भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के अथक सेनानी : बलदेव बंशी – प्रो. अमरनाथ

भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के अथक सेनानी : बलदेव बंशी  – प्रो. अमरनाथ

भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के लिए 80 के दशक में संघ लोक सेवा आयोग के गेट पर वर्षों तक चलाए गए धरने के अध्यक्ष रहे बलदेव बंशी (1.6.1938-7.1.2018) अपने संघर्ष के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. इस आन्दोलन में पुष्पेंद्र चौहान और राजकरण सिंह जैसे योद्धाओं ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. इसी संगठन से जुड़े पुष्पेन्द्र चौहान को भला कैसै भुलाया जा सकता है जिन्होंने 10 जनवरी 1991 को लोकसभा की दर्शक दीर्घा से नारा लगाते हुए गैलरी में कूद पड़े. उनकी पसलियाँ टूट गईं. गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद चौहान ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा. उन्होंने कई वर्ष तक शास्त्री भवन के बाहर धरना दिया.

धरने के दौरान बलदेव बंशी भी कई बार गिरफ्तार हुए थे. इस आन्दोलन से वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक, कथाकार महीप सिंह और प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी भी जुड़े थे और समय निकालकर धरने पर बैठते रहे. राजनेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और राम विलास पासवान भी उस धरने पर बैठे थे. लगातार अनशन, धरना आदि करते हुए तथा अनेक सांसदों, पत्रकारों, साहित्यकारों आदि का समर्थन हासिल करते हुए उन्हें संघ लोक सेवा आयोग की कुछ परीक्षाओं में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं को लागू करने में आँशिक सफलता भी मिली. निस्संदेह बलदेव वंशी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार तो हैं ही, भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के आंदोलन में भी उन्होंने अग्रणी भूमिका निभायी है.

बलदेव बंशी ‘अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन’ के अध्यक्ष थे. उनका मानना था कि “आज सबसे बड़ी और पहली जरूरत ‘भारतीय भाषाएँ लाओ’ कहने की है. ‘अंग्रेजी हटाओ’ कहने की नहीं. ‘अंग्रेजी हटाओ’ कहना जहाँ नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है, वहीं वह मात्र ‘हिन्दी लाओ’ मान लिया जाता है. जबकि भाषा समस्या के इतिहास से जरा सा परिचय रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अब अंग्रेजी को समूचे भारतीय जन और भारतीय भाषाओं की सम्मिलित ताकत ही हटा पाएगी. ….इसलिए ‘भारतीय भाषाएँ लाओ’ कहने से सकारात्मक वातावरण बनेगा और सभी भारतीय भाषाएँ आगे बढ़ेंगी. इनके बढ़ने से, शिक्षा –परीक्षा –रोजगार का माध्यम बनने से अंग्रेजी अपने आप पीछे हटेगी.” (भारतीय भाषाएँ लाओ –देश बचाओ, भूमिका, पृष्ठ-5)

डॉ.बलदेव बंशी का जन्म अविभाजित भारत (वर्तमान पाकिस्तान) के वजीराबाद स्थित ननकाना साहिब के निकट शेखपुरा में हुआ था. उनके पिता वहाँ एक अस्पताल में कंपाउंडर थे. विभाजन के समय वे वहाँ कक्षा- 4 के छात्र थे. उन्होंने विभाजन की त्रासदी अपनी आँखों से देखी थी. हजारों लोगों को कत्ल होते हुए देखा था. जिस समय उनकी उम्र 8-9 साल की थी, उनका परिवार कई जगह भटकते हुए किसी तरह दिल्ली पहुँचा और लाजपत नगर में आकर बस गया. दिल्ली में रहते हुए उन्होंने पढ़ाई की और दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक बन गए. बाद में वे फरीदाबाद में जाकर बस गए.

‘भारतीय भाषाएँ लाओ देश बचाओ’ शीर्षक से बलदेव बंशी ने एक पुस्तिका प्रकाशित करके उसे बड़ी संख्या में वितरित करवाया था जिसके अन्तिम कवर पृष्ठ पर पुष्पेन्द्र चौहान, राजकरण सिंह, हीरालाल, विघ्नेश्वर पाण्डेय और श्योचंद्र निर्वण के उद्वेलित करने वाले चित्र भी सत्याग्रह की मुद्रा में है. स्वभाषा के लिए संघर्ष वाले प्रख्यात योद्धा श्यामरुद्र पाठक ने एक बातचीत में मुझे बताया कि जिन दिनों वे (श्यामरुद्र पाठक) यूपीएससी द्वारा लागू सीसेट के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे, पर्याप्त वृद्ध होने के बावजूद बलदेव बंशी बीच- बीच में धरने पर बैठने आया करते थे. इन्हीं दिनों धरना चलाने के लिए उन्होंने आर्थिक सहयोग की भी पेशकश की थी जिसे श्यामरुद्र पाठक ने मना कर दिया था क्योंकि उस आन्दोलन के लिए हमदर्द लोगों से आर्थिक सहयोग लेने की जरूरत नहीं महसूस की गई थी. श्यामरुद्र पाठक ने बताया कि बलदेव बंशी ने अपना आर्थिक सहयोग देने के लिए जिद कर लिया था और अंत में हमारे ऊपर इतना दबाव पड़ा कि उनके सम्मान को देखते हुए और नियम तोड़ते हुए प्रतीक रूप में उनसे एक सौ रूपए ग्रहण करने पड़े थे.

बलदेव बंशी मूलत: कवि तथा संत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं. उनके एक दर्जन से अधिक काव्य संग्रह, दस आलोचनात्मक ग्रंथ, नाटक, संस्मरण आदि लेकर पचास से अधिक ग्रंथ प्रकाशित हैं. उन्होंने ‘दादू ग्रंथावली’, ‘सन्त मलूकदास ग्रंथावली’, ‘सन्त मीराबाई’ और ‘सन्त सहजो कवितावलियाँ’ का संपादन किया है. वे संत साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी थे.

‘अपनी भाषा’ की ओर से भारतीय भाषा परिषद कोलकाता के सभागार में 14 व 15 नवंबर 2009 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई थी. ‘उभरती अस्मिताएँ और हिन्दी भाषा’ विषय पर आयोजित उस संगोष्ठी में वे आए थे, यादगार व्याख्यान दिया था और दोनो दिन कोलकाता में हमारे साथ रहे.

7 जनवरी 2018 को दिल का दौरा पड़ने से दिल्ली में बलदेव बंशी निधन हो गया. उनकी पुण्य तिथि पर हम भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए किए गए उनके महान कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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