- October 22, 2024
न्याय देवी की पट्टी हटी, न्यायपालिका की कब हटेगी
राजेश कुमार पासी : सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की देवी की नई मूर्ति लगाई गई है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूढ़ के आदेश पर बनाया गया है । यह कानून के बारे में फैली इस धारणा को खत्म करने की कोशिश लगती है कि कानून अंधा है। कई फिल्मों में कानून को अंधा बताया गया है और एक फ़िल्म तो अंधा कानून के नाम से बनी थी । इस मूर्ति से संदेश दिया गया है कि न्याय बिना देखे नहीं किया जा सकता ।
न्याय सब कुछ देखकर और सोच समझ कर किया जाता है, हमारा कानून सजा नहीं देता है बल्कि न्याय करता है। यह सोच कर ही चन्द्रचूढ़ जी ने न्याय देवी की मूर्ति की आंखों पर पड़ी काली पट्टी हटा दी है । वैसे देखा जाये तो पुरानी मूर्ति पर लगी पट्टी यह दर्शाती थी कि कानून की नजर में सब बराबर हैं । न्याय की देवी बिना किसी भेदभाव के सबके साथ न्याय करती है । देखा जाये तो न्याय की दृष्टि से यह एक अच्छा संदेश था । इसके अलावा मूर्ति के एक हाथ में पकड़ी गई तलवार को हटाकर वहां पर संविधान को रख दिया गया है । तलवार शक्ति का प्रतीक है, जो संदेश देती है कि अपराध करने पर हमारे पास सजा देने की शक्ति है । जबकि संविधान यह संदेश देता है कि हम सजा नहीं देते बल्कि कानून के अनुसार न्याय करते हैं । देखा जाये तो जहां तलवार सजा का प्रतीक है वहां संविधान न्याय का प्रतीक है । मूर्ति के दांये हाथ में तराजू को बरकरार रखा गया है, जो कि समाज में संतुलन का प्रतीक है । यह संदेश देता है कि हम बिना किसी भेदभाव के न्याय देने से पहले दोनों पक्षों के तथ्यों और तर्कों को देखते और सुनते हैं, इसके बाद हम न्याय करते हैं ।
वैसे इस मूर्ति का इतिहास बहुत पुराना है । जैसे हमारी संस्कृति में हर चीज के लिए कोई देवी या देवता है, वैसे ही रोमन माइथोलॉजी में भी हर चीज के लिए कोई देवी या देवता है । यह मूर्ति लेडी ऑफ जस्टिस अर्थात न्याय की देवी जस्टिशिया की है, इन्हीं के नाम से जस्टिस शब्द आया है । इनकी आंखों पर बंधी पट्टी दर्शाती है कि न्याय हमेशा निष्पक्ष होना चाहिए । 17वीं शताब्दी में एक अंग्रेज अफसर इन्हें भारत लेकर आये थे । 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के दौरान इसका इस्तेमाल भारत में होने लगा था, जिसे आजादी के बाद हमने भी प्रतीक के रूप में अपना लिया है । रोम के सम्राट ऑगस्टस न्याय को साम्राज्य का प्रमुख गुण मानते थे और उनके बाद सम्राट टिबेरियस ने रोम में न्याय की देवी जस्टिशिया का एक मंदिर भी बनवाया था । मोदी सरकार की नीति है कि ब्रिटिश काल में बनी गुलामी की निशानियों को देश से मिटा दिया जाए, शायद यही कारण है कि इस मूर्ति को बदला गया है । इस साल मोदी सरकार ने ब्रिटिश काल में बना इंडियन पैनल कोड हटाकर नया कानून भारतीय न्याय संहिता लागू कर दिया है । इसके द्वारा भी यह संदेश दिया गया है कि इंडियन पैनल कोड न्याय देने के लिए नहीं था बल्कि शासकों द्वारा अपने गुलामों को सजा देने के लिए बनाया गया कानून था । इसलिए मोदी सरकार ने इस कानून की जगह भारतीय न्याय संहिता लागू की है, जिससे संदेश दिया गया है कि अब कानून सजा नहीं देता बल्कि न्याय देता है । सुप्रीम कोर्ट भी केन्द्र सरकार की नीतियों पर आगे बढ़कर ब्रिटिश काल की निशानियों को मिटाना चाहता है ।
न्याय की देवी को बदलकर पुराने प्रतीकों को खत्म करना अच्छा माना जाएगा लेकिन क्या न्यायपालिका इस देवी के प्रतीक के अनुसार न्याय भी देगी, यह बड़ा सवाल खड़ा है । मूर्ति के अनुसार सभी को निष्पक्ष रूप से न्याय देना क्या संभव हो पायेगा । नई हो या पुरानी मूर्ति दोनों का संदेश यही है कि न्याय के लिए आने वाले लोगों को जाति-धर्म, पैसा-पावर और उनका रसूख देने बिना उनके साथ न्याय किया जायेगा । क्या कोई भी देश में यह बात मानता है कि हमारी न्याय-व्यवस्था में ऐसा होता है । बड़े-बड़े नेताओं के मुकदमों की तारीख बड़ी जल्दी मिल जाती है जबकि गरीब आदमी के मुकदमों की तारीख सालों तक नहीं मिलती । जिस तरह से पिछले कुछ सालों से मुकदमों का सामना कर रहे नेताओं की जमानत अर्जी पर बार-बार सुनवाई हो जाती है और उन्हें जमानत भी मिल जाती है, क्या ऐसा किसी आम व्यक्ति के साथ भी होता है । कुछ लोगों के लिए तो सुप्रीम कोर्ट रात को भी बैठ जाता है जबकि गरीब आदमी को तारीख पर तारीख दी जाती है । क्या यह सच नहीं है कि नेताओं और अफसरों से परेशान आदमी अदालत की शरण में पहुंच जाता है लेकिन अदालत से परेशान आदमी के लिए कोई जगह नहीं है । हमारी राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु जी ने कहा था कि अमीर आदमी कत्ल करके भी घूमता रहता है और गरीब आदमी एक थप्पड़ मारकर सालों तक जेल में सड़ता रहता है । उसकी जमानत के लिए घर के बर्तन तक बिक जाते हैं । यह बात भी उन्होंने उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की उपस्थिति में कही थी । क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति में सुधार के लिए कोई कदम उठाया है । सुप्रीम कोर्ट को खुद ही विचार करना होगा कि कोई गरीब आदमी न्याय पाने के लिए उसके दरवाजे पर कैसे पहुंच सकता है । सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ने वाले वकीलों की एक पेशी की फीस ही लाखों रुपये होती है जिसे सिर्फ अमीर व्यक्ति ही दे सकता है । गरीब आदमी तो निचली अदालतों में ही न्याय लेने की उम्मीद करता है, इसके ऊपर जाने की हिम्मत वो नहीं कर सकता ।
न्यायपालिका को सिर्फ मूर्ति की आंखों से पट्टी हटाकर नहीं रुक जाना चाहिए बल्कि अपनी आंखों पर पड़ी पट्टी को भी हटाना चाहिए । उसे देखना चाहिए क्यों आम आदमी कानून को अंधा मानता है । न्यायपालिका अपने हर फैसले में हर काम की समय सीमा तय कर देती है लेकिन अपने पास लंबित पड़े पांच करोड़ मुकदमों को खत्म करने की समय सीमा क्या होगी, उसे यह भी बताना चाहिए । न्यायपालिका को समझना होगा कि देर है, अंधेर नहीं है, यह कहावत पुरानी हो गई है । वास्तव में देर ही अंधेर है । जब दादा का मुकदमा पोते को लड़ना पड़े तो मान लेना चाहिए कि न्याय नहीं अन्याय हो रहा है । अजमेर सेक्स कांड के अपराधियों को 32 साल बाद सजा सुनाई गई है और वो भी ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई है । मामला हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आ जाता है तो उन्हें सजा कब होगी । कितने ही कर्मचारी न्याय पाने के लिए अपनी सेवा के दौरान मुकदमा करते हैं और उनकी सेवानिवृत्ति के बाद अदालत फैसला देती है । क्या ऐसे न्याय को न्यायपालिका न्याय मानती है । सालों तक मुकदमों का फैसला न हो पाना न्यायपालिका की सबसे बड़ी समस्या है । देखा जाये तो सरकार के तीन अंगों में कार्यपालिका और विधानपालिका जनता के प्रति जवाबदेह है क्योंकि उसे बार-बार जनता के समर्थन के लिए उसके पास जाना पड़ता है । जब जनता उनसे नाराज होती है तो उसकी शक्ति छीन लेती है ।
न्यायपालिका किसके प्रति जवाबदेह है, यह उसे ही विचार करना होगा ।
सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा है कि सिर्फ न्याय होना ही जरूरी नहीं है बल्कि न्याय होता दिखना भी जरूरी है । अब न्यायपालिका खुद विचार करे कि जनता को उसका न्याय क्यों नहीं दिखाई दे रहा है। सोशल मीडिया में न्यायपालिका के प्रति जनता के विचार ज्यादा अच्छे नहीं हैं । संविधान समानता का अधिकार देता है लेकिन न्यायपालिका में सबके साथ समानता का व्यवहार किया जाता है, इस पर न्यायपालिका को ही विचार करना है और जवाब भी खुद ही ढूंढना है ।