महाराष्ट्र का 77 प्रतिशत फसल-क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से जोखिम ग्रस्त — चैतन्य आधव

महाराष्ट्र का 77 प्रतिशत फसल-क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से जोखिम ग्रस्त — चैतन्य आधव

जबकि महाराष्ट्र के किसान हाल की बाढ़ और अतिरेक मौसम की घटनाओं से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, एक ताजा अध्ययन बताता है कि ऐसी जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अभी इससे भी अधिक खराब हो सकता है।
महाराष्ट्र के 36 जिलों में 11 जिले अतिरेक मौसम की घटनाओं से अत्यधिक जोखिमग्रस्त हैं जिनमें सूखाड़ व घटती जल-सुरक्षा शामिल है। इसमें मध्य महाराष्ट्र का लगभग 40 प्रतिशत फसल-क्षेत्र आता है। इसीतरह 14 जिलों में फैला राज्य का 37 प्रतिशत कृषि-क्षेत्र सामान्य रूप से जोखिमग्रस्त है। इसतरह महाराष्ट्र का तीन-चौथाई फसल-क्षेत्र मौजूदा जलवायु परिवर्तन से सामान्य या अत्यधिक जोखिमग्रस्त है।
एक शोध – सोशियो-इकोनॉमिक वल्नरेबेलिटी टू क्लाइमेट चेंज- इंडेक्स डेवेलॉपमेंट एंड मैपिंग फॉर डिस्ट्रिक्ट इन महाराष्ट्रा- ने उजागर किया है कि जलवायु परिवर्तन की अतिरेक स्थिति महाराष्ट्र में आजीविका की स्थिति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित करती है।
एक विशेषज्ञ स्तर का शोध अध्ययन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (इंडियन कौंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च व राष्ट्रीय दुग्ध शोध संस्थान (नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिच्यूट,एनडीआरआई) करनाल, हरियाणा में चैतन्य आढाव ने भारतीय गेहूं व जौ शोध संस्थान (इंडियन इंस्टिच्यूट ऑफ ह्वीट एंड बार्ली रिसर्च) करनाल के डॉ आर सेंधिल के मार्गदर्शन में किया। जिसमें उजागर हुआ कि नंदुर्बार जिला सर्वाधिक जोखिमग्रस्त जिला है जो तुफान, बाढ़, सूखा, वर्षा की बदलती पध्दति और अत्यधिक तापमान झेलता है, जिससे फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है। अन्य जोखिमग्रस्त जिलों में बुल्ढाना, बीड, जालना, औरंगाबाद, हिंगोली, परभनी , नांदेड़, अकोला, अमरावती, वासिम हैं।“
अध्ययन में सामान्य रूप से जोखिमग्रस्त 14 जिलों की सूची भी प्रस्तुत की गई है जिसमें धुले, जलगांव, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग, सांगली, सोलापुर, उस्मानाबाद, लातूर, यवतमाल, वर्धा, चंद्रपुर, भंडारा, गोंडिया और गडचिरोली शामिल हैं।
इन जिलों की जिन प्रमुख फसलों पर जलवायु परिवर्तन का बुरा प्रभाव होगा उनमें ज्वार, धान, गेहूं, ईंख, कपास, रागी, काजू, जौ, बाजरा हैं। इनपर भविष्य में अधिक बुरा प्रभाव पड़ेगा।
श्री आढाव ने बताया कि इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि अधिकतर अत्यधिक जोखिमग्रस्त जिले मध्य महाराष्ट्र के पठारी क्षेत्र में हैं जो महाराष्ट्र के कुल फसल-क्षेत्र का करीब 22.22 प्रतिशत इलाका है। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय विदर्भ क्षेत्र में 6.78 प्रतिशत फसल-क्षेत्र भी अत्यधिक जोखिमग्रस्त है।
लेखकों ने स्पष्ट किया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्पन्न जोखिम की मात्रा निर्धारित करने के लिए सामाजिक-आर्थिक जोखिमग्रस्तता सूचकांक (सोशियो-इकोनॉमिक वल्नरेबिलिटी इंडेक्स, एसईवीआई) की गणना जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय समिति( इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज,आईपीसीसी) की पध्दति को अपनाते हुए प्रमुख जलवायु मानदंडों जैसे- अनावरण, संवेदनशीलता और अनुकूलन क्षमता के आधार पर संबंधित जिले की जलवायु जोखिमग्रस्तता निर्धारित की गई।
महाराष्ट्र के 34 जिलों की कृषि से संबंधित विभिन्न जलवायु और सामाजिक-आर्थिक वेरिएबल्स के 44 सूचकों पर माध्यमिक तथ्य एकत्र किए गए जिन्हें विशेषज्ञों की राय के आधार पर चिन्हित किया गया। अध्ययन में मुंबई महानगर और उपनगरीय जिलों को शामिल नहीं किया गया है।
भारत की आजीविका की स्थिति पर रिपोर्ट 2019 के अनुसार, महाराष्ट्र की 51 प्रतिशत आबादी के लिए कृषि क्षेत्र आजीविका का प्रमुख स्रोत है।
श्री आढाव ने कहा कि जिलों का मानचित्रण दिखाता है कि मध्य महाराष्ट्र के केन्द्रीय पठारी क्षेत्र, अभावग्रस्त क्षेत्र (धुले, नंदुर्बार का एक हिस्सा और औरंगाबाद) और पूर्वी विदर्भ क्षेत्र में सोशियो-इकोनॉमिक वल्नेरेबिलिटी का मुकाबला करने के लिए केन्द्रीत (फोकस्ड) नीतिगत प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है।
अध्ययन के अनुसार, किसानों के बीच प्रदर्शनी, पूर्व चेतावनी के माध्यम से जानकारियों का प्रचार-प्रसार – इन जलवायुजनित प्रभावों का मुकाबला करने की रणनीति में निश्चित रूप से शामिल होना चाहिए और जिसे गांव के स्तर पर शुरू करने की जरूरत है।
लेखकों ने कहा कि इसके अतिरिक्त नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में कार्यान्वयन के पहले जहां तक संभव हो, उतने हितधारकों से मिली सूचनाओं को शामिल करना चाहिए। आखिरकार, सूक्ष्म-स्तर(माइक्रो लेबेल) की अनुकूलन रणनीतियों के परिणामों को राज्य स्तर पर परिलक्षित होना चाहिए।
जलवायु जनित कृषि संकट से नौ जिलों -पालघर, थाणे, रायगड, नासिक, सतारा, कोल्हापुर, अहमदनगर, नागपुर और पुणे को न्यूनतम जोखिमग्रस्त पाया गया।

विशेषज्ञ का उध्दरण

अक्षय देवरस , स्वतंत्र मौसमविज्ञानी और इंगलैंड में यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग में पीएचडी छात्र
महाराष्ट्र के किसान मौसम की अतिरेकी घटनाओं से अत्यधिक जोखिमग्रस्त हैं। केवल पिछले दशक में ही मौसम के अतिरेक की कई घटनाएं हुई। वर्ष 2014, 2015, 2018 में प्रचंड सूखा, वर्ष 2014 और 2015 में भारी ओलावृष्टि और 2016, 2019 और 2021 में अत्यधिक वर्षा हुई जिससे राज्य के पश्चिमी इलाके में उल्लेखनीय बाढ़ आई। कोंकण तट पर हाल में उष्णकटिबंधीय चक्रवात-निसर्ग और तौकते ने क्रमश ; 2020 और 2021 में काफी प्रभाव पड़ा और फिर बाढ़ आ गई। राज्य के अधिकांश हिस्से जिसमें मुख्यतौर पर मराठवाड़ा और विदर्भ शामिल हैं, में समुचित सिंचाई की व्यवस्था के अभाव में मानसून की वर्षा में उलटफेर होने पर फसलों की बुवाई और विकास पर असर पड़ता है जिससे फसलों की उपज अत्यधिक जोखिमग्रस्त हो गई है।

मौसम की भविष्यवाणी का प्रचार-प्रसार करने की मजबूत प्रणाली उपलब्ध नहीं होना जोखिम को बढ़ा देता है। हालांकि मौसम और फसल के बारे में परामर्श विभिन्न माध्यमों से भेजी जाती है, जैसे केन्द्र का एम.किसान पोर्टल (जो टेक्स्ट संदेश सेवा है) पर ऐसी सेवाओं में सुधार की जरूरत है ताकि किसानों पर उल्लेखनीय रूप से सकारात्मक प्रभाव डाल सकें। समूचे उत्तरी महाराष्ट्र के जिलों जैसे-धुले, नांदुर्बार, जलगांव, नासिक और पश्चिमी विदर्भ के हिस्से(बुल्ढाना, अकोला और वासिम) में इस वर्ष बहुत कम दिनों तक मानसूनी वर्षा हुई।

जून में पहले चरण की बुवाई निश्चित रूप से समुचित वर्षा नहीं होने से नाकाम हो गई। समुचित और सुस्पष्ट परामर्श से किसानों को जून में बुवाई करने से मना किया गया होता तो उन्हें आर्थिक नुकसान नहीं उठाना पड़ता। अब उन्हें जुलाई में फिर से बुवाई करनी होगी। पूर्वी विदर्भ के कुछ हिस्सों में भी इस वर्ष हल्की वर्षा हुई, जिससे धान की फसल की रोपाई में समस्या आई।
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