या ऎषणाओं के जंगल में भटक जाता है उसके लिए दूसरों का सहारा लेना जीवन की सबसे बड़ी और अपरिहार्य विवशता हो जाता है।
ऎसा इंसान अपने आपको घर-बाहर सब जगह बंधनों में ही घिरा पाता है। आज के जमाने में हम सभी लोग अपनी कामनाओं और स्वार्थों से इतने अधिक घिर गए हैं कि हमारे चारों तरफ दबावों, प्रलोभनों और आकर्षणों के पाशों का पूरा का पूरा नेटवर्क पसरा हुआ है।
मामूली ऎषणाओं की पूर्ति के लिए हम जाने कैसे-कैसे सडान्ध भरे समझौते करने लगते हैं, किन-किन नुगरों, नालायकों और कमीनों से समीकरण बिठाते रहते हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। यही नहीं तो निन्यानवें और चार सौ बीसी के फेर में हम क्या कुछ नहीं करते जा रहे हैं।
यह सारे बंधन हमारे ही पैदा किए हुए हैं अन्यथा ऎसी कौन सी शक्ति है जो इंसान को किसी न किसी से बांधे रखे, किसी का दास बनाकर रखे और पूरी की पूरी आजादी छीन कर गुलाम बना दे। और गुलाम भी ऎसा कि वह न बोल सके, न देख सके और न ही कोई प्रतिक्रिया कर सके।
हम सभी लोग मर्यादाओं और अनुशासन की परिधियों में हर मामले में स्वतंत्र और मुक्त हैं लेकिन अपने स्वार्थों, कुटिलताओं और षड़यंत्रों ने हमें कहीं का नहीं रहने दिया है। हम भले ही अपने को कितना ही महान और प्रतिष्ठित क्यों न समझते रहें, आखिरकार किसी न किसी मामले में कोई न कोई बंधन हम पर हावी है ही। और ये सारे बंधन हमने स्वेच्छा से ओढ़ रखे हैं वरना हमारी आजादी छीनने की हिम्मत किस में है।
हममें से हरेक आदमी अपना आत्म मूल्यांकन करे तो पाएंगे कि सारे बंधन हमने ही आदर सहित स्वीकार किए हुए हैं। और ये बंधन ही हैं जिनकी वजह से हम सारे मशीन बने हुए किसी न किसी बाड़े के दास या गुलाम की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
मुक्ति का सफर चाहें तो इन बंधनों को एक-एक कर छोड़ें और आत्मस्थिति में आएं, अपने भीतर के उस इंसान को जानें जिसे ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। अपनी शक्तियों और कर्मयोग को पहचानें तथा सारे आत्म स्वीकार्य बंधनों को एक तरफ फेंक कर खुद भी मुक्ति का अहसास करें और अपने संपर्क में आने वाले तमाम प्राणियों को भी मुक्ति का मार्ग दिखाएं।