- March 23, 2023
बिहार की धरोहर : पर्यटन और रोजगार सृजन का साधन :– सौम्या ज्योत्सना
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार ————- हमारी धरोहर, हमें अपने जड़ों से जोड़ती है और जड़ों का मजबूत होना बेहद जरूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी विरासत और संस्कृति के बारे में न केवल जाने बल्कि उसकी महत्ता से भी परिचित हो जाए. धरोहरों की महत्ता न केवल भारत में है बल्कि दुनिया भर में इस पर काफी गंभीरता से ध्यान दिया जाता है. साल 1968 में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने दुनिया भर की प्रसिद्ध इमारतों और प्राकृतिक स्थलों की सुरक्षा का प्रस्ताव पहली बार प्रस्तुत किया था, जिसे स्टॉकहोम में आयोजित हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पारित किया गया था. उसके बाद यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज सेंटर की स्थापना हुई और 18 अप्रैल 1978 में विश्व स्मारक दिवस मनाने की परंपरा भी शुरू की गई.
दरअसल, धरोहर अतीत की गौरव गाथा होती है, जिससे न केवल आने वाली पीढ़ी अवगत होती है बल्कि वर्तमान पीढ़ी भी कई अनकहे पहलुओं से परिचित होती है. ये धरोहर सरकार के लिए राजकोष की भांति होते हैं, जो पर्यटन स्थल के तौर पर सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करता है. इस लिहाज से धरोहरों को संरक्षित करना किसी भी सरकार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. सभी राज्य सरकारों के साथ साथ केंद्र सरकार भी अपने स्तर से पर्यटन को बढ़ावा देने एवं धरोहरों को संरक्षित करने के लिए सराहनीय कदम उठा रही है. लेकिन कुछ ऐसे भी धरोहर स्थल हैं जिसकी महत्ता तो काफी है लेकिन वह आज तक उपेक्षा का शिकार हैं. इन्हीं में एक अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल की जन्मस्थली भी है.
बिहार के पूर्वी चम्पारण स्थित मोतिहारी में 25 जून 1903 को जन्मे जॉर्ज ऑरवेल की जन्मस्थली आज उपेक्षाओं के बोझ तले खंडहर में परिवर्तित हो रही है. उनकी प्रतिमा टूटी हुई है और वहां ईंटें रख दी गई हैं. आसपास गंदगियों का अंबार लग चुका है और झाड़ियां उग आई हैं. जहां एक ओर बिहार के अन्य धरोहरों में जैसे पूर्वी चंपारण स्थित केसरिया स्तूप, जी-20 सम्मेलन के दौरान रोशनी से सराबोर था और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र था, वहीं जॉर्ज ऑरवेल हाउस गुमनामी की चादर तले कहीं खोया हुआ है. ऐसा लगता है कि स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य का पर्यटन विभाग तक इसे भुला चुका है. सरकार और प्रशासन की उपेक्षा के कारण स्थानीय लोग भी इसकी महत्ता से अनभिज्ञ हैं. अपने प्रसिद्ध उपन्यास “एनिमल फार्म” से दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने वाले जॉर्ज ऑरवेल ब्रिटिश मूल के लेखक थे. उनके पिता अंग्रेज़ अफसर थे, जिनकी नियुक्ति मोतिहारी में थी. यहीं 25 जून 1903 को जॉर्ज ऑरवेल का जन्म हुआ था. उनका वास्तविक नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर था. लेकिन जब उन्होंने लिखना शुरू किया तब अपना जॉर्ज ऑरवेल रख लिया. इसी नाम से उन्हें दुनिया भर में पहचान मिली.
जॉर्ज एक साल की उम्र में अपनी मां के साथ वापस इंग्लैंड चले गए और वहीं उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की. ब्रिटिश पत्रकार इयान जैक ने सबसे पहले साल 1983 में जॉर्ज ऑरवेल के जन्म स्थान का पता लगाया था. जिसके बाद कई अवसरों पर साहित्यकारों ने इनके जन्मस्थली को संरक्षित करने और इसे पर्यटन में तब्दील करने की मांग करते रहे हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी इससे प्रेरणा ले सके. हालांकि इसके संरक्षण से न केवल इसे पहचान मिलेगी बल्कि स्थानीय लोगों के लिए आजीविका के रास्ते भी खुलेंगे. वास्तव में, देश की सांस्कृतिक विरासत केवल धरोहर मानकर संरक्षित नहीं की जानी चाहिए बल्कि इनके जरिए आजीविका का साधन भी जुटाने चाहिए. बिहार का राजगीर, नालंदा, बोधगया धरोहरों की धरती है, जहां हर साल लाखों पर्यटक आकर्षित होते हैं. पर्यटकों के आने से स्थानीय लोगों को आजीविका का साधन मिलता है और अंततः राजकोष को फायदा भी होता है, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिति को बल मिलता है.
इस संबंध में स्थानीय नागरिक एवं युवा साहित्यकार नितेश कुमार कहते हैं कि, ‘अगर जॉर्ज ऑरवेल हाउस पर बिहार सरकार के पर्यटन विभाग ने पूरी तरह से ध्यान दिया होता तो यहां पर उनके नाम पर संग्रहालय एवं एक बड़ा उद्यान बना होता, जो देश-विदेश के पर्यटकों, अंग्रेजी और हिन्दी से जुड़े साहित्यकारों के लिए भी ऑरवेल हाउस अनुसंधान का केंद्र होता तथा स्थानीय स्तर पर व्यवसाय भी फलता-फूलता जो वर्तमान संदर्भ में रोजगार का एक बहुत बड़ा हब बन जाता.’ एक अन्य स्थानीय नागरिक अभय कुमार कहते हैं कि, ‘ऑरवेल हाउस के बगल में ही सत्याग्रह पार्क बना हुआ है. अगर पर्यटन विभाग ऑरवेल हाउस को पार्क के तौर पर भी विकसित करता तो नई पीढ़ी के युवा ऑरवेल हाउस के ऐतिहासिक और दूरदृष्टि परख विचारों से प्रेरित होकर अंग्रेजी साहित्य को पढ़ते हुए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना पाते.
बिहार में पर्यटन को बढ़ावा देने के कई कारक हैं. जैसे- आध्यात्मिक स्थल, पारंपरिक व्यंजन और पकवान, मेला एवं महोत्सव, ग्रामीण इलाकों में रची-बसी कलाएं, प्राचीन धरोहर और यहां की सांस्कृतिक विरासत. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं लेकिन जॉर्ज ऑरवेल हाउस के प्रति उनकी उदासीनता बहुत खलती है क्योंकि अगर इसे भी विकसित किया जाता तो शायद सामाजिक स्तर पर स्थिति थोड़ी भिन्न होती. बिहार में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे- सड़कों को दुरुस्त करना, हाईवे पर ढाबा बनाना आदि. बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम द्वारा कई आकर्षक पैकेज के जरिए भी पर्यटकों को आकर्षित करने का प्रयास जाता है. ऐसे में जरूरी है कि जॉर्ज ऑरवेल हाउस को भी संज्ञान में लेकर उसके विकास हेतु कार्य किया जाए क्योंकि इतिहास द्वारा ही कई साक्ष्य मिलते हैं. अगर हड़प्पा की सभ्यता को संभालकर नहीं रखा जाता, तो शायद कई सवाल अनसुलझे ही रह जाते. साथ ही अगर कई साहित्यिक सामग्रियां उपलब्ध नहीं होती, तो बिहार का इतिहास भी कोरे कागज की भेंट चढ़ जाता.
इसलिए इन स्मारक चिन्ह को संरक्षित किया जाना चाहिए ताकि एक ओर बिहार की सांस्कृतिक धरोहर की जड़ें मजबूत हो और दूसरी ओर पर्यटन को बल मिले ताकि स्थानीय स्तर पर रोजगार का सृजन हो सके. कई छोटे मेलों में ही गुब्बारे वाले, खिलौने वाले, चाट-कुलचे वाले, फास्ट फूड वाले, चाय वाले अपने ठेले के साथ खड़े रहते हैं. पटना से सीधे जॉर्ज ऑरवेल की जन्मस्थली तक पर्यटकों के लिए बस सर्विस शुरू कर दी जाये तो स्थानीय स्तर पर होटल कारोबार को भी रोज़गार के नए अवसर मिल सकेंगे. भले ही ये असंगठित क्षेत्र का काम है लेकिन यही छोटे स्तर के काम जीविका का बढ़ा साधन बन जाते हैं.
(चरखा फीचर)