- October 21, 2021
तालिबानः भारत की सही पहल— डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले ढाई महिने से हमारी विदेश नीति बगले झांक रही थी। मुझे खुशी है कि अब वह धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी है। जब से तालिबान काबुल में काबिज हुए हैं, अफगानिस्तान के सारे पड़ौसी देश और तीनों महाशक्तियाँ निरंतर सक्रिय हैं। वे कुछ न कुछ कदम उठा रही हैं लेकिन भारत की नीति शुद्ध पिछलग्गूपन की रही है। हमारे विदेश मंत्री कहते रहे कि हमारी विदेश नीति है— बैठे रहो और देखते रहो की! मैं कहता रहा कि यह नीति है— लेटो रहो और देखते रहो की।
चलो, कोई बात नहीं।
देर आयद, दुरुस्त आयद! अब भारत सरकार ने नवंबर में अफगानिस्तान के सवाल पर एक बैठक करने की घोषणा की है। इसके लिए उसने पाकिस्तान, ईरान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, चीन और रूस के सुरक्षा सलाहकारों को आमंत्रित किया है। इस निमंत्रण पर मेरे दो सवाल हैं। पहला, यह कि सिर्फ सुरक्षा सलाहकारों को क्यों बुलाया जा रहा है? उनके विदेश मंत्रियों को क्यों नहीं? हमारे सुरक्षा सलाहकार की हैसियत तो भारत के उप-प्रधानमंत्री- जैसी है लेकिन बाकी सभी देशों में उनका महत्व उतना ही है, जितना किसी अन्य नौकरशाह का होता है।
हमारे विदेश मंत्री भी मूलतः नौकरशाह ही हैं। नौकरशाह फैसले नहीं करते हैं। ये काम नेताओं का है। नौकरशाहों का काम फैसलों को लागू करना है। दूसरा सवाल यह है कि जब चीन और रूस को बुलाया जा रहा है तो अमेरिका को भारत ने क्यों नहीं बुलाया? इस समय अफगान-संकट के मूल में तो अमेरिका ही है। क्या अमेरिका को इसलिए नहीं बुलाया जा रहा है कि भारत ही उसका प्रवक्ता बन गया है? अमेरिकी हितों की रक्षा का ठेका कहीं भारत ने तो ही नहीं ले लिया है? यदि ऐसा है तो यह कदम भारत के स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी संप्रभुता को ठेस पहुंचा सकता है। पता नहीं, पाकिस्तान हमारा निमंत्रण स्वीकार करेगा या नहीं? यदि पाकिस्तान आता है तो इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं है। तालिबान के काबुल में सत्तारुढ़ होते ही मैंने लिखा था कि भारत को पाकिस्तान से बात करके कोई संयुक्त पहल करनी चाहिए।
काबुल में यदि अस्थिरता और अराजकता बढ़ेगी तो उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पाकिस्तान और भारत पर ही होगा। दोनों देशों का दर्द समान होगा तो ये दोनों देश मिलकर उसकी दवा भी समान क्यों न करें ? इसीलिए मेरी बधाई ! यदि तालिबान के सवाल पर दोनों देश सहयोग करें तो कश्मीर का हल तो अपने आप निकल %