भारत बंद ने दलित राजनीति की कमजोरी उजागर कर दी

भारत बंद ने दलित राजनीति की कमजोरी उजागर कर दी

राजेश कुमार पासी —- बाबा साहब अम्बेडकर दलित आन्दोलन को वहां लेकर आ गए थे, जिसके बाद दलितों के लिए एक अलग देश की मांग उठ सकती थी । गांधी जी ने इसे समय पर भांप लिया और बाबा साहब को पूना पैक्ट के लिए मजबूर कर दिया । इसी पूना पैक्ट की देन दलितों और आदिवासियों को मिला आरक्षण है । दलितों को मिला आरक्षण एक तरह से कर्ण को मिले कवच की तरह है, जिसे कभी भी दलितों की मर्जी के बिना छीना नहीं जा सकता क्योंकि ये कवच शरीर चिपका हुआ है, जिसे सिर्फ दलित ही उतार कर फेंक सकते हैं । कर्ण कवच को धारण करके बेफिक्र होकर लड़ सकता था लेकिन दलितों का ये कवच एक मुसीबत बन गया है । आजादी के बाद कांग्रेस, दलित नेताओं और संगठनों ने इस आरक्षण को कवच की जगह एक ढीले पजामे में बदल दिया । जैसे व्यक्ति ढीले पजामे को एक हाथ से पकड़ घूमता रहता है, ऐसे ही दलित समाज पिछले 77 सालों से इस आरक्षण को लेकर घूम रहा है । इसका मतलब यह है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कांग्रेस, अन्य विपक्षी दल, दलित नेता और संगठन दलितों को डराते रहे हैं कि तुम्हारा आरक्षण कभी भी छीना जा सकता है और दलित पिछले 77 सालों से सिर्फ आरक्षण की रक्षा में ही लगे हुए हैं । आरक्षण संविधान या कांग्रेस ने नहीं दिया है बल्कि यह तो संविधान बनने से पहले ही बाबा साहब के संघर्ष से मिला हुआ अधिकार हैं जिसे बाद में संविधान में भी शामिल किया गया है । दलित समाज ने आरक्षण बड़ी कीमत देकर हासिल किया है क्योंकि आरक्षण के कारण ही अलग देश की मांग छोड़ दी गई । आरक्षण छीनने का डर ऐसा है कि दलित समाज ने कभी अपने साथ हुए अन्याय को समझा ही नहीं क्योंकि उसका ध्यान हमेशा आरक्षण पर लगा रहा । सवाल यह है कि आरक्षण तो बाबा साहब की देन है, फिर कांग्रेस ने दलितों को क्या दिया । पिछले 77 सालों से दलित समाज के नेताओं और संगठनों ने क्या हासिल किया । वास्तव में पिछले 77 सालों से ये लोग आरक्षण बचाने की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं जबकि आरक्षण को कभी कोई खतरा था ही नहीं । आज तक हिन्दू समाज ने आरक्षण को खत्म करने के लिए कोई छोटा सा भी आंदोलन नहीं किया है । दलित-आदिवासी समाज की जनसंख्या को देखते हुए किसी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वो आरक्षण खत्म करने की बात सोच भी सके ।

दलित नेताओं और संगठनों की राजनीतिक समझ लगभग शून्य है इसलिए उन्होंने 21 अगस्त को भारत बंद बुलाया था । इसकी वजह बताई गई, सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण में राज्यों को उपवर्गीकरण का अधिकार देना और आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने की सलाह देना । वास्तव में ये प्रदर्शन विरोध जताने के लिए नहीं था बल्कि दलित संगठन अपनी ताकत दिखाना चाहते थे । सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ क्रीमी लेयर लागू करने के बारे में टिप्पणी की है, न तो कोई आदेश दिया है और न ही सरकार को कोई निर्देश दिया है इसके बावजूद केंद्र सरकार ने क्रीमी लेयर के विचार को ही पूरी तरह से नकार दिया है। जहां तक उपवर्गीकरण की बात है तो वो भी कोई आदेश नहीं है बल्कि राज्यों को उपवर्गीकरण का अधिकार दिया गया है जो कि पहले सिर्फ केंद्र सरकार के पास था । केंद्र सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है क्योंकि उसके पास तो पहले से ही ये अधिकार है। जिन राज्यों ने उपवर्गीकरण करना है उन्हें इस प्रदर्शन से फर्क पड़ने वाला नहीं है क्योंकि उन राज्यों में दलित वर्ग ही इसकी मांग कर रहा है। तमिलनाडु, पंजाब, कर्नाटक और हरियाणा में यह लागू हो सकता है । भारत बंद का इन राज्यों में कोई असर नहीं हुआ, इसका मतलब है कि इन राज्यों का दलित समाज उपवर्गीकरण के खिलाफ नहीं है । जिसे भारत बंद कहा जा रहा है, वो सिर्फ दो-तीन राज्यों तक सीमित होकर रह गया । बसपा और भीम आर्मी के गढ़ यूपी में इसका कोई असर दिखाई नहीं दिया । दलित संगठनों की अपील पर क्यों दुकानदार और व्यापारिक प्रतिष्ठान अपना कामकाज बंद करेंगे, इस पर इन संगठनों ने विचार ही नहीं किया। दूसरी बात यह है कि ये प्रदर्शन किसके खिलाफ किया जा रहा है, ये बड़ा सवाल है क्योंकि केंद्र सरकार का इसमें कोई रोल नहीं है और सुप्रीम कोर्ट को ऐसे प्रदर्शनों से फर्क नहीं पड़ता। आरक्षण किसी दूसरे को दिया जाना नहीं है बल्कि दलितों में पीछे छूट गई जातियों को आगे लाने की कोशिश है । आरक्षण न तो कम किया जा रहा है और न ही बढ़ाया जा रहा है तो ये प्रदर्शन क्यों किया गया था । वास्तव में ताकतवर जातियां नहीं चाहती हैं कि कमजोर जातियों को उनका हक मिले, इसलिए वो अपनी ताकत दिखाकर सरकार पर दबाव बना रही हैं। दलितों में ही सवर्ण वर्ग पैदा हो गया है और वो ही सारे आरक्षण का फायदा ले रहा है, वो दूसरों को हक देना नहीं चाहता, इसलिए सरकार को डरा रहा है कि वो आरक्षण में बिल्कुल भी छेड़छाड़ न करे, जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जाए। विडंबना यह है कि कमजोर जातियों और गरीब दलितों की दलित संगठनों में बिल्कुल भागीदारी नहीं है इसलिए उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है। जिनके पास ताकत है वो अपनी ताकत दिखा रहे हैं और जो कमजोर हैं वो बेचारे चुपचाप बैठे हुए हैं।

भारत बंद के दौरान नारा लगाया जा रहा था कि छीनकर लेंगे आरक्षण, सवाल उठता है कि किससे छीनोगे । दलित संगठन आखिर अपनी ताकत कहां खर्च कर रहे हैं, इस पर उन्हें विचार करना चाहिए । वो अपने ही समाज के दबे-कुचले लोगों को अधिकार देने के खिलाफ खड़े होंगे तो दलित संघर्ष का क्या होगा । कई जगहों पर इस प्रदर्शन का विरोध दलित समाज के ही लोगों द्वारा किया गया । वास्तव में राजनीति में आरक्षण के कारण दलित सांसद और विधायक तो बन जाते हैं लेकिन इससे राजनीतिक समझ पैदा हुई, ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है । अपने नेताओं का साथ दलित समाज देता है लेकिन अपने समाज का साथ दलित नेता नहीं देते । जब कभी आरक्षण का मुद्दा आता है तो इन्हें जातिवाद याद आ जाता है, वैसे इन्हें कभी जातिवाद दिखाई नहीं देता । काशीराम जी ने संघर्ष करके दलितों के लिए एक शक्तिशाली राजनीतिक पार्टी बनाई लेकिन आज उस पार्टी की क्या हालत है, सबको पता है । जहां काशीराम जी ने छोड़ा था, दलित नेताओं की मेहनत से समाज आगे बढ़ने की जगह पीछे जा रहा है । बसपा एक जाति विशेष की पार्टी बनकर रह गई है । चन्द्रशेखर एक बड़े दलित नेता बन सकते थे लेकिन वो आज एक सांसद बनकर फूले नहीं समा रहे हैं । वास्तव में वो एक सामाजिक नेता थे लेकिन राजनीति में आकर उन्होंने अपनी ताकत को खत्म कर दिया है । सामाजिक संघर्ष से जातियों को जोड़ा जा सकता था लेकिन राजनीतिक पार्टी बनाकर जातियों को तोड़ दिया गया । राजनीतिक ताकत बनने के लिए सामाजिक ताकत बनना बहुत जरूरी है । मुस्लिमों की राजनीतिक ताकत उनको उनकी सामाजिक ताकत से हासिल होती है । बिना आरक्षण के मुस्लिमों ने राजनीति में प्रतिनिधित्व हासिल किया है । मोदी सरकार से पहले न कोई दलित राष्ट्रपति बना न ही कोई आदिवासी बन पाया जबकि मुस्लिम समाज से तीन राष्ट्रपति बन चुके हैं । कांग्रेस ने जिन्हें दलित कहकर राष्ट्रपति बनाया, संदेह है कि वो अपना धर्म बदल चुके थे । न्यायपालिका में मुस्लिम अपना हिस्सा पाने में कामयाब रहे लेकिन दलित कहीं नजर नहीं आये ।

वास्तव में दलित राजनीति का सच यह है कि ये कभी आरक्षण से अलग कुछ सोच ही नहीं पाई इसलिए आरक्षण के अलावा कुछ हासिल नहीं हो सका । आजादी के बाद भूमि सुधार आंदोलन में जब जमीनों का बंटवारा हुआ तो कांग्रेस ने दलितों को खाली हाथ छोड़ दिया । मुस्लिम एक अलग देश लेकर भी वक्फ बोर्ड के नाम पर नौ लाख एकड़ जमीन के मालिक बन बैठे हैं । जिन जातियों को जमीन बंटवारे का बड़ा हिस्सा मिला, वो भी ओबीसी आरक्षण में फायदा ले गई । आजादी के तीन-चार दशकों में शिक्षा व्यवस्था में दोहरी प्रणाली लागू कर दी गई । एक तरफ सरकारी हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाने वाले स्कूल थे तो दूसरी तरफ अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले निजी स्कूल आ गये । इस दोहरी शिक्षा प्रणाली ने दलितों- आदिवासियों को निजी क्षेत्र से बाहर कर दिया जबकि आज सबसे ज्यादा रोजगार निजी क्षेत्र में ही है । राजीव गांधी जी ने कहा था कि मैं केन्द्र से एक रुपया भेजता हूं तो जनता के पास सिर्फ दस पैसे जाते हैं । उनका मतलब था कि भ्रष्टाचार के कारण जनता को लाभ नहीं मिलता । भ्रष्टाचार के कारण दलितों-आदिवासियों को मिलने वाला पैसा नेताओं और अफसरों की जेब में जाता रहा और कांग्रेस देखती रही । राजनीति और नौकरशाही में मौजूद दलित भी इसका लाभ लेते रहे, इसलिए भ्रष्टाचार दलितों और आदिवासियों के हक पर डाका है, कोई देख ही नहीं पाया । एक ढीले पजामे की तरह हाथ में आरक्षण को पकड़कर दलित समाज घूम रहा है लेकिन इस आरक्षण के नाम पर उससे क्या-क्या छीन लिया गया है, इसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है । सिर्फ दस साल में मोदी सरकार ने अपनी लाभार्थी योजना से कई लाख करोड़ रुपये दलितों और आदिवासियों की जेब में डाल दिया है, इसकी चर्चा तक दलित संगठन और नेता करने को तैयार नहीं हैं । अपने 55 सालों के शासन में कांग्रेस ने दलितों-आदिवासियों के नाम पर खर्च किये गये लाखों करोड़ रुपये नेताओं और अफसरों में की जेब में डाल दिये, इसका अहसास भी समाज को नहीं हैं क्योंकि वो आरक्षण को संभाल रहा है । अंत में इतना कहूंगा कि आरक्षण कहीं जाने वाला नहीं है लेकिन आरक्षण के अलावा जो मिलना चाहिए था, उसका हिसाब कौन देगा । इन दलित नेताओं और संगठनों को ही इसका हिसाब देना होगा कि उन्होंने 77 सालों के संघर्ष से क्या हासिल किया ।

(सीमा पासी के फेसबुक साभार)

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