• December 16, 2021

विशेष रिपोर्ट : उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 :: सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा 35 ; धारा 34 जिला आयोग

विशेष रिपोर्ट :  उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 :: सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा 35 ; धारा 34  जिला आयोग

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) के अंतर्गत धारा 35 सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। यह धारा परिवाद को करने की प्रक्रिया नहीं बताती है अपितु परिवाद के लिए अधिकार को जन्म देती है। धारा 34 के अंतर्गत जिला आयोग को अधिकारिता दी गई है।

धारा 35 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को परिवाद करने के लिए अधिकार दिया गया है, यू समझा जाए कि धारा 35 एक मूल विधि है जो अधिकार उत्पन्न करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 35 पर न्याय निर्णय सहित सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है:-

धारा- 35

वह रीति, जिसमें परिवाद किया जाएगा

(1) विक्रय की गई किसी वस्तु या परिदत्त की गई या बिक्री की गई या परिदत्त की गई या उपलब्ध कराई गई किसी सेवा या उपलब्ध कराए जाने के लिए सहमति दी गई किसी सेवा के संबंध में परिवाद को जिला आयोग के पास फाइल किया जा सकेगा, जिसके अंतर्गत इलेक्ट्रानिक ढंग भी है-
(क) उपभोक्ता, जिन्हें ऐसे मालों का विक्रय किया गया है या परिदान किया गया है या विक्रय करने या परिदान करने की सहमति दी गई है या ऐसी सेवा उपलब्ध कराई गई है या उपलब्ध कराए जाने के लिए सहमति दी है,

या

(ii) जो ऐसे मालो या सेवाओं के संबंध में अनुचित व्यापार व्यवहार का अभिकथन करता है;
(ख) कोई मान्यताप्राप्त उपभोक्ता संगम, चाहे वह उपभोक्ता, जिसे ऐसे मालों का विक्रय किया गया है या परिदान किया गया है या जिसे ऐसे मामलों का विक्रय करने या परिदान करने की सहमति दी गई है या ऐसी सेवा प्रदान की गई है या प्रदान करने की सहमति दी गई है या जो ऐसे मालो या सेवाओं के संबंध में अनुचित व्यापार व्यवहार का अभिकथन करता है, ऐसे संगम का सदस्य या नहीं,

(ग) एक या एक से अधिक उपभोक्ता, जहां अनेक ऐसे उपभोक्ता है, जिनका हित समान है, जिला आयोग की अनुज्ञा से सभी उपभोक्ताओं की ओर से या उनके फायदे के लिए इस प्रकार हितबद्ध सभी उपभोक्ता या
(ग) यथास्थिति, केन्द्रीय सरकार, केन्द्रीय प्राधिकरण या राज्य सरकार: परंतु इस उपधारा के अधीन परिवाद इलेक्ट्रानिक रूप में या ऐसी रीति में, जो विहित की जाए, फाइल किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए मान्यता प्राप्त उपभोक्ता संगम से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन कोई रजिस्ट्रीकृत स्वैच्छिक उपभोक्ता संगम अभिप्रेत है।

(2) उपधारा (1) के अधीन फाइल किए गए प्रत्येक परिवाद के साथ ऐसी फीस संलग्न होगी और ऐसी रीति में संदेय होगी, जिसके अंतर्गत इलेक्ट्रानिक प्ररूप भी हैं, जो विहित किया जाए।
इस धारा के अंतर्गत परिवादी के हक में ऋण का संवितरण न किये जाने के पश्चात् उसके द्वारा विरोधी पक्षकार के विरुद्ध प्रतिकर का दावा किया गया। ऐसी दशा में, जहां यह साबित करने के लिए विरोधी पक्षकार द्वारा कोई साक्ष्य नहीं पेश किये गये कि परिवादी को प्रश्नगत भूमि पर उसके हक को स्पष्ट करने के लिए या कतिपय औपचारिकताओं का अनुपालन करने के लिए कभी कोई सूचना नहीं दी गयी थी, वहां इतने पर भी विरोधी पक्षकार ने 300 रुपये की प्रशासनिक फीस का संदाय कर दिया।

इसके अतिरिक्त ऋण की मंजूरी के लिए कोई विस्तार नहीं होता, इसलिए यह अभिनिर्धारित किया गया कि विरोधी पक्षकार कार्यवाही फीस के रूप में वसूली गयी 240 रुपये को परिवादी के हक में वापस करने के लिए उत्तरदायी है और इसके साथ ही साथ उसे ऐसी रकम पर 13% वार्षिक दर ब्याज को प्राप्त करने का भी हकदार माना गया। अतएव, परिवाद का अंशतः स्वीकृत कर दिया गया।
कान्ती कुमार बनाम खण्ड प्रबंधक फेयर प्राइस जम्मू एवम् कश्मीर राज्य वन निगम, 1997 के मामले में विरोधी पक्षकार एवं परिवादी के बीच यह करार हुआ कि विरोधी पक्षकार उसको ईमारती लकड़ी के दावेदार स्लीपरों की आपूर्ति करेगा। परिवादी ने इसके लिए कीमत का भी संदाय कर दिया था। लेकिन ईमारती लकड़ी का परिदान नहीं किया जा सका।

जहां विरोधी पक्षकार ने यह बचाव सम्बन्धी अभिवचन किया कि परिवादी ने स्वयमेव इस अभिवाक् के आधार पर ईमारती लकड़ी को नहीं उठाया कि उसका वह मानक स्तर नहीं था जिस पर उनके बीच सौदेबाजी हुई थी, वहाँ विरोधी पक्षकार का यह मामला नहीं रहा कि परिवादी ने उसी ईमारती लकड़ी के लिए सौदेबाजी की थी जिसका प्रस्ताव किया गया था।

अभिनिर्धारण में इसे, सेवा में कमी करने का एक मामला माना गया क्योंकि परिवादी को, ऐसी स्थिति के उत्पन्न हो जाने के कारण उच्चतर दर पर खुली बाजार में ईमारती लकड़ी खरीदनी पड़ी और जिसके परिणाम स्वरूप परिवादी को विरोधी पक्षकार से 18% व्याज सहित 21,025 रुपये की रकम को वापस प्राप्त करने एवं प्रतिकर एवं जुर्माना के रूप में अधिनिर्णीत 5,000 रुपये की रकम को प्राप्त करने का हकदार माना गया।
उत्तम बनर्जी बनाम जनरल मैनेजर एस0 वी0 आई0, (1993) के प्रकरण में जहाँ पर परिवादी ने मोटर साइकिल खरीदने के लिए बैंक से उधार लेने का ऋण प्रार्थना पत्र भरा परन्तु विपक्षी पार्टी ने उधार देने के लिए इंकार कर दी। विपक्षी पार्टी का साफ इंकार करना कि चूंकि ॠण प्रार्थना पत्र नहीं है तथा परिवादी मोटर साइकिल खरीदने का प्रस्ताव बयान दे रहा है।

राष्ट्रीय आयोग बहुतेरे अवसरों पर यह अवलोकन किया है कि यह वित्तीय संस्थाओं का कार्य है कि वे तय करे कि कर्ज देना उचित है इसके लिए उसके मौजूद अवयवों ऋण वापसी की सम्भावनाओं तथा विश्वसनीयता एवं सच्चाई आदि पर विचारण करने के बाद तय करेगी तथा बैंक या वित्तीय संस्थाओं द्वारा कर्ज का मंजूर न करना सेवा की कमी नहीं है।

अतः उपर्युक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि विपक्षी बैंक को ऋण कर्ता को ऋण प्रदान करना विवेक शक्ति है। परन्तु विपक्षी पार्टी बैंक यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे परिवादी की परेशानी तथा आवश्यकता को समझे और यदि कोई रास्ता या तरीका बैंक द्वारा निर्धारित बैंक या वित्तीय संस्थाओं के अन्दर मदद करने का तो अवश्य करना चाहिए जिससे कि बेरोजगार युवकों को प्रोत्साहन मिल सके उन्हें परिवादी को इस तरफ अवश्व मदद करने का प्रयास करना चाहिये।

उन मामलों में यदि विरोधी पार्टी परिवादी को मोटर साइकिल खरीदने में वित्तीय सहायता देने में अक्षम है तो उसे उसकी वजह अवश्य बताना चाहिये ताकि परिवादी इस उपचार्थ मंच में जा सके। अतः इस प्रकार का निर्देश विपक्षी को अवश्य पालन करना चाहिये।

चूनी भाई एन. मुंशा बनाम सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया 1997 के मामले में मात्र यह तथ्य कि जो रकम ऋण संव्यवहार के अधीन कथित मिल्स एवम् इसके निर्देशकों से विरोधी पक्षकार दो देय है, वह भविष्य निधि खाते में कर्मचारियों के ऋण के प्रति पड़ी हुई रकम को वापस करने या संदाय को रोकने के लिए बैंक का अधिकार नहीं प्रदान करेगा।

यह स्थापित विधि है कि भविष्य निधि खाते में पड़ी हुई रकम कुर्क करने योग्य नहीं होती है बल्कि इससे पृथक उस रकम का अभिप्राय, भविष्य निधि न्यास रकम के माख पर पड़ा रहना होता है और न कि परिवादी क्रमांक 1 से 3 के प्रति एवम् मृतक बी एन मुशा। अतएव, विरोधी पक्षकार के पास भविष्य निधि के न्यासधारियों द्वारा देय रकम के सदाय को रोकने का कोई अधिकार नहीं होता है।
अतः जैसे ऊपर कहा गया है, विरोधी पक्षकार की ओर से सेवा में कमी हुई रकम का संदाय करने से अस्वीकार करने या उसका संदाय करने को रोकने की वजह से हुई। ऐसी दशा में, यह कार्यवाही और सुसंगत होती यदि सभी न्यासधारियों को इसमें संयुक्त किया गया होता। इतने पर भी, इस परिवाद को खारिज नहीं किया जा सकता है।

परिवादी क्रमांक 1 से 3 तथा मृतक बी. एन. मुंशा निःसंदेह उस सेवा के हिताधिकारीगण थे जिसे विरोध पक्षकारों ने भविष्यः विधिन्यास को समर्पित किया। अतएव भविष्य निधि न्यास के अतिरिक्त, सभी परिवादीगण उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (घ) में दी गयी उपभोक्ता की परिभाषा की दृष्टिकोण से उपभोक्ता है और विरोधी पक्षकार की से प्रस्तुत किये गये इस अभिवचन को अस्वीकृत कर दिया कि वे उपभोक्ता की हैसियत नहीं रखते जिसके परिणाम स्वरूप वे प्रतिकर के हकदार नहीं निर्णीत किये जा सकते थे। अंततोगत्वा परिवाद को स्वीकृत कर दिया गया।

प्रबंधक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम (मै0) केमिस्ट प्रोडक्ट्स व अन्य, 1997 के मामले में जहाँ बैंक को बिलों पर माल को गिरवी रखना था और सम्बन्धित पक्षकार में धन की वसूली करनी थी, वहाँ यह माल के छोड़े जाने के लिए उसका समाशोधन कर देगा। इसके अलावा, चूँकि बैंक ने बिल की रकम की वसूली किये बिना ही विरोधी पक्षकार -2 के पक्ष में माल को छोड़े जाने का समाशोधन प्रमाणपत्र जारी कर दिया; इसलिए राज्य आयोग को सेवा में कमी करने वाले बैंक को दोषी ठहराने के निष्कर्ष पर पहुँचने को न्यायोचित पूर्ण ठहराया गया और इसलिए प्रश्नगत आदेश में कोई अवैधानिकता नहीं पायी जाती है। इतने पर भी यदि परिवादी ने विरोधी पक्षकार -2 के विरुद्ध अधिनिर्णीत रकम को प्राप्त कर लिया, तो बैंक ने अब कोई भी धनराशि बरामद नहीं की जायेगी।

जिला मंच का क्षेत्राधिकार:-

जहाँ पर परिवाद रिट याचिकाकर्ता के कार्यक्रम के अन्तर्गत चितरंजन एवन्यू नेताजी पार्क पर सार्वजनिक सुलभ बनवाने को कार्यक्रम विरुद्ध थी। उसी परिवाद के आधार पर जिलामंच ने कलकत्ता महानगर विकास प्राधिकरण का इस प्रकार के न निर्माण करने के लिए आदेश पारित कर दिया।
याचिका की आन्तिम सुनवाई के अवसर पर प्रतिपक्षी की तरफ से यह प्रस्तुत किया गया कि उक्त अधिनियम के अधीन कार्यक्रम के अन्तर्गत रिट न्यायालय को इस रिट याचिका के सम्बन्ध में सुनवाई का अधिकार नहीं है क्योंकि पहले से ही जिलामंच एवं राज्य आयोग में कार्यवाही इस बाबद लम्बित पड़ी है।

यह प्रस्तुत किया गया कि उक्त अधिनियम में उपबन्धों के तहत उब न्यायालय को अधिनियम के अन्तर्गत पारित आदेश के सम्बन्ध में रिट अधिकारिता नहीं है। यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि रिट याचिकाकर्त्ता का कोई उपचार है तो उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे और मौजूद रिट याचिका निरस्त होने योग्य है।

यह अभिनिर्धारित किया गया परिवाद जो प्रतिपक्षी द्वारा दाखिल किया गया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिवाद नहीं है तथा प्रतिपक्षी जिलामंच में प्रस्तुत परिवाद अधिनियम की धारा 2 (द) ने अन्तर्गत परिभषित “उपभोक्ता” शब्द में नहीं आता है। अतः प्रतिपक्षी द्वारा प्रस्तुत परिवाद जिलामंच को सुनने का अधिकार नहीं है क्योंकि परिवाद का विषय उक्त अधिनियम के क्षेत्र तथा दायरे में नहीं आता है।
एक के मामले में यह प्रश्न उठा कि क्या विवादित वाहन के टायर में संरचनात्मक दोष नहीं था। परिवादी ने उस प्रमाण पत्र पर विश्वास व्यक्त किया जिसे उसने उलकनाइजर से प्राप्त किया था। जबकि विरोधी पक्षकार ने उस प्रमाण पत्र पर विश्वास करने का अभिवचन किया जिसे इसके तकनीकी सेवा इन्जीनियर द्वारा जारी किया गया। चूँकि इनमें से किसी भी प्रमाण पत्र को किसी विशेषज्ञ की राय के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता था।

इसलिए जिला फोरम को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पूर्व प्रश्नगत टायर का एक तकनीकी विशेषज्ञ द्वारा परीक्षण कराया जाना चाहिए था। इन सभी तथ्यों एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए पुनरीक्षण राष्ट्रीय आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि जिला फोरम द्वारा पारित किये गये आदेश में अनियमितता पायी जाती है।

चिकितक के विरुद्ध परिवाद:-

श्री राम सिंह ए परमार बनाम श्री सम्मतराज सी० शाह चेयर मैन गुजरात रिसर्च एवं मेडिकल इनटीट्यूट में एक परिवाद विपक्षी हास्पिटल के विरुद्ध था। परिवादी ने कहा कि प्रतिवादी ने अवैध गलत व्यापार व्यवसाय करके परिवादी को भारी क्षति पहुंचाई है। परिवादी को प्रोस्टेट ग्लैण्ड के बड़ जाने से परेशानी थी तथा उसे पेशाब उतरने में परेशानी होती थी।

उसने समाचार पत्र में विपक्षी द्वारा दिया गया विज्ञापन पढ़ा जिसमे सर्व साधारण को सूचित किया गया था कि अब प्रोस्टेट ग्लैण्ड को ऑपरेशन करने की आवश्यकता नहीं है व मे टी० सी० यू आ गया है जो माइक्रो कम्प्यूटर सिस्टम से प्रोस्टेट स्टैण्ड हटा देता है।

यह पाया गया कि अस्पताल न्यास का अस्पताल जो कुशल एवं योग्य चिकित्सकों की नियुक्ति करके तथा उन्हें सा करके वाजिव चार्ट पर सेवाएं प्रदान करता है परिवादी ने अपना ऑपरेशन करना बेहतर नहीं समझा अतः परिवाद में कोई अवैध ढंग का कोई तथ्य ही न था न हास्पिटल में कोई अवैध कार्य ही हो रहा था। इसके विपरीत परिवादी ने अपना दावा बहुत बढ़ चढ़ करके पेश किया तथा से वजह एवं बिना किसी ठोस सबूत हास्पिटल को बदनाम करना चाहा।

चिकित्सको तथा अन्य कर्मचारियों के बाबद न तो कोई उपेक्षा न कोई दुर्भावना ही प्रदर्शित की गयी। परिवादी ने पैकेज डील स्वीकार नहीं किया हॉस्पिटल ने परिवादी से कोई लाभ भी नहीं प्राप्त किया। इस प्रकार के परिवाद चिकित्सकीय संस्थाओं को अपने स्वतंत्र कार्य करने में तथा अपनी सेवाएं गरीब एवं जरूरतमंद रोगियों तक पहुंचाने में बाधक होगी आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि परिवाद निरस्त होने योग्य है।

जहाँ परिवादिनी पत्नी को विरोधी पक्षकार के अस्पताल में भर्ती कराया गया और डी एम ई की शल्यचिकित्सा द्वारा गर्भावस्था के समाप्ति की सलाह दी गयी; वहाँ परिवादिनी को कोई भी अनुतोष नहीं प्राप्त हुआ और उसके उदर में पीड़ा हो रही थी। इसलिए उसे एक दूसरे अस्पताल में भर्ती किया गया जहाँ डाक्टर द्वारा उसकी तत्काल शल्यचिकित्सा कराने की सलाह दी गयी, क्योंकि उसके युटेरस (गर्भाशय) एवम् ऑत में छिद्र हो गया था तथा उसके उदर में मेवाज (pus) एकत्रित हो रही थी।

इसी सन्दर्भ में एक दूसरे डाक्टर से भी सलाह ली गयी और तदोपरान्त शल्यचिकित्सा किये जाने के दौरान रोगी की आँत काटकर निकाल दी गयी। परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध प्रतिकर का दावा किया और यह अभिकथन किया कि विरोधी पक्षकार ने उसके उपचार के दौरान उपेक्षा की। विरोधी पक्षकार ने परिवादी के अभिकथनों का प्रत्याख्यान किया जहाँ प्रत्याख्यान मात्र यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं होता कि विरोधी पक्षकार ने डी एवम् ई की शल्य चिकित्सा सावधानी पूर्वक ढंग से की थी।

युक्तियुक्त पूर्ण ढंग से योग्यता प्राप्त डाक्टर से सही प्रत्याशा की जानी ती कि वह परिवादिनी पत्नी की शल्यचिकित्सा सतर्कतापूर्वक ढंग से करता। इसके अलावा, चूंकि डी० एवम् ई) की शल्य चिकित्सा की जाने से सम्पूर्ण उपेक्षा विरोधी पक्षकार की ओर से की गयी और इससे उसको शारीरिक एवम् मानसिक कष्ट झेलना पड़ा। अतएव, विरोधी पक्षकार को आपरेशन में हुए खर्च के लिए 1,50,00.00 रुपये तथा शारीरिक एवम् मानसिक पीड़ा के बाबत बतौर प्रतिकर 50,00,00 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।

कन्नूमर प्रोटेक्शन काउन्सिल व अन्य बनाम डा० एम सुन्दरम व अन्य, 1997 का प्रकरण राष्ट्रीय आयोग का है। इसमे पैथोलाजिस्ट या रोग विशेषज्ञ चिकित्सक की रिपोर्ट यह प्रदर्शित करती थी कि लिमफोमा का जमाव हो गया और इस रिपोर्ट के आधार पर चिकित्सक ने रोगी को इनडाक्सन का इन्जेक्शन दिया। बोन मेरो नमूना (Bone Marrow sample) का जब बाद में आस्थिरोग विशेषज्ञ द्वारा विश्लेषण किया गया तब उसने यह रिपोर्ट प्रस्तुत किया कि चिकित्सीय तश्वीर हाडफिन्स बीमारी का समाधान नहीं करती थी, किन्तु रोगी मोलियोपेटिक एनीमियाँ से भी ग्रसित था।

इसके अलावा रोगी के गुर्दा ने काम करना बन्द कर दिया था और उसका चिकित्सीय उपचार, गुर्दे को स्थानान्तरित करने के लिए किया गया। हालांकि विरोधी पक्षकार के विरुद्ध दोषारोपण किया गया कि रोगी के रोग का जो हजाकिन्स लिम्फोमा के रूप में किया गया और उसे जो इन्डोक्शन का इन्जेक्शन दिया गया, वह पूर्णतया दोषपूर्ण था, मेकिन साध्य यह प्रदर्शित करते है कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर तथा रोगी को कोई भी दवा देने के पहले विरोधी पक्षकार के किसी रोग विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिये थी।

जहाँ परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध यह दोषारोपण किया कि उसने असावधानी पूर्वक ढंग से चिकित्सीय उपकरणों का प्रयोग करते हुए उसका उपचार किया; जबकि परिवादी अनेक उदर सम्बन्धी हार्निया रोग से पीड़ित रहता था; वहाँ राज्य आयोग ने परिवाद को खारिज करते समय, उसके अभिकथनों से संव्यवहार नहीं किया और राज्य आयोग ने पक्षकारों के बीच आयोग की एक महिला सदस्य की मार रिपोर्ट तथा समझौता करार के आधार पर निर्णय दे दिया था।

इसके अलावा, जहाँ अनेक उदरीय हार्निया एवं स्थायी तौर पर कम होने वाले बल्ज की समस्या, समझौता करार के हो जाने के पश्चात् पैदा हुई; वहाँ यह न्यायसंगत एवम् उचित होगा कि परिवादी के परिवाद का निस्तारण पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये साध्य के आधार पर ही किया जाता।
एक मामले में परिवादी ने एक पुरानी प्रिंटिंग मशीन विपक्षी निर्माता से क्रय की। समस्या पैदा होने पर किसी अभियंता द्वारा मरम्मत नहीं की गयी। परिवादी ने मशीन की कीमत एवं क्षतिपूर्ति के लिए दावा दायर किया। इसके पूर्व उसकी मरम्मत की जा चुकी थी तथा उसके पार्ट्स इतने ज्यादा बदले जा चुके थे कि उसकी नई मशीन की शक्ल देना न मुमकिन था।

अतः विपक्षी का उसको मरम्मत करने का कोई विधिक उत्तरदायित्व न था खास तौर तब जब नामुमकिन हो गया हो। ऐसा कोई भी नियम नहीं है कि जब शर्त सीमा खत्म हो जाय या लम्बा समय बीत जाय तब पर भी निर्माता की मरम्मत की जिम्मेदारी बनी रहे।

अतः विपक्षी की तरफ से उसकी मरम्मत करके मशीन को नई शक्ल देने में कोई असावधानी नहीं करना कोई सेवा में कमी नहीं थी। अतः विपक्षी को यह निर्देश दिया गया कि परिवादी को 8444/- रुपये की धनराशि वापस कर दे और परिवाद खारिज कर दिया गया।
स्वरोजगार हेतु डिश एन्टीना में खराबी क्षतिपूर्ति के मामले में परिवादी ने अपने रोजगार हेतु विपक्षी पार्टी से डिस ऐन्टीना मय रिसीवर के क्रय क्रिया। डिस एन्टीना उचित रूप से कार्य नहीं कर रहा था।

यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी को डिस एन्टीना की कीमत 115000/- मय 18% सालाना ब्याज के बिक्री की तिथि से वापस पाने का अधिकार है। विपक्षी पार्टी को भी यह निर्देश दिया गया कि बतौर क्षतिपूर्ति के 25000/- रुपया अदा करे तथा मुकदमे का खर्च 2000/- भी अदा करे।
एक मामले में जहाँ पर परिवादी ने एक कार खरीदी उसने खरीदते ही तमाम समस्यायें उसमें आ गयी जिसके लिए कई बार पार्ट्स बदलने पड़े तथा मरम्मत कराने पड़े। परिवादी ने आरोप लगाया कि खरीदने के थोड़े ही दिनों में उसे कार का गास्केट गियर कक्स आदि बदलना पड़ गया किसी भी तरह से कार सन्तोष जनक सेवा नहीं प्रदान कर रही थी।

परिवादी ने अपने परिवाद में आरोपित कार से सम्बन्धित सभी बाते जो विपक्षी निर्माता से खरीदी थी साबित कर दी। यह निर्धारित किया गया कि परिवादी उसकी कीमत वापस पाने का हकदार था।

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